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जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्षणिकाएं

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घिर के आई रात छाया अंधकार ज्यौं जीवन में दुख अंधकार में चमकते जुगनू ज्यौं जीवन में सुख पौ फटी छटा अंधकार मिटने लगा दुख फैली किरणें सर्वत्र आश और उमंग की जागा हर्ष हुई भोर जीवन में आया सुख बरसी खुशियां अपार चढती दोपहरी ज्यौ जीवन में उन्नति याकि बढती उम्र ढलने लगी सांझ होने लगा दिन का अंत जीवन में ज्यौं आया बुढापा हुई रात हुआ दिन का अंत ज्यौं हुआ  जीवन का अंत चक्र चलता ये अनवरत नहीं बदलता नियम सृष्टि का हम पाले रहते वहम भूल सत्य असत्य का भ्रम जीवन को बना लेते भार ये ईश्वर का उपहार।। अभिलाषा चौहान 

अनंत यात्रा........

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कुछ कहा भी नहीं कुछ सुना भी नहीं लिए अपना दर्द दिया औरों का दर्द समेट तुम चल दिए अनंत यात्रा पर छोड गए कसक मन में तोड़ गए सभी सपने शायद ये जिंदगी तुम्हें रास नहीं आई आनी भी नहीं चाहिए क्या रखा है इस जिंदगी में ! हर ओर छलावा है हर ओर दिखावा है सच्चे दिल की पीडा कोई कहां समझ पाता है सब निमग्न है अपने - अपने स्वार्थ में कोई संपत्ति में तो कोई अर्थ में पड़ी ही नहीं जब किसी को किसी की फिर क्यों जीना व्यर्थ में? क्या तुमने भी यही  सोचा? वो दर्द जो तुम्हारी आंखों में मैने महसूस किया था क्या था उन आंखों में? चल दिए तुम अनंत यात्रा पर निःशब्द ...... छोड़ गए तुम एक अनुत्तरित प्रश्न जिसमें जूझते रहेंगे हम ताउम्र खोजते तुम्हारी चुप्पी का कारण शायद कभी हम समझ पाएं याकि खुद को समझा पाएं अभिलाषा चौहान

देश का कर्णधार

जो करे कभी कर्म नहीं निभाए मनुज धर्म नही रहे दुर्दैव को कोसता मेहनत का जिसे मर्म नहीं रहे सदा असफल जो कहे कौन मनुज उसे सत्य से है दूर जो भाग्य को जो कोसता असफल हो सदा वो रोना किस्मत का रोता मनुज तो वही सदा जो पुरूषार्थ के पथ पर चले बाजुओं के जोर से किस्मत को बदल दे उत्साही वीर नौजवान डरे  नहीं रूके नहीं पथ में शूल हों या बेडियां हो प्रेम की कर्तव्य और कर्म की जिसे सदा पहचान हो देश की किस्मत भी पल में जो बदल सके वही वीर नौजवां देश का कर्णधार है             अभिलाषा चौहान

फलसफा जिंदगी का........

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जमाने की नजरे इनायत तो देखो क्या क्या सितम हम पर ढाए गए हैं  । जो हमने खुश होके जीना है चाहा तो दुनिया को हम भाये नहीं है।  हमने भी ठाना दिखाना जमाने को कि हम तो कभी घबराये नहीं है। लेकर चले हम जख्मेदिल  तो दांतों तले वे अंगुली दबाये हुए हैं। हमने तो बांधा कफन अपने सिर पर दुख को साथी बनाए हुए हैं। रहमत पर उसकी है पूरा भरोसा जिंदगी को जन्नत बनाए हुए हैं ।               अभिलाषा चौहान

क्षणिकाएं...........

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पलक उठी पलक झपकी बस पल का है जीवन आंसू गिरे कभी खुशी के कभी गम के बस इतना सा है फसाना प्यार हुआ कभी सफल कभी असफल बस इतना सा है अफसाना कभी हार कभी जीत जिंदगी की बस यही रीत कभी खोया कभी पाया फिर भी कुछ समझ न आया यही है जीवन कभी सुख कभी दुख कभी आशा कभी निराशा यही है परिवर्तन न तो कल न तो आज जिंदगी तो बस है इसी पल कभी जन्म कभी मृत्यु है चलता यह चक्र निरंतर अभिलाषा चौहान

तन्हाई जीवन में छाने लगी है.......

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मेरी स्वानुभूतियां जिन्हे शब्दों में ढालकर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं......... आजकल चांद भी दहकने लगा है चांदनी तन को चुभने लगी है नहीं सितारों में चमक पहले जैसी रात भी अब दिल को खलने लगी है मौसम की तरह बदलने लगे सब तन्हाई जीवन में छाने लगी है खोया है जीवन का सारा सुकूं अब आंधियां जबसे चलने लगी हैं हमसफर की बदलने लगी फितरतें अब साथ चलने की कीमत लगने लगी है हर बात में होती सौदेबाजी यहां अब दुकानें घर घर खुलने लगी हैं बिकने लगे आज जीवन के रिश्ते खुशियां भी आज रोने लगी हैं दिखावे के बाजार सजते यहां अब आंसुओं की कीमत घटने लगी है घुटने लगा दम आबो-हवा में जिंदगी की रूमानियत खोने लगी है । अभिलाषा चौहान

बस युवा वही कहलाते हैं......

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आजकल जो युवा काल्पनिक दुनिया में रहतें हैं और अपने जीवन के अनमोल समय को व्यर्थ गंवा देते हैं, उन पर चंद पंक्तियाँ ..... ख्याली पुलाव  पकाते हैं ख्यालो के महल बनाते हैं बातों के बताशे फोडें जो वे युवा नहीं कहलाते हैं हैं सतरंगी सपने उनके घूमें वे भंवरा बनके करें हरकतें जो छिछोरों सी वे युवा नहीं कहलाते हैं फैशन के दीवाने वे शमा के हैं परवाने वे मांबाप की सारी मेहनत को सरे राह धुएं में उडाते हैं वे युवा नहीं कहलाते हैं जीवन का भार लिए फिरते पतन की राह हैं जो चलते हैं  ऐशो आराम की चाह जिन्हें परिवार की नहीं परवाह उन्हें वे युवा नहीं कहलाते हैं व्यसन जिन्हें अति प्यारा हो मेहनत से किया किनारा हो दुर्दैव का रोना रोते जो वे युवा कहां कहलाते हैं समय की बदले धारा जो मुटठी में जिनके आसमां हो जो चट्टानों से टकराए बस युवा वही कहलाते हैं       अभिलाषा चौहान

भूखे भजन न होय गोपाला

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हमारे देश में एक देश ऐसा भी है जहां सुख का सूरज अभी नहीं उदित हुआ है, क्या मैं सही कह रही हूं....... वो आंखें जो करती सदा अच्छे दिन की उम्मीद उनके जीवन में भी कभी आ जाए ईद रहती है सदा उनकी जेब खाली नहीं मनती कभी वहां दीवाली खुशियां उनकी हो जाती होली चुभती हैं उन्हें बडी बडी बोली दो वक्त की रोटी के पडे जहां लाले वहां बडे बडे सपने कोई कैसे पाले सर पर छत न कपडे नसीब हो गरीबी ने फोडे जिनके नसीब हो आंखों में जिनके हर पल नमी हो जिनके जीवन में खुशियां ही नहीं हो जो अपना भविष्य ही अंधेरे में पाते हैं देश के भविष्य को कहां समझ पाते हैं सूनी आँखों से कहीं सपने देखे जाते हैं भूखे पेट कहीं भजन किए जाते हैं  ! !                           अभिलाषा चौहान 

कशमकश जिंदगी की

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जीवन में कभी-कभी अनिर्णय की स्थिति आ जाती है । उसका कारण मेरी दृष्टि में ये है। आप क्या सोचते हैं, बताइए जरा...... मन न माने दिल की दिल न माने दिमाग की एक युद्ध छिड़ा अंतरतम में एक द्वंद्वं मचा है जीवन में जब खुद को ही न सम्हाल सके तो दुनिया कैसे हम सम्हालेंगे मन उडता है नीलगगन में दिल डूबा है भाव समंदर में दिमाग भिडाता तिकड़म है ऊहापोह का ये जीवन है कैसे इनको हम समझाए जब तक  न तीनों साथ चले मंजिल को पाना मुश्किल है जब तक खुद को न जीत सके तो दुनिया कैसे जीतेंगे आधी उम्र बीती उलझन में आधी बीती इन्हें सुलझन में जब तक इनसे हम उबरेंगे उमर की गगरी रीतेगी जिंदगी कशमकश की ऐसे ही ये बीतेगी अभिलाषा चौहान

जिंदगी को जिंदगी रहने दो

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मेरी यह पंक्तियाँ उन लोगों के ऊपर आधारित है, जो ऐसा जीवन जीते हैं। कभी अहम कभी वहम कभी मैं कभी तुम जिंदगी बनी इनसे सदा जहन्नुम कभी रार कभी तकरार कभी वार कभी तिरस्कार जिंदगी हुई इनसे बेकार कभी मेरा कभी तेरा जिंदगी को मायूसियों ने घेरा कभी तृष्णा कभी ईर्ष्या कभी घृणा कभी कुंठा जिंदगी को नफरतों ने घेरा कभी डर कभी फिकर जिंदगी में छाया अंधेरा जिंदगी को जिंदगी रहने दो खुदा की बंदगी रहने दो न बनाओ इसे मुश्किल इसे फूलों की तरह खिलने दो ।           अभिलाषा चौहान 

सावन में पड़ गए हिंडोला....

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बागन  पड़ गए हिंडोला मेरो मन बार बार डोला कंदब की छैंया पडो हिंडोला कान्हा झुलावे राधे को झूला बागन. ..... कैलास पे डारो शिव ने हिंडोला गौरा को प्रेम से झुलावे झूला बागन........ नारायण ने डारो वैकुण्ठ में हिंडोला लक्ष्मी को प्रेम से झुलावे झूला बागन ........ मैं सखी देखूं खाली हिंडोला पिय बिन कौन झुलावे मोहे झूला बागन.........

अच्छाईयों के पड गए टोटे

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आज कल  चेहरों पर लगे हैं मुखौटे पता ही नहीं चलता लोग खरे हैं या खोटे अच्छाईयों के अब पड़ रहे टोटे कब कौन कहां किसके विश्वास का गला घोंटे मित्र बने शत्रु अपने बने पराए विपत्ति जब आए तो उतर गए मुखौटे कैसी हो गई सोच लोगों की ये बात हमेशा दम घोंटे बंटते घर रिश्ते मां बाप सुन सुनकर दिल उठता कांप पैसा बन गया सबका बाप इस पैसे के आगे कौन किसे पूछे आज कल हर तरह के हो गए मुखौटे घर बडे़ और लोगों के दिल हो गए छोटे **,  ***, **, ***, **, अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

बदलती हवाएं बडी बेरहम हैं....

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हवाएं अब बदल गईं हैं शीतलता भी कहीं गुम हो गई अब ये हवाएं जलाती बहुत हैं नमी आंसुओं की इनमें अब नहीं हैं पैगाम किसी का लाती नहीं है बदल दिया है इन हवाओं ने इंसानी फितरत को अब ये मरहम दिल पे लगाती नहीं है देती हैं बेरहमी से घाव अफवाहें ये फैलाती बहुत हैं खंजर सी चुभती हवाएं आज कल की सुकूं दिल को ये पहुंचाती नहीं हैं उडा देती हैं पल में सजे आशियाने रहम बेरहम खाती नहीं है खामोशी इनकी खटकती बहुत है दिल को ये धडकाती बहुत हैं                    अभिलाषा चौहान

बैठ सखी मैं पवन हिंडोला........

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बैठ सखी मैं पवन हिंडोला पिय से मिलने जाऊंगी कहां बसे है पिय मोरे प्यारे अब कैसे पता लगाऊंगी लोग कहत हैं प्रियतम मेरे घट घट में हैं वास करें पवन हिंडोला चढकर मैं तो अब पिय से मिलन रचाऊंगी विरहाग्नि अब इतनी बढ़ गई इक पल भी न अब चैन पडें कहां छुपे हो पिय मेरे प्यारे कौन रूप तुम हो धारे अब तो तज दई देह संवरिया पवन हिंडोला हूं विराजी भई अपने मैं राम की बावरिया अब वे राजी तो जग राजी                       अभिलाषा चौहान 

मैं पीता प्रेम भरा प्याला

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मैं मदमस्त हवा का झोंका मेरी अपनी कहानी है रोके से भी नहीं रूकुं मैं  हाथों में मेरे रवानी है उठता फिरता मैं नीलगगन में अपनी धुन का मैं मतवाला पीने वाले पीते होंगे हाला मैं पीता प्रेम भरा प्याला नित आगे मै ऐसे बढता जैसे  नदिया की धारा  पंख लगा के सपनों के नित उडना मैने सीख लिया आंखें मेरी सदा लक्ष्य पर सत्य से नाता जोड लिया  अभिलाषा चौहान

क्षणिकाएं...........

               घटा ---------------------------- चाहे  दुख  की चाहे   मेघ की चाहे तम की घिर के आती जरूर है                                सूरज --------------------------- चाहे सुख का चाहे  परिवर्तन का चाहे प्रकाश का निकलता जरूर है।                  वर्षा ------------------------- चाहे जल की चाहे प्रेम की चाहे करूणा की होती जरूर है।                    किरण --------------------------- चाहे उम्मीद की  चाहे रोशनी की चाहे संघर्ष की दिखाई देती जरूर है।           बीज ---------------------------- चाहे सृजन का चाहे सद्भाव का चाहे वैमनस्य का पनपता जरूर है।          परिवर्तन -------------------------- चाहे सृष्टि का चाहे जीवन का चाहे व्यवस्था का होता जरुर है।           प्रकृति --------------------------- चाहे स्वभाव की चाहे इंसान की चाहे भगवान की बदलती जरूर है  ।             संकल्प -------------------------- चाहे कर्म का चाहे धर्म का चाहे आचरण का प्रकट होता जरूर है।                               सुगंध --------------------------- चाहे पुष्प

अस्तित्व

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क्या यही संसार है? क्या यही जीवन है? झुठलाना चाहती हूं इस सत्य को पाना चाहती हूं उस छल को जो भटका देता है छोटी सी नौका को इस विस्तृत जलराशि में डूब जाती है नौका खो देती है अपना अस्तित्व......! भुला देता है संसार उस छोटी सी नौका को जिसने न जाने कितनों को किनारा दिखाया ! सब कुछ खोकर भी उस नौका ने क्या पाया? अभिलाषा चौहान

आओ मिलकर सब साथ चलें

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आओ मिलकर कुछ काम करें परिवर्तन का आगाज करें अब सोच बदलनी ही होगी बनना होगा रमता जोगी अब नेह का दीप जलायेंगे करूणा रस को बरसायेंगे चलो वनिताओं का उद्धार करें आबालवृद्ध का उपकार करें अब बैठे रहने का काम नहीं ये समय नहीं रूकने वाला ये दर्द नहीं थमने वाला अब करना है उपचार हमें अब करना दूर अंधकार हमें अब कदम से कदम मिलाना है परिवर्तन हमको लाना है बंधन बन जाएं  रूढि पैरों में बंध जाए बेडी जब राह न कोई नजर आए उठना होगा तब हमको परिवर्तन लाना होगा हमको क्यों असहाय बन बैठे हम रहे क्यों दूजे का मुंह ताकते रहे मिल जाएं गर  हम साथ सभी परिवर्तन का हो आगाज़ अभी अभिलाषा चौहान

यात्रा को यादगार बनाना है.....

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जीवन है अनवरत यात्रा हम सब हैं यात्री सबकी एक ही मंजिलहै मिलन भी है और जुदाई भी एक अमिट तन्हाई भी हैं अपने भी और पराए भी  कभी अपनाए गए  कभी ठुकराए गए फिरभी चलते जाना है हमें गीत मिलन के गाना है प्रेम से जीने वाले पल बन जाते हैं सदा अमर नफरत की बातें जीवन में टूटी हैं सदा बन करके कहर चलो मिलकर साथ ही चलते हैं एक नया इतिहास ही रचते हैं क्यों व्यर्थ  गंवाए अपना समय जब पता ही नहीं कितना है समय क्यों इतना सोच विचार करें क्यों अनचाहे डर से हम डरें जब हाथ नहीं कुछ भी अपने तो पूरे करे क्यों न सपने बैठे रहने का वक्त नहीं निकल न  जाए वक्त कहीं यात्रा पूरी होने से पहले मन की अभिलाषा पूरी करें सब साथ चलेंगे मिलकर गर  पूरा होगा अच्छे से सफर                अब साथ ही चलते जाना है  ,        यात्रा को यादगार बनाना है ।             अभिलाषा चौहान   

आंगन में फुदकती गोरैया....

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मेरे आंगन में फुदकती गोरैया बडे़ जतन से अपना नीड बनाती तिनका - तिनका चुन कर लाती बडे़ जतन से उसे सजाती नवजीवन के सृजन में तत्पर दृढसंकल्पित नन्हे-नन्हे पंखों से आसमां की ऊंचाई छूने को तत्पर उत्साहित आनंदित जोडा भावों का संसार सजाता अजनबी पंछी के आने पर विकलता का भाव गहराता ममता का अतुल्य प्रदर्शन नवजीवन का ऐसा संरक्षण               भावविह्वल मन होता जाता चुन-चुनकर दाना लाते बारी-बारी सप्रेम खिलाते पंख हुए जब नए जीव के खुला आसमां उसको दिखाते सारे बंधन तोड़ उसे स्वयं से जीवन जीना सिखाते नहीं है कोई माया मोह का बंधन बस है तो प्रेम समर्पण उड जाता नवजीव आसमां में बैठे-बैठे दोनों मुस्काते अपने हिस्से का दाय निभा के उसका दाय उसे समझा के नयी राह फिर अपनाते कितना जीवन में विस्तार वहां है बंधन का कोई नाम कहां है ऐसा मोहमुक्त हो मानव जीवन पल में मिट जाए सब संपीडन। अभिलाषा चौहान

विकास फिर रूठ जाता है...

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ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतों के पास ही बनी झुग्गियां देती विपन्नता का परिचय जीवन को जैसे तैसे जीते फटेहाल विपन्न लोग यह विषमता की खाई बढ़ रही सुरसा के मुख की तरह दिनरात बहाते जो पसीना वो और भी ज्यादा हो जाते गरीब न बच्चों की अच्छी शिक्षा न उनको अच्छा पोषण शोषण बस शोषण वस्त्र पर लगे पैबंद के सम ये झुग्गियां हर ओर दिखाई देती है एक पल में खाक होता विकास का स्वप्न स्वच्छता व डिजिटल इंडिया ठेंगा दिखाते गंदगी और कचरे के बीच असुविधाओं में पनपता जीवन अनेक कुंठाओं से ग्रस्त देता अनचाहे अपराधों को जन्म इस महानगरीय जीवन में बलवती दिखावे की प्रवृति दोहरे जीवन का बन प्रतिबिंब असमानता और आर्थिक विषमता की खाई को और बढ़ा देता ये झुग्गियां मारती तमाचा विकास के मुख पर धो देती एक पल में सारे ख्बाव मुंह चिढ़ाती उन गगनचुंबी इमारतों को सुंदर मुख पर ज्यों निकला हो कोई मुहासां जितनी तेजी से बढ़ रही इन झुग्गियों की संख्या उतनी स्पीड बुलेट ट्रेन की भी नहीं होगी उतनी ही तेजी से बढ़ रहे अपराध, टूटे स्वप्न अधूरी आकांक्षाएं लालसा अधूरी प्यास देती एक अलग ही संस्कृति को ज

घिर रहा है तम घना

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घिर रहा है तम घना हो तुम निर्भय मना आस का दीपक जला राह अपनी खुद बना चल मना बस चल मना दुःख को तू साथी बना बाधाओं के फूल चुन शूलों को गलहार बना चल मना बस चल मना करूणा दया प्रेम का जगती में तू बीज बो सत्य अहिंसा शांति का पथ तुझको अजीज हो झुकना न डरना न तू चाहें आए कितनी आंधियां आंधियों के बाद ही अमृत बरसता है घना चल मना बस चल मना हाथ में पतवार ले तू युवा कर्णधार है युग अब कर रहा परिवर्तन की पुकार है शक्ति और सामर्थ्य का अब वीर परिचय दे घना चल मना बस चल मना बदलना है वक्त को तो तोड़ दे तू रूढियां नवसृजन का बीज बोने चल मना बस चल मना                   अभिलाषा चौहान 

अजन्मी बेटी का मां के नाम खत

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मेरी प्यारी मां, ......................................................! मां मैं तो हूं बस छाया तुम्हारी तुमसे हैं आशाएं सारी मत करना मुझको निराश तू रहना मुझे छाया में तुम्हारी अभी तो मैं जन्मी भी नहीं हूं अभी तो मैं पनपी भी नहीं हूं दुनिया की निष्ठुरता सुन-सुन रहना चाहूं सदा कोख में तुम्हारी मां तुम कमजोर न पडना मेरे लिए तुम्हें दुनिया से लडना हार गई दुनिया से गर मां मारी न जाऊं कहीं कोख में तुम्हारी मां की ममता कभी नहीं बंटती चाहे उसे बेटा हो या बेटी बदल न लेना मां नजर तुम्हारी मेरी तुम पर जिम्मेदारी जब मैं दुनिया में आऊंगी नाम तेरा रोशन कर दूंगी बेटे से बढ़कर निकलूंगी फिक्र मैं तेरी हर पल करूंगी मां मैं बन तेरी परछाईं तेरे पदचिह्नों पर चलूंगी मां तू जीवन देनेवाली तुझसे सृष्टि चलती सारी मेरा ये विश्वास अटल है तेरे हाथों में मेरा कल है सुन लेना मेरी अरदास रखना सदा मुझे दिल के पास .......................................... ......... .........                    तुम्हारी अजन्मी बेटी

जाने कितने पल बीत गए ?!

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जीवन की आपा - धापी में जाने कितने पल बीत गए जब खोले पन्ने यादों के सारे के सारे रीत गए क्या करना था इस जीवन में कुछ भी सोचा न भाला मन में इक खालीपन सा आंखों के सपने बीत गए न अपने लिए ही जी पाए न मानवता के काम आए कर्मों के लेखे जोखे में कुछ भले न कर्म नजर आए न भजन किया न हरि को भजा जीवन भी जिया तो जैसे सजा बस पेट की आग बुझाने में लम्हे सारे गुजार दिए बातें करते थे बडी - बडी न बातों से कोई काम बना जब ढूंढा खुद को इस जग में तो पाया हम नाकाम रहे वो पल अब कैसे लौटाएं जो अंजाने ही बीत गए.....?

पल-पल झुलसती मानवता......

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गरीबी और बेरोजगारी देश की सबसे बड़ी बीमारी जब तलक ये देश में कायम रहेंगे तब तलक नैतिक मूल्य यूं ही जलते रहेंगे पेट खाली हो और जेबें भी खाली बड़ी-बड़ी बातें भी तब लगती हैं गाली हर सांस के लिए संघर्ष जब करना पडे बात कोई भी किसी के न तब पल्ले पडे तब उबलता है मन में आक्रोश भी तब पनपते हैं अनेक अपराध भी पेट की आग सबसे बलवती है जिसमें पल-पल मानवता झुलसती है पेट भरने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा खाली पेट किसी को क्या अच्छा लगेगा युवाओं को जब न उचित रोजगार मिलेगा खाली दिमाग में तब शैतान का वास रहेगा विकास की बातें बहुत सुनने में आई गरीबी बेरोजगारी किसी ने न मिटाई असमान विकास से क्या देश बढ़ेगा अवनति का पथ ऐसे ही खुला रहेगा बच्चों को करना पडे जहाँ मजदूरी कैसे होगी उनकी सब आस पूरी शोषण अत्याचार यूं ही बढता रहेगा समाज कैसे तब उन्नत बनेगा....??

आखिर पहाड़ भी दिल रखते हैं!!

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पहाड़ हुए अशांत कभी गोली से कभी हमले से कभी पर्यटकों के बढते हुए काफिले से कभी आतंकी गतिविधियों से घटने लगी है सुंदरता हरियाली रहित नंगे पहाड़ दरक जाते हैं अक्सर सहन नहीं कर पाते शोर अपने ऊपर अत्याचार आखिर पहाड़ भी दिल रखते हैं चुक जाती है सहनशक्ति टूट जाता है सब्र का बांध कमजोर थके पहाड़ दरक जाते हैं अक्सर तोडा जाता है इनको निर्ममता से बनाने के लिए सड़क और सुंरग प्रदूषण और कचरे से बीमार होते पहाड़ दरक जाते हैं अक्सर ये भूस्खलन नहीं दर्द है पहाड़ों का जो अचानक बह उठता है तुम कितने निष्ठुर हो ? अपना दुःख देखकर भी पहाड़ों का दर्द नहीं समझ पाते! ये शांत सुंदर बर्फीले पहाड़ बैचेन हैं अस्तित्व को लेकर इसीलिए दरक जाते हैं अक्सर ********अभिलाषा चौहान ********** *******************************

भगीरथ की भागीरथी

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शिव शीश जटा के बीच बसी थी निर्मल गंगा भगीरथ के तप से भागीरथी बन आई धरा पर गंगा हरने जन जन के संताप जागा धरती का भी भाग जब बही धरा पर गंगा बनी संस्कृति की पहचान डाली जनजीवन में जान कल कल करती बहती जाए अमृत का वह रस छलकाए धोते धोते पाप मनुज के हर पल मैली होती जाए भागीरथी का महत्व भुला के गंदे नाले उसमें गिराए सबके दुख को हरने वाली दुखिया बन कर बहती जाए निर्मल पतित पावनी गंगा आज प्रदूषित नदी कहलाए मोक्षदायिनी कलिमल हरनी देवों ने महिमा है बरनी शिव ने भी जिसे शीश पर सजाया हम ने उसका क्या हाल बनाया..? आज धरा पर बहे उपेक्षित मानव कर्मों से हुई प्रदूषित मां गंगा कहते नहीं थकते पर मां का सम्मान न करते रहे बन भारत की वो शान मिले उसको उसकी पहचान  स्वच्छ बने फिर अपनी गंगा निर्मल पावन मां गंगा मन में दृढ़ संकल्प जगाओ अब अपना कर्तव्य निभाओ गंगा को फिर निर्मल बनाओ रहे हम सबके हृदय के बीच सोहे शिव के फिर शीश निर्मल पावन मां गंगा!                अभिलाषा चौहान

चक्रव्यूह रचे जा रहे हैं......

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फिर रचे जा रहे चक्रव्यूह फिर कोई अकेला अभिमन्यु फंसकर इस चक्रव्यूह में गंवा देगा अपने प्राण हर और विराजमान हैं धृतराष्ट्र देश की दुरवस्था से अनभिज्ञ अपने स्वार्थ में लिप्त सत्ता की प्रबल चाह गंदी राजनीति हर ओर कराती महाभारत द्रोणाचार्य, भीष्म तब भी चुप थे अब भी चुप हैं कलियुग में कहां से आयेंगे कृष्ण अधर्म का नाश करने तार-तार होती द्रोपदी की लाज जिसका नहीं कोई रखवाला आज खंडित होते समाज - परिवार लोगों के मन - जीवन इस महाभारत से सत्ता के गलियारों से अधर्म और अनीति हर धर्म तक जा पहुंची है जातीयता का विष प्रचंड हो रहा है नीति न्याय समानता सदाचार बीते कल की बातें लगती हैं हर ओर हैं जयचंद हर ओर हैं मतिमंद अब तो बस चक्रव्यूह रचे जाते हैं जिसमें फंसी अभिमन्यु सी आम जनता व्यूह भेद नहीं पाती हैं बहुरूपियों की चाल समझने में देर हो जाती है अब हर ओर महाभारत है हर ओर दुःशाशन है हर किसी को चक्रव्यूह रचने की आदत है नहीं है कृष्ण यह सब देखने को धर्म की स्थापना हेतु जो हुई थी महाभारत वही धर्म बन गया है महाभारत का कारण चक्रव्यूह रचने की महारत अब हर किसी को ह

धरा की व्याकुलता

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धरती मां है सह रही है सब कुछ निशब्द नहीं चाहती वह देना संतानों को पीड़ा देती ही आई है सदा जीवन... जीने के साधन हरे - भरे वृक्ष लहलहाते खेत निर्मल नदियाँ हिमगिरी जलधि पर कब तक...? थक चुकी है वह तुम्हारी उपेक्षा से तुम्हारे व्यवहार से नष्ट कर उसकी सुंदरता खड़े किए कंक्रीट के जंगल नष्ट कर दिए हरे भरे वन जिनमें बसता था जीवन दूषित कर दी नदियाँ हिमगिरि जलधि सबकुछ गर्भ से उसके खींच लिया अमृत जल भभकने लगी है धरती सुलगने लगी क्रोध की आग बदल गया मौसम चक्र दरकने लगे पहाड़ सूख गईं नदियाँ मिटा कर प्रकृति को खुद को कहां से पाओगे? मां भी देती है दंड सुधर जाओ इसे बचाओ वृक्ष लगाओ वन बचाओ जल बचाओ अपना कल बचाओ(अभिलाषा चौहान) 

मेघ गाते आ रहे मल्हार नभ में.....

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मेघ गाते आ रहे मल्हार नभ में विहग अवली झूमती जाती गगन में बन गलहार मेघ का सत्कार करने पवन मुक्त छंद स्वागत गान करते वृक्ष भी लय ताल संग नृत्य करते मोर दादुर कोयल पपीहा राग छेडें मेघ मल्हार संग अपनी तान जोडें बरस उठी चहुंओर रसधार है अब प्रकृति भी रसरंग में डूबी हुई अब प्रिय प्रेम की बूंदो का स्पर्श पाकर अवनि ने कर लिए श्रृंगार सोलह प्रिय मिलन की घड़ी  समीप आई देख प्रिय को विरहिणी है लजाई चंचला दामिनी पल-पल बताए मेघ मल्हार अलापते आ गए हैं प्रियतमा पर प्रेमरस बरसा रहे हैं मिलन का संगीत है देखो अनूठा धरा से नवजीवन का अंकुर फूटा हर्ष का पारावार है चहुंओर अब ओढ ली अवनि ने धानी चुनर जब सृष्टि भी निखरती जा रही अब मेघ सारे कलुष को धो रहे हैं मेघ मल्हार गाते आ गए हैं छिड़ गया है राग अब क्रांति का है नहीं समय अब विश्रांति का हो गया अवनि का जीवन रसमय अब होगा मनुज का जीवन रसमयी कब ? अभिलाषा चौहान              फोटो गूगल से संगृहीत

पुरुष हूं परुष नहीं....

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मेरी यह रचना उन पुरुषों को समर्पित है जो अपने परिवार और अपने दायित्व के प्रति पूर्ण रुप से समर्पित हैं । वो भी भावनाओं से परिपूर्ण होते हैं पर अभिव्यक्त नहीं कर पाते । ************************************************************** पुरुष हूं परुष नहीं , हृदय मैं भी रखता हूँ हैं मुझमें भी संवेदना कह ना सकूं कभी मैं, अपने मन की वेदना भावनाओं की नहीं कमी, पर न कह पाऊं ना मैं कोई कवि नहीं, जो गीत गाऊं नित नया बंटा हूं मैं भी रिश्तों में, जीता हूं मैं भी किश्तों में पुत्र, पति,पिता बना, दायित्वों का भार घना, बंटता गया मैं हिस्सों में, कटता गया रिश्तों में यंत्र जैसी जिंदगी,  अनवरत चलती रही जद्दोजहद जिंदगी की, और भी बढती रही भूलता सा मैं गया, जूझता ही रह गया कह न पाया कभी,अपने मन की भावना दर्द मुझे होता है, दिल भी मेरा रोता है पर हर दर्द के लिए, शब्द कहां होता है चुप जो मैं रहता हूं, कुछ जो न कहता हूं आंक ली गई इससे मेरी कठोरता पुरुष हूं परुष नहीं, दिल तो मैं भी रखता हूं करता  मैं भी रात-दिन सबके भले की कामना हूं बडा़ ही एकाकी तुम मुझे सम्हालना । पुरुष हूं...  .....!

केवल पल ही सत्य है.....

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अक्सर लोग भूत और भविष्य की स्मृतियों और चिंताओं में डूबे रहते हैं और वर्तमान को जीना भूल जाते हैं,वे नहीं जानते या जानकर भी नहीं जानना चाहते कि जो समय अतीत बन चुका है, उसे पुनः नहीं जिया जा सकता। हां,  वह प्रेरणास्पद भी हो सकता है और दुखदायी भी । इसी प्रकार भविष्य को सुखद बनाने के सभी संभव प्रयास किए जा सकते हैं किंतु सिर्फ चिंताओ से उसे सुखद नहीं बनाया जा सकता है । इस भूत-भविष्य के द्वंद्व में वर्तमान उपेक्षित हो जाता है और वह एक पल जो सत्य है, हमारे हाथ से कब रेत के समान फिसल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता। ईश्वर ने सबके प्रस्थान का समय निश्चित कर रखा है। पता नहीं हमें कब जीवन यात्रा को छोड़कर अनंत यात्रा पर जाना पड जाए इसलिए पल के महत्व को समझो और हर पल को जियो और भरपूर जियो। यही जीवन का सत्य है ।                             अभिलाषा चौहान गूगल से संगृहीत

जीवन की परिभाषा

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जीवन कभी-कभी भार बन जाता है, जीवन कभी-कभी हार बन जाता है । प्रेम हो तो जीवन उपहार बन जाता है, घृणा हो तो जीवन धिक्कार बन जाता है। हंसी हो तो जीवन प्रवाह बन जाता है , गम तो जीवन ठहराव बन जाता है। जीत हो तो जीवन जश्न बन जाता है, हार हो तो जीवन मातम बन जाता है। मिलन हो तो जीवन मंजिल बन जाता है, वियोग हो तो जीवन साहिल बन जाता है। खुशियां मयस्सर तो जीवन सरल हो जाता है, खुशियां काफूर तो जीवन दुश्वार हो जाता है। कलह जीवन को कठिन बना देता है, सुलह से जीवन सरल बन जाता है । शांति से जीवन स्वर्ग बन जाता है, अशांति से जीवन नरक बन जाता है। उल्लास जीवन को आनंदमय बनाता है, भावों से जीवन रसपूर्ण हो जाता है । जीवन भावनाओं का सुंदर सा गुलदस्ता संघर्ष और दुख इसके हैं साथी जीवन का हर पल समरस हो जियो तो यह जीवन वरदान बन जाता है ।  भार समझने से अभिशाप बन जाता है।  । ******अभिलाषा चौहान ******

हैवानियत की हद भी हो गई पार....

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आज कल नन्हीं - नन्हीं मासूम कलियों के साथ होने वाले लोमहर्षक दुराचार से मन बड़ा उद्वेलित है। क्या हो गया है इस दुनिया को ? कहां से आ गई है इतनी विकृति कि अबोध बच्चियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। उसी पर कुछ पंक्तियां..... निर्भया हो या गुडिया या हो किसी आंगन की चिड़िया नहीं महफूज कहीं भी छिपे हुए हैवानो से इन बर्बर शैतानों से जो घात लगाए बैठे हैं जो नजर जमाए बैठे हैं इंसानों के वेश में बैठे छिपे भेड़िये मिटाने वजूद उसका जो अभी कली थी या पुष्प बन खिली थी दरिंदों की नजर में कहां उम्र उसकी खली थी! वहशियत ने मिटा दिया अस्तित्व उसका बेसुध बेहाल बेबस जिंदा लाश सी वो पड़ी बात उठी, निकल पड़ी कपडों पर आई क्यो दी इतनी छूट ये चर्चा गरमाई बोल-बोल कर सबने अपना दाय निभाया गुडिया तो बच्ची थी मन की वो कच्ची थी अनभिज्ञ थी सब बातों से न जाने कितनी गुडिया बन रही शिकार हैवानियत की हो गई हदें पार वहशियत की क्या हुआ समाज को वो चुप  क्यों है ? अब जागने का वक्त है सुप्त क्यों है? आओ बनाए समाज ऐसा जी सकें निर्भीक जिसमें हमारी बिटिया हम सबकी बिटियां !!