आईना वक्त का


वक्त की आंधी कुछ ऐसी चली,
मंजिलें पास थीं पर पा न सकी।
मिट गए उसमें तेरे कदमों के निशान,
वक्त के आगे भला किसकी चली।

रह गई देखती मैं किस्मत के खेल,
जाने कैसे होगा मंजिल से मेल।
टूट-टूट कर मैं बिखरती गई,
जिंदगी बनती गई जैसे कोई जेल।

दोराहे पर आके रूकी जिंदगी है मेरी,
हरपल कमी खलती है मुझे तेरी।
ढूंढती नजरें सदा तेरे कदमों के निशान,
जिनके मिलने में अब हो चुकी देरी।

सपनों के खंडहर में खड़ी होके,
क्या मिला है मुझे भला तुझे खोके।
आज याद आती हैं वे बीती बातें,
याद आते हैं जिंदगी के सब धोखे।

अपने होकर भी न बने जो अपने,
उनको लेकर संजोए मैंने सपने।
वक्त आईना बन कर सामने आया,
तब मुखौटे लगे उनके उतरने।

अपनों की भीड़ में थी मैं अकेली,
बूझती ताउम्र रही जिंदगी की पहेली।
जितना सुलझाया उतनी ही उलझी,
जिंदगी न बन‌ सकी कभी मेरी सहेली।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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