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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महक रहा है कस्तूरी सा

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कोरे कागज सी ये काया इसका करले अभिनंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन काया कपट कुंडली उलझी काम क्रोध नित तड़पाए मद में अंधा होकर घूमे मन माया में भरमाए। हिय घट में नवनीत छुपा है उसका करले अब मंथन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। जीवन का उद्देश्य भुलाकर भटका जग के कानन में व्यसन अहेरी जाल बिछाता लोभ लुभाता आनन में जीव बना पिंजरे का पंछी करता रहता नित क्रंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। हीरे सा अनमोल जन्म ये अहंकार में सब भूला कालकूट का बनके आदी फिरता है फूला-फूला लोभकपट अब व्यसन रोग से, मुक्ति युक्ति का कर चिंतन। महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

शलभ शूलों पर चला है

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लगी लौ से लगन ऐसी प्रीत में जलना मिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। जल रहा है प्राण मेरा विरह का वरदान ये जल रहा है गात मेरा प्रेम का प्रतिदान ये यह मिलन तो है अधूरा चाह का है ये सिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला लगी-------------------।। है अमरता कर्म में ही धर्म कहता है सदा जग प्रकाशित जो करे सदा उर उसका जला राह की ये विषमताएँ आस भेदे झिलमिला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। लगी-------------------।। ये समर्पण पूर्ण तब हो स्वार्थ को जब त्याग दे लक्ष्य का संधान पूरा छोड़ कर क्यों भाग दें। आँख भीगी तृप्त मन है तन जला तो है जला शलभ शूलों पर चला है दोष किसका है भला। लगी-------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

और गाँव की याद आई...

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एक रोग सारी दुनिया की दिखलाता है सच्चाई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। ऐसे उसने पैर पसारे काम-धाम सब बंद हुए लोगों ने तेवर दिखलाए रिश्ते सारे मंद हुए। और गांव के कच्चे घर की हूक हृदय में लहराई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। प्रेम फला-फूला करता था गाँव गली-घर-आँगन में चिंता मुक्त रहा था जीवन मात-पिता की छाँवन में विपदा की इस कठिन घड़ी में याद गाँव की बस आई जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। प्रीत बुलाती खेतों की अब नहर हाट बगियाँ गलियाँ खपरैलों की छत के नीचे रोटी-प्याज छाछ-दलिया नंगे पैरों दौड़ पड़े सब हृदय पीर जब अधिकाई। जिन शहरों को अपना माना उनमें ही ठोकर खाई। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कदमों के निशान

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रास्ते यूँ ही नहीं बनते मुट्ठी भर लोग रचते हैं इतिहास बनकर मील का पत्थर गढ़ते नए आयाम जिंदगी को देते नई परिभाषा इतिहास के पन्नों में या वक्त की रेत पर छोड़ देते ये कदमों के निशां हमारी संस्कृति या सभ्यता उसी का है परिणाम ये पदचिह्न है सनातन शाश्वत सत्य जीवन यात्रा का हम सभी राही हैं रह जाएंगे बाकी हमारे कदमों के निशान चलते रहना ही जीवन है रह जाता है जो पीछे या छूट जाता है जो बनता है अतीत आने वाली पीढ़ी को सौंपता है विरासत ये पदचिह्न धरोहर हैं जो राह दिखाते हैं मंजिल तक पहुंचाते हैं। मार्गदर्शक बनकर जोड़ते हैं दो युगों को। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

अणु कोरोना हार चलेगा

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हाहाकार मचा है जग में कैसे बेड़ा पार लगेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा। लाशों के अंबार लगे हैं बिछड़ रहे अपनों से अपने साँसों की टूटी डोरी में टूट रहें हैं सपने कितने बंदी जीवन भय का घेरा लेकिन सुख का सूर्य उगेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। काल कठोर भयंकर भारी निर्धन को अब भूख निगलती रोग नचाता नाच अनोखा उसके आगे किसकी चलती हार गया वो मानव कैसा साहस संयम साथ चलेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। थमती रुकती जीवन धारा फिर से हो मदमस्त बहेगी अंधकार की काली छाया ज्यादा दिन तक नहीं रहेगी प्रचण्ड रूप देख अणिमा का अणु कोरोना हार चलेगा मन में आशा आस जगाए जीवन का ये पुष्प खिलेगा।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भरते ऊँची उड़ान

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कंटक पथ पर चलने वाले भरते ऊँची उड़ान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान पाषाणों के बीच दबा ज्यों बीज बना दुख हरता शौर्य बड़े साहस के कारज बीज एक लघु करता फोड़ धरा को निकले बाहर ये सृष्टि का वरदान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। अपने श्रम से लिखते रहते नित नित नई कहानी नाम अमर कर जाते जग में वीर बड़े बलिदानी मुट्ठी में संसार बसाते रखते अपनी आन राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। सोए हिय में आग लगादें पत्थर करदें पानी जग परिवर्तन की वे लिखते नित नित नई कहानी बीज रोपते जन के मन में करते नित संधान राह रोकती खड़ी आँधियाँ वे छूते आसमान।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

उसी क्षितिज के पास

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क्षितिज पर छाई लालिमा लाई है संदेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश।। मन में हो विश्वास अगर मुट्ठी में आकाश साहस संकल्प साथ हो पूरी होगी आस। जीवन के रणक्षेत्र में बदलो अपना वेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज---------------।। देख क्षितिज पर सूर्य-चंद्र करते हैं बसेरा सुख-दुख जीवन में आकर बदले भाग्य तेरा परिवर्तन का चक्र चले बदले है परिवेश समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज------------------।। रजनी तम को भेद रही तारा रूपी आस आए ऊषा  मुस्काती उसी क्षितिज के पास दोनों आकर मिलती हैं रखती कब है द्वेष समय रहा कहाँ एकसा करो न किंचित क्लेश क्षितिज---------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

विडंबना

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पाषाणों से बन बैठे हैं जीवन के रखवाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। छिनी हाथ से रोजी-रोटी पास नहीं है कौड़ी खत्म हुई वो पूँजी भी जो श्रम से थी जोड़ी भूख डसे नागिन सी बनकर जीने के हैं लाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले शहरों ने सुख छीन लिया है गाँव याद है आया कच्चे घर की महक सलोनी उसने पास बुलाया मीलों की यह दूरी अखरे जाते जाने वाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। पास नहीं है दाना-पानी आँखों में वीरानी बच्चे व्याकुल बेसुध होते पीड़ा किसने जानी कैसी विपदा खड़ी सामने छिने सारे उजाले भटक रहा जीवन सड़कों पर पग में पड़ते छाले। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

कटी प्याज सी खुशबू यादें

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यादों की वो कील पुरानी ठुकती है अंतस में जाकर लुटी धरोहर बड़ी सुहानी धनी हुए थे जिसको पाकर नियति नटी ने नाच नचाया कठपुतली से बने खिलौने काल प्रभंजन बनकर आया टूट गए सब सपने सलौने हाथ हमारे रीते-रीते काम नहीं आए करुणाकर लुटी---------------------।। हृदय मरुस्थल पसरा ऐसे जैसे उजड़ा कोई कानन कोई छाया मिली न ऐसी जिससे फिर शीतल होता मन आँखों में छाई वीरानी नहीं दिखे फिर से कुसुमाकर लुटी----------------------।। नयन बदरिया जमकर बरसे बूँद-बूँद को तरसे सावन तटबंधों को तोड़ चुका है भावों का ये सागर पावन कटी प्याज सी खुशबू यादें ठहर गई पलकों में आकर लुटी---------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

कोरोना का कहर

सवैया छंद(आठ भगण)         ( १) देखत देखत बीत रहे दिन,चैन नहीं मिलता मन को अब। रोग फँसा जग जीवन सोचत,काल कराल पता जकड़े कब। हाथ मले सब देखत बाहर,छूट मिले कब काम करें तब। पेट भरें तब चैन पडें तन, दौलत भी कुछ पास रहे जब।         (२) पैदल-पैदल भाग रहे सब,गाँव मिले तब चैन पड़े अब। देश विदेश लगे सब देखत,पीर नहीं समझे जन की जब। भूख चली हरने सब संकट,भाग बुरे निज पीर कहे कब। नाग समान डसे अब लोगन,रोग बुरा जन जीवन पे अब। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक