संदेश

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मेघदूत संदेशा लाए

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मेघदूत संदेशा लाए शीतल-शीतल छाँव-घनी। तिनके-तरुवर पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी। भीषण ताप सहे वसुधा ने पतझड़ जबसे आया था खोकर अपना रूप सलोना मन उसका मुरझाया था। फिर बसंत आया चुपके से बिगड़ी थी जो बात बनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत........................ नव कोंपल ने शीश उठाया कलियों ने घूँघट खोले मोर पपीहा कोयल बोले भ्रमित भ्रमर मद में डोले चंचल कलियाँ तितली बहती आकर्षण का केंद्र बनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत.…................ अब मेघों ने रस बरसाया अवगुंठन करती धरती पहन चुनरिया धानी-धानी खुशियाँ जीवन में भरती तड़ित चंचला शोर मचाए ज्यों मेघों से रार ठनी तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर दिखती कितनी ओस-कनी।। मेघदूत.................... अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आखिर कब तक ??

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इस ब्रह्मांड में जीवन से परिपूर्ण हरित-नीलाभ्र ओ मेरी पृथ्वी!! तुझसे ही है मेरा वजूद अपने हरितांचल में दिया दुलार तू है तो मैं हूँ ओ मेरी पृथ्वी!! मैं कृतघ्न भूल तेरे उपकार तेरी देह को करता छलनी बाँट दिया खंड-खंड बोने लगा काँटे नफ़रत विद्वेष के उजाड़ता तेरा रूप धूल-धुसरित कर छीनता तेरा जीवन हूँ नहीं अनभिज्ञ स्वार्थी हूँ मैं बड़ा अपने जीवन के लिए छीनता तुझसे तेरे अनमोल रत्न जहर घोलता मैं दूषित करता पर्यावरण सहनशीला,ममतामयी करती क्षमा अक्षम्य अपराध ओ मेरी पृथ्वी!! आखिर कब तक?? अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कोरोना की पीर शूल-सी

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पथराए से नयन देखते धूमिल सब संसार हुआ मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। टूटे दर्पण से बिखरे सब सपनों के टुकड़े-टुकड़े अजगर बैठा मार कुंडली जीवन को जकड़े-जकड़े भयाक्रांत सा मानस भूला उसने कब आनंद छुआ मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। एक अकेलापन काफी है गिरती तन-मन पे बिजली अँधियारा घिर कर आया है भोर नहीं दिखती उजली। गरल मिला है जीवन भर का अमृत तो अब स्वप्न हुआ। मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। ममता रोती करुणा सोती चाबुक से पड़ते तन पे अपनों के अवशेष देखकर वज्रपात होता मन पे कोरोना की पीर शूल सी क्रंदनमय श्रृंगार हुआ। मानव हार रहा है बाजी काल खेलता रहा जुआ। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक