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मानव जनित प्रदूषण

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यह तपती धरा पर्यावरणीय असंतुलन का भोग रही है दंश। मानव ने किया प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन। उजाड़ दिए हरे-भरे अरण्य खड़े कर दिए कंक्रीट के जंगल अनियोजित औद्योगिकीकरण बढ़ा रहा प्रदूषण जल-थल-वायु हुए प्रदूषित। जहरीला धुआं उगलते कल-कारखाने वाहन बढ़ाते वायु-प्रदूषण। गंदे नालों से दूषित नदियां और सागर बदल गया ऋतुचक्र। आसमां से बरसती आग पिघल रहें हैं हिमखण्ड। प्लास्टिक का बढ़ता प्रयोग धरती का घोंट रहा दम बंजर होती धरती बढ़ रहा असंतुलन। वैज्ञानिक संसाधनों का अनुचित प्रयोग प्रदूषण का बना वाहक। पड़ रहा असर स्वास्थ्य पर धरा के जीवन पर छाया है घोर संकट। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

और कितना होगा बंटवारा ??

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बंटवारा हुआ सरहदों का, दोस्त दुश्मन बनते गए। मजहबों के नाम पर , हम कई हिस्सों में बंटते गए। जातियों के नाम पर, खींचते गए दीवार! प्यार को हम भूल गए, नफरतों के बीज बोते चले गए। सूखते गए संवेदना स्त्रोत , हम पत्थर बनते चले गए। बंटवारे से जब जी न भरा हम उसे महत्व देते चले गए। पहले बंटे मोहल्ले , फिर बंटे खेत-खलिहान। बात आ पहुंची फिर घरों तक हम लकीर खींचते चले गए। बंट गए घर के दरों-दीवार, दिलों में लकीरें खींचते चले गए। बंटे सारे रिश्ते, बढ़ी दुश्मनी, मां-बाप को भी हम बांटते चले गए। बढ़ने लगा फर्क, स्वार्थ भी बढ़ा, हम स्वार्थ में अंधे होते चले गए अमीर-गरीब के बीच का फर्क भी बढ़ा , गरीब को अमीर ठोकरें मारते चले गए। बंटवारा दिमाग पर ऐसा कुछ चढ़ा, कि खुद के अस्तित्व को मिटाते चले गए।

कैसे तेरे खेल विधाता

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 तेरी लीला तू ही जाने, हम चाहे माने न माने। तूने ये संसार बनाया, हमने इस पर हक जमाया। भूल गए सब बातें असली, कि हम तो हैं बस कठपुतली। जैसे चाहे तू हमें नचाए, फिर भी आंखें खुल न पाए। सोचते कुछ और होता कुछ है, भाग्य लिखे पर किसका बस है। हाथ मलें और हम पछताएं, विधि का लिखा समझ न पाएं। कैसे तेरे खेल विधाता, इंसान कहां कुछ समझ है पाता। कहीं झोली में दुख ही दुख है, कहीं समय का बदला रुख है। कहीं तू छप्पर फाड़ के देता, कहीं कंगाली में आटा गीला होता। बन के तेरे हाथों की कठपुतली, मानव फिर भी भूला रहता। कैसे तेरे खेल विधाता, भूल भाग्य पर मानव इतराता। नजर जो तूने अपनी फेरी, बर्बादी में फिर नहीं है देरी। तेरी लीला तू ही जाने, मुझको कुछ भी समझ न आया। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

खुशियों का गलीचा

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गलीचा बिछा है आज। पड़ने वाले हैं कदम किसी खास के। खुल गए हैं द्वार वर्षों की आस के। खुशियां छलकती हैं बजती है शहनाई। सजे तोरणद्वार दीपमाला झिलमिलाई। बेटी के विवाह की शुभ घड़ी है, वर्षों की आस दुल्हन बनी है। सपनों और अरमानों का सजा है सुन्दर गलीचा। बेटी के सुखद जीवन की आस सजी है। भावनाओं की लहरें मचल उठीं हैं। माता-पिता देखो, फूले नहीं समाते। वर के रूप में राम जी आते हैं। पलकों का देखो, बिछा दिया है गलीचा। प्रेम से हरपल को है सींचा। बेटी खुश रहे बस कामना यही है। खुशियों की आज बरसात हो रही है। अतिथियों की मान-मनुहार हो रही है। भावनाओं और खुशियों का बिछा है गलीचा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अनमोल गलीचा

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वो गलीचा जिसे देख यादों की बारात चली आई। छूते ही जिसे उस मां की याद आई। जिसने बड़े प्रेम से बनाया था गलीचा। जिसके ताने-बाने में उसका प्रेम बसा था। आस बंधी थी, उमंग बुनी थी। नरम उंगलियों का एहसास बसा था। कितने जतन से उसने बनाया गलीचा। सपनों का उसमें चित्र सजा था। बड़ा ही कीमती है वो गलीचा। मां के स्पर्श गंध बसी थी। चुन-चुन कर उसने भाव भरे थे। जब भी छुओ स्नेह निर्झर बहे थे। हाथ से छुआ उसका स्पर्श याद आया। मन में भावनाओं का सागर लहराया। बड़ा ही अनमोल है मेरे लिए ये गलीचा। मां की ममता का है जो नतीजा। देखा-भाला उसे संभाला। फिर बड़े जतन से रख दिया गलीचा। बड़ा ही अनमोल है मेरे लिए ये गलीचा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

छाया से घिरा जीवन

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अनंत छायाओं घिरा ये जीवन कितने झेलता उतार-चढ़ाव कभी दुख की छाया लगाती सुख के सूर्य को लगाती ग्रहण कभी आशंकाओं की बदली आशाओं की किरण को करती विलुप्त ‌कभी अनिष्ट,अनहोनी बनकर छाया आनंद के चंद्र को लगाते ग्रहण। सुख-दुख की छाया में पलता ये जीवन है चक्रव्यूह जिसमें हर कोई है अभिमन्यु भेदना चाहता है इसे हटाने को दुख सर्वदा के लिए। पर ये छायाएं करती अनवरत पीछा, जिनसे घिरा जीवन जीवन और मृत्यु के बीच सदा लड़ता है अपनी जंग कभी हारता कभी जीतता कभी पड़ता ग्रहों के फेर में करता मुक्ति के उपाय तमाम। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दिवास्वप्न बनती छाया

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घर के बुजुर्ग, जैसे हों वृक्ष घने। जिनकी छाया में, पनपते संस्कार, परिवार,रिश्ते , स्नेह-कमल, प्रेम-पुष्प, आज जैसे बन गए, हों स्वप्न !! वृक्षों की तरह ही , उजड़ गए उनके जीवन ! अब सिमट गए हैं, घर के बुजुर्ग.., घर के किसी कमरे में; या वृद्धाश्रमों में; जिनकी छत्र-छाया... में पलती थी बेफिक्री; हंसते-खिलखिलाते थे रिश्ते!! अब वही छत्र छाया, लगती है बंधन ? विलुप्त होते संस्कार, न वृक्षों से प्रेम, न छाया की चिंता, बंद एसी कमरों में, या गाड़ियों में! पीछे छूटते संस्कार; धूमिल होती संस्कृति; बनती जा रही इतिहास! आज की भौतिक संस्कृति में; स्वछंदता है सर्वोपरि! छाया को भी ढूंढना पड़ता , आश्रय छाया का!! जो हो रही लुप्त, अब है दिवा-स्वप्न, वह शीतल ठंडी छाया। जिसे छीनता जा रहा है, स्वयं मानव अपने ही सिर से। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मातृदिवस पर मेरी भावनाएं

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'मां' जिसके बिना अस्तित्व की  कल्पना नहीं की जा सकती।जो कितने कष्ट सहकर शिशु को जन्म देती है।पीड़ा भोगती है किन्तु यह पीड़ा उसे मातृसुख देती है, इसलिए वह इस पीड़ा में भी मुस्कराती है।अपनी संतान का लालन-पालन करने के लिए रात-दिन एक कर देती है।उसकी एक ही ख्वाहिश होती है, कि उसकी संतान को कोई कष्ट न हो,वह एक समर्थ इंसान बने। वर्षों की तपस्या पूर्ण होती है,संतान समर्थ बनती है,किंतु मां के त्याग का मूल्य भूल जाती है। मैं नहीं कहती कि सारी संतानें ऐसी होती है,पर फिर भी ऐसा आस-पास देखने में आता है कि वही मां उनके लिए बंधन और बोझ प्रतीत होती है।जिसने अपना सुख न देखा,वह सदा अपने दुख में अकेली होती है।सबकी अपनी जिम्मेदारियां और मजबूरियां होती हैं,आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में समय का अभाव भी होता है, लेकिन इसका खामियाजा मां को ही भुगतना पड़ता है,जिसने अपना सुख-दुख नहीं देखा,जो बुढ़ापे में भी बस अपनी संतान के सुख की कामना करती है,वही दो मीठे बोल सुनने को तरसती है,आश्चर्य होता है मुझे ऐसी संतानों पर ,जिनके लिए अपनी मजबूरियां मां की तकलीफ़ से बड़ी होती हैं। जो मां क

जब मुस्काता है गुलमोहर

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गर्मियों के तपते दिन , लाल फूलों से लदा गुलमोहर। हर लेता है मन का संताप, चटकती बिखरी तेज धूप में, खिलखिला उठता है मन। देख उसे लगता है ऐसे, जैसे किशोरी पर आया यौवन। या ग्रीष्म में पथिक को, जैसे मिल जाता है संजीवन। तन-मन हो उठे प्रफुल्लित, मुस्काता है जब गुलमोहर। हरे-भरे वृक्षों पर खिल उठते, सुर्ख लाल रंग के सुमन। उजड़ी प्रकृति की सुंदरता, खिल उठती पाकर जीवन। केवल वृक्ष नहीं हो तुम, इस सृष्टि का हो जीवनधन। ग्रीष्म तपे और तुम लहलहाए, प्यार तुम्हारा खिलता जाए। बेनूरी ही इस सृष्टि में, नूर तुम्हारा निखर कर आए। नयन नहीं हटते हैं तुमसे, नयनों को मिलता आलंबन। आग बरसती जब अम्बर से, तुम भावों का करते उद्दीपन। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जड़ जीवन

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ठहर जाता है जहां जीवन, थम जाती है सारी उम्मीदें। लुटती नजर आती खुशियां, टूटती उम्मीदें बिखरते सपने। अपनों को खोकर रोते अपने, अस्पतालों का ये जड़ जीवन। संवेदनाओं का यहां अकाल पड़ा, हरकोई यहां पेशेंट बनके पड़ा। टूटती सांसों से जुड़े जो जीवन, पत्थरों पर कहां कोई असर पड़ा। लगने लगे हैं यहां भी अब मेले, भीड़ के बीच हैं सब अकेले। गुजर जाता जब कोई अपना, पत्थरों से कोई झरना बहे न, जड़वत जिंदगी अस्पतालों की। संवेदनाओं ने हिम्मत हारी, एक अस्तित्व पेशेंट बन के पड़ा। गया जहां से पेशेंट बन के गया, निराशा और विपत्ति की सौगात मिली, किसी की मौत से यहां व्यवस्था न हिली। जड़ता से घिरा होता यहां का जीवन, भाग्यशाली को मिलता यहां संजीवन। यहां हर रोज जंग लड़ी जाती है, जिंदगी फिर भी हार जाती है। मरती संवेदनाओं में कौन किसी का यहां, हर कोई है बस अकेला यहां। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

शब्द ही सत्य है

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    ****************     शब्द मय है सारा संसार,     शब्द ही काव्य अर्थ विस्तार।     शब्द ही जगती का श्रृंगार,     शब्द से जीवन है साकार।     शब्द से अर्थ नहीं है विलग,     शब्द से सुंदर भाव सजग ।     शब्द का जैसा करो प्रयोग,     वैसा ही होता है उपयोग ।     शब्द कर देते हैं विस्फोट,     कभी लगती है गहरी चोट।     नहीं शब्दों में कोई खोट,     शब्द लेकर भावों की ओट।     दिखा देते हैं अपना प्रभाव,     खेल जाते हैं अपना दांव।     शब्दों से हो जाते हैं युद्ध,     टूटते दिल घर परिवार संबंध।     शब्द ही जोडे़ दिल के तार,     बहती सप्त स्वरों की रसधार।     शब्द की शक्ति बड़ी अनंत,     शब्द से सृष्टि है जीवंत।     कभी बन कर लगते गोली,     कभी लगते कोयल की बोली।     कभी बन जाते हैं नासूर,     कभी बन जाते हैं अति क्रूर ।     शब्द की महिमा अपरंपार ,     शब्द ही जगती का आधार ।     शब्द का विस्तृत है संसार,      शब्द मय है सारा संसार।      अभिलाषा चौहान      स्वरचित        

जननायक की निष्ठा

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धर्मनिष्ठ और कर्म निष्ठ, निष्ठा ही जिनकी पूंजी हो। कटंक पथ पर चलते जाते, बाधाओं से कहां वे घबराते। ऐसे निष्ठावान मनुष्य, सच्चे नायक हैं कहलाते। मानवता जिनका धर्म सदा, परसेवा जिनका कर्म सदा। बनकर जनता के नायक, आदर्श नया रच जाते हैं। सत्य की ज्योति जलाएं जो, करूणा जिनकी बस पूंजी हो। बनकर सेवक वे जनता के, इतिहास नया रच जाते हैं। अहिंसा का पथ चुनते हैं जो, सदाचार का जो करते पालन। जग रोशन जिनकी निष्ठा से, वे जननायक कहलाते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सूना जीवन

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खाली-खाली मन का कोना, ढूंढे कोई खोया खिलौना। पलकें बिछाए बैठे बिछौना, कब आएगा साथी सलोना। जीवन में कोई अपना हो न, जीवन लगता बड़ा ही सूना। दिल भी सूना ,मन भी सूना, खाली-खाली मन का कोना। जीवन लगता मरू के जैसे, प्यास बुझेगी इसकी कैसे। दूर-दूर तक दिखे न कोई, जल की बूंद मिलेगी कैसे। तरस-तरस के मन रह जाए, बिन बरसे बादल उड़ जाए। झोली मेरी रह जाए खाली , कैसे बहारें जीवन में आए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

निष्ठा वीर सपूतों की

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मातृभूमि के वीर सपूत, थी निष्ठा उसकी सेवा की। बांध कफ़न वे निकल पड़े, पीछे मुड़कर फिर देखा नहीं। खायी थी कसम मरमिटने की, मुखमंडल पर था तेज बड़ा। भुजाओं में थी शक्ति बड़ी, शत्रु का दिल भी धड़क उठा। मृत्यु उनकी थी सहचरी, निष्ठा में थी न कोई कमी। मृत्यु को भी थे जीत चले, पीठ कभी भी दिखाई नहीं। हंसकर फांसी पर झूले, थे वतन के वो परवाने। धधक रही थी आजादी की, शमा के थे वो बस दीवाने। मां-बाप वतन ही था उनका, आंखों में था बस सपना एक। लहराए तिरंगा अपना फिर, सबका था लक्ष्य यही बस नेक। पूरी निष्ठा और समर्पण से आजादी की लड़ी लड़ाई थी वह शुभ-दिन जीवन में आया कसमें जिसकी उन्होंंने खाई थी अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आईना वक्त का

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वक्त की आंधी कुछ ऐसी चली, मंजिलें पास थीं पर पा न सकी। मिट गए उसमें तेरे कदमों के निशान, वक्त के आगे भला किसकी चली। रह गई देखती मैं किस्मत के खेल, जाने कैसे होगा मंजिल से मेल। टूट-टूट कर मैं बिखरती गई, जिंदगी बनती गई जैसे कोई जेल। दोराहे पर आके रूकी जिंदगी है मेरी, हरपल कमी खलती है मुझे तेरी। ढूंढती नजरें सदा तेरे कदमों के निशान, जिनके मिलने में अब हो चुकी देरी। सपनों के खंडहर में खड़ी होके, क्या मिला है मुझे भला तुझे खोके। आज याद आती हैं वे बीती बातें, याद आते हैं जिंदगी के सब धोखे। अपने होकर भी न बने जो अपने, उनको लेकर संजोए मैंने सपने। वक्त आईना बन कर सामने आया, तब मुखौटे लगे उनके उतरने। अपनों की भीड़ में थी मैं अकेली, बूझती ताउम्र रही जिंदगी की पहेली। जितना सुलझाया उतनी ही उलझी, जिंदगी न बन‌ सकी कभी मेरी सहेली। अभिलाषा चौहान स्वरचित