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मई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दीवारें......?

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  ये दीवारें जो   बोलती नहीं कुछ... !   सुनती हैं सब....!   सुना है कि मैंने   दीवारों के भी कान होते हैं !!   क्या वास्तव में ,   ये सच है  !   या कि यूं ही,   दीवारों को बदनाम किया जाता है।   ये दीवारें.....,   जो देखती हैं रंजो-गम,   तकरार, फसाद, खुशियां,   प्यार, एतबार' औ'मातम भी,   और भी न जाने क्या - क्या ?    देती नहीं पर कभी प्रतिक्रिया ...    खड़ी रहती हैं ये    मूक दर्शक की भांति!    बनती इतिहास की साक्षी    फिर भी हैं बदनाम    कि दीवारों के भी कान होते हैं ।    पर क्या वे दीवारें नहीं दिखती ?    जो खडी की हमने    तुम्हारे - मेरे दरम्यान    बंट गई है मानवता,    जिनके कारण    जाति-धर्म, ऊंच-नीच    अपने-पराए, अपने - अपनों के बीच     बंट गए घर, रिश्ते, मां-बाप.......?     और न जाने क्या-क्या?     ये दीवारें जो दिखती नहीं....!     पर कर देती हैं अपना काम,     आहिस्ते से........ ।     खींच देती हैं लक्ष्मण रेखा,     आ जाता है अहम् , छा जाता है भ्रम!     हम बंट जाते हैं मैं-तुम में  ?     कुछ नहीं दिखता     सिवा स्वसुख के.. .... ।     इ

**"व्यथा की कथा" ***

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बेटी बनकर पीड़ा पाई, चिंता बन आंखों में छाई । जन्म हुआ तो चिंता आई, बोझा बन हृदय पर छाई।     मां-बाप को मिलता है सुख, बेटी की करके विदाई। बेटी को क्यों अपना माने,      बेटी सदा ही रही पराई।                                               वधू बन ससुराल में आई,                   अजनबियों के बीच पराई।                   कहां खिली'औ'कहां पली,                  किस्मत देखो कहां ले आई।                   मात - पिता बहना न भाई,                   साथ सिर्फ भाग्य का पाई।                 सास-ननद की चढती भृकुटी,                               ससुर गिने क्या नकदी लाई।                   मनचाहा दहेज न लाई,               फिर क्यों दुल्हन पिय मन भाई?  जन्म - जन्म का नाता जोड़ा,         जिसने चाहा उसने दिल तोड़ा।   तिनका-तिनका अरमानों का,  तूने सबके लिए छोड़ा।    सबके लिए जीने वाली,                             अपने लिए जी न पाई।    नारी ! तू सृष्टि की जननी,   झोली में पीड़ा भर लाई!                पुत्रवती युवती बडभागी,                पुत्र न हो तो बने अभागी।               

"नारी की कहानी "

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है करूण कहानी नारी की झुलसाती हैअग्नि तन को             उस पर होते अत्याचारों की,               यह करुण कहानी नारी की। नारी ममत्व की गरिमा थी,         इस सृष्टि की है वह जननी,                 देखो पुरुषों की करतूतें               नारी का किया है सीना  छलनी।  बन गई भोग-विलास का साधन ,       रह गई मांस-पिण्ड का टुकड़ा ,                    न अब नारी श्रद्धा है                    न है अब वह मां की गरिमा।   बनी मेनका, बनी उर्वशी,           बन कर रह गई पुरुषों की तृष्णा,                   यह करुण कहानी नारी की,                   उस पर होते अत्याचारों की।  नर पर नारी सदा से भारी,           पर नारी किस्मत की मारी              समझ न पाई खुद को नारी,                  इसीलिए वह बनी बेचारी। वधू बेटी बहिना और भाभी,         इन शब्दों की खो गई गरिमा।               नारी खुद को क्या भूली,                  नारी की तो खो गई महिमा । अबला नारी केवल रह गई          पुरुषों के मन की बन तृष्णा ।            दुर्गा, काली, लक्ष्मी की गरिमा,              रह गई केवल इतिहासों में ।

जीवन दर्शन "भारतीय संस्कृति और परिवार"

भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। समय के साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया और एकल परिवारों का जन्म हुआ। इस परिवर्तन के साथ ही जीवन शैली में भी बदलाव आया और मूल्यों का पतन प्रारंभ हुआ। जहां कई पीढियां एक साथ मिलकर रहती थीं, वहां माता-पिता का साथ रहना भी मुश्किल माना जाने लगा। मेरा-तेरा,अपना-पराया, धन-संपत्ति की लिप्सा, बंधनों से मुक्ति, स्वार्थ और भौतिक चकाचौंध ने व्यक्ति की सोच को संकीर्ण बना दिया। परिणाम स्वरूप रिश्ते मरने लगे , प्रेम की जगह स्वार्थ ने ले ली। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति इतनी हावी होने लगी कि स्वसुख की लालसा में पति-पत्नी का संबंध भी भेंट चढ़ने लगा , जिसका सबसे बड़ा खामियाजा उनकी संतानों को भुगतना पड़ा है जो संतानें पहले परिवार के बीच में प्रेम , त्याग, समर्पण, व सदाचार का पाठ पढती थीं, वे स्वार्थ , एकाधिकार , वर्चस्व का पाठ पढने लगी ।यही कारण है कि समाज में नैतिक मूल्यों का पतन दिनोंदिन बढ़ रहा है। सर्वत्र उच्छृंखलता दिखाई दे रही है। आज भी ऐसे परिवार है समाज में, जो मिसाल बनें हुएहैं जहां अपनापन है वहाँ अलग रहकर भी व्यक्ति अलग नहीं होता और जहां अपनापन नहीं होता वहां

कविताएँ - - 'मंजर' - - -

बड़ा भयावह बड़ा दर्दनाक होता है, वह मंजर.... जब होता है कोई अपना, बहुत अपना.. मानो दिल ही.... मृत्यु शय्या पर ! देखना उसे, तड़पते हुए, पल-पल, तिल-तिल.. क्षण-क्षण, जाते हुए मृत्यु-मुख में.... बड़ा भयावह होता है वह मंजर......! बहुत असहाय, बहुत छोटे.. हो जाते हैं हम रह जाते हैं हाथ बांधे... टूट जाता है भ्रम, कि सब कुछ है हम... कुछ भी तो नहीं? किसी में  भी नहीं .. सुविधाएं वह भी तो काम नहीं आती? तब कितनी तड़प, कितना दर्द, कितनी बैचेनी, बेबसी...... उमड़ पडती है ! रह जाते हैं सिर पटक, जब कोई अपना, बहुत अपना होता है मृत्यु- शय्या पर, तब दिल ही टूट जाता है, या कि दिल का टुकड़ा... कहीं खो जाता है, जोडती हूँ.... पर दिल आकार नहीं लेता, वह टुकड़ा , जो खो गया कहीं! वो जो था बहुत अपना जो बन गया है सपना, जो सच था वह यही था कि मंजर बहुत भयावह था.... छोड़ गया अनुत्तरित प्रश्न जिसमें जूझते रहेंगे ताउम्र ... रह गई अभिलाषा.... तन्हा बेबस, अकेले लडते अपने गम से ! ढूंढते प्रश्नो के उत्तर ..... । प्रिय भाई तुम्हे समर्पित 🙏🙏🙏🙏🙏🤔🤔

कविताएँ *** मेरा जीवन ****।

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अपने सुख को औरों के, सुख मे जलते देखा।   फिर भी मन में है, तृप्ति की रेखा।। मेरा दुख मुझे प्रतिपल आभास कराता है।  संसार के सत्स्वरूप का परिचय कराता है।। पुष्प  तो चुनते हैं सभी जीवन के लिए।   लेकिन साज मैंने  जिन्दगी को शूलों के दिए  । शूलों ने क्षत- विक्षत कर दिया मुझे।   मेरे क्षत संसार की पीड़ा दिखाते  हैं मुझे ।। इन क्षतों ने मेरे जीवन को,   इक स्वर्णिम  स्वप्न दिखाया है। खुद को खोकर पग - पग पर ,   अपनी आत्मा को प्रबल बनाया है। । 🙏🙏🙏🙏🙏अभिलाषा🙏🙏🙏🙏🙏

.... बंजर जमीं.....?

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 रिश्तों की जमीं अब बंजर हो गई है, नहीं उगती वहां कोई फसल नहीं खिलते वहां अब फूल 🌸 हर तरफ हैं बस कांटे ही कांटे खत्म हो गई है उर्वरता ..... नहीं बचा उसमें जीवन, नहीं फूटता अब कोई अंकुर .... प्यार का*****सद् भाव का अपनत्व का ****त्याग का, अब तो बस हर तरफ हैं कांटे बड़ा सम्हाल कर चलना 🚶 पडता है कहीं कोई कांटा न चुभ जाए कहीं, बड़ा दर्द होता है, जब चुभता है कोई कांटा लगता है दिल पर एक तमाचा, क्यों ऐसा हुआ क्यों इतने कांटे है ? जो दिखते नहीं चुभते बहुत है ं स्वार्थ के ... अविश्वास के ... धोखे के.... वैमनस्य के .... क्यों मर गई धरती की वह गंध क्यों हो गई धरती बंजर क्यों मर गए हैं रिश्ते क्यों फूल अब नहीं खिलते ?।? क्या पता है किसी को..... बता दो मुझे भी.... है मेरी अभिलाषा .... बता दे कोई ...... 🤔🤔🤔🤔🤔

कविताएँ - - बंद दरवाजे - -

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आज समाज की सोच संकीर्ण हो गई है। सब जगह भेदभाव दिखाई देता है। मनभेद और मतभेद बढ़ गए है,  जो अब घरों और दिलों तक जा पहुंचे हैं, मेरी यह कविता इसी के संदर्भ में एक छोटा सा प्रयास है  । बंद हो गए खुले दरवाजे ......  जाति के धर्म के प्यार के समर्पण के सहिष्णुता के त्याग के मैंने कोशिश की , खोलने की इन दरवाजों को.. पर शायद मुझमें ताकत नहीं थी .. या फिर मेरी कोशिशों में कमी थी... या फिर दरवाजे बहुत कसकर बंद हुए थे। शायद कभी खुल जाए.. बंद दरवाजे नई हवा आने लगे , मिट जाए सारी दुर्गंध उड़ जाए सारी धूल, नफरत की वैमनस्य की स्वार्थ की संकीर्णता की बस यही है अभिलाषा.... कि खुल जाए.. बस एक बार फिर से..... यह दरवाजा जो हमने बंद किया है।।।। 🙏🙏🙏

पहले घर कच्चे थे.....

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पहले घर कच्चे थे, मन सच्चे थे, सुन लेते थे मन की आवाज, खुले रहते थे सदा खिडकियां 'औ' दरवाजे नहीं था कोई ताला न कोई चुराने वाला क्योंकि सब मन के धनी थे , मन से धनी थे...... अब तो घर पक्के हैं मन भी पक्के हैं बंद हैं उनकी खिडकियां 'औ' दरवाजे नहीं सुनाई देती है कोई आवाज़ बढ़ गए हैं फासले..... लग हैं ताले घरों पर दिलों पर , लगी रहती है चिंता कहीं कोई न चुराले .. तिजोरियों में रखा धन, नहीं कोई कीमत अब जीवन-धन की रिश्तो की बेबसी'औ' खामोशी की अब पक्के हैं घर अब पक्के हैं मन अब सब धन से धनी हैं, कोई न मन से धनी है, नही पहुंचती वहां कोई आवाज..... अपनों की, अब घरों में भी बन गए हैं घर अब मनों में भी बन गए हैं घर लग गए है ताले नहीं पहुंचती कोई आवाज बेबसी की पीड़ा की दुख की अकेलेपन की इंसानियत की..... 🙄🤔😞 ---------—--*अभिलाषा*----—--- पहले घर कच्चे थे  पर मन सच्चे थे

सुख और दुःख

अक्सर मनुष्य का जीवन  सुख और दुख के चक्रव्यूह में फंसा रहता है किन्तु वास्तव में सुख और दुख मानव मन की अवधारणाएं हैं, आज हर व्यक्ति को दुखी देखा जा सकता है, क्या वास्तव में हम जानते हैं कि दुखी कब होना चाहिए, नहीं हम नहीं जानते कि वास्तविक दुख क्या है। हमने रोजमर्रा की बातों को अपने अनुरुप घटित न होने पर दुखी होने का जो स्वभाव बना लिया है, वही हमारे दुख का वास्तविक कारण है जब भी कोई कार्य हमारे मन के अनुरूप नहीं होता तब हम दुखी हो जाते हैं और इस दुख में जो सुख वर्तमान में हमारे जीवन में विद्यमान हैं, उसका भी लाभ नहीं उठा पाते हैं। कुछ दुख शाश्वत हैं और समय आने पर जीवन में स्वतः ही आते हैं जैसे किसी प्रियजन की मृत्यु, आकस्मिक दुर्घटना या हानि आदि, लेकिन छोटी - छोटी बातों को  लेकर दुख करना व्यर्थ है विशेषकर उन बातों को जिन्हे प्रयासों से ठीक किया जा सकता हो। जीवन अनमोल है और एकबार ही मिलता है अतः इसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखें,  इसे भरपूर जिएं और हर पल को जिएं  क्योंकि जब हम जीवन के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपना लेते हैं तो हमें अपने चारों ओर दुख और निराशा की काली चादर दिखाई देती

सौभाग्य और दुर्भाग्य

अक्सर मैंने देखा है कि लोग सौभाग्य और दुर्भाग्य की बातें करते रहते हैं। क्या है ये सौभाग्य और दुर्भाग्य , वास्तव में यह सब इंसान के अपने कर्मों से निर्मित जीवन शैली है, ईश्वर ने हमें जो जीवन दिया है उसके लिए कुछ नियम भी निर्धारित किए हैं, जब हम नैतिकता का परित्याग कर सिर्फ भौतिकता के व्यामोह में फंस जाते हैं तो स्वतः ही दुर्भाग्य को आमंत्रित कर बैठते है, भौतिक संसाधनों का उपभोग करना बुरा नहीं है बल्कि सदाचरण का त्याग करना बुरा है क्योंकि कर्म का फल मिलना निश्चित है, हम पूरे जीवन जो कुछ भी करते हैं, वह जीवन को सुखी बनाने के लिए किए गए प्रयास हैं और जब अच्छे प्रयासों का फल अच्छा मिलता है तो बुरे का तो बुरा होगा ही, यह इतनी सी बात हम क्यों भूल जाते हैं, आज समाज में युवा पीढ़ी के पतन का यह सबसे बड़ा कारण है, जीवन की व्यस्तताओं ने, भौतिक संसाधनों की लालसा ने समाज का स्वरूप विकृत कर दिया है. संबधों पर स्वार्थ हावी है तो सदाचार पर दुराचार, परिवार टूट रहें हैं, रिश्ते बिखर रहें हैं. जो लोग अभी भी जीवन में संस्कारों को महत्व देते हैं, जिनके लिए इंसान महत्वपूर्ण है, वे स्वयं को सौभाग्यशाली समझ

किस्मत या भाग्य

अक्सर लोगो को भाग्य या किस्मत खराब होने का रोना रोते हुए देखा गया, क्या वास्तव में यह सच है ? नहीं ये सच नहीं है. भाग्य मायने रखता है पर यदि कोई बिना कर्म किए ही जीवन में सब कुछ पाना चाहे तो यह संभव नहीं, काल्पनिक उड़ानों से सपने सच नहीं होते और न ही सफलता मिलती है, उसके लिए श्रम का बीज बोना पडता है, मेहनत की खाद डालनी पडती है, पसीने से सींचना पडता है तब कहीं जाके सफलता का पौधा उत्पन्न होता है. कर्म से जी चुराना, दूसरों को दोष देना, असुविधाओं का रोना, रोना, अनैतिक आचरण करना ये सब उन लोगों के लक्षण हैं जो ये सोचते हैं कि वे बिना कुछ किए उन्हें सब कुछ हासिल हो जाएगा, लेकिन न ऐसा हुआ है और न कभी ऐसा होगा । ऐसा क्यो होता है इसका क्या कारण है ? इसका कारण हमारे और आपके बीच ही है, बच्चों  को  बडा़ सपना तो दिखा दिया जाता है, पर उस मार्ग पर चलना कैसे है यह नहीं बताया जाता, नैतिकता का आचरण कैसे किया जाए इसकी शिक्षा नहीं दी जाती, जिम्मेदारी का अहसास नहीं कराया जाता. अरे पहले उन्हें इंसान होने का महत्व समझाओ, बाकी तो बाद की बातें हैं यही कारण है कि या तो व्यक्ति का पतन होता है या परिवार का और फि

परवरिश

भारतीय समाज में परवरिश अर्थात् संतान का लालन पालन करना कठिन कार्य है क्योंकि यहाँ का सामाजिक ढांचा परम्पराओ  से जकडा हुआ है । मान्यताओं के हिसाब से ही संतान की परवरिश की जाती है इसमें सबसे बड़ा प्रश्न यही होता है कि लोग क्या कहेंगे? अरे! लोगों का क्या है वो तो कहते ही रहते हैं। सोचने वाली बात यह है कि हम क्या कर रहे हैं और संतान को क्या बना रहे हैं क्योंकि समय के साथ चलना और उसके हिसाब से अपनी सोच को बदलना ही समझदारी है लेकिन ऐसा होता नहीं,  परिणाम संतान का अनुशासन हीन होना और परिवार का बिखरना। आज हमारे जीवन की अनेक समस्यायें इसी कारण उत्पन्न है, न हम अपनी सोच बदलेंगे न समाज को बदल पायेंगे और दो नावों में सवार होकर अपनी संतान की परवरिश करना चाहेंगे तो टकराव तो होगा ही। आज जीवन में सभी समस्याये इसी कारण है सोचिये जरा! 🙏🙏🙏

जीवन सत्य

जीवन ईश्वर की दी हुई अनमोल नियामत है । मनुष्य इस जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हर संभव प्रयास करता है किन्तु इसी कारण वह अपने जीवन को समस्याओं से युक्त भी कर लेताहै। यदि आज हम अपने जीवन को गंभीरता से देखे तो पता चलता है कि भौतिक सुख सुविधाएं भले ही इंसान अर्जित कर ले पर इंसानियत को नहीं अर्जित किया जा सकता, ये वो नैतिक मूल्य हैं जिनकी शिक्षा परिवार से बच्चों कोअपने आप मिलती है इसकी कोई किताब नहीं, यह एक विचारणीय प्रश्न है और समस्याओं का मूल कारण भी.

भारतीय लोगों का जीवन काफी संघर्ष मय है।इसलिए मैं अपने ब्लॉग में उनकी जीवन शैली से परिचित कराना चाहती हूँ। संघर्ष मय जीवन के बाद भी उनके जीवन में उत्साह, उमंग, प्रेम व प्रसन्नता विद्यमान रहती है यही जीवन है जिसका पूर्ण आनंद यहीं उठाया जा सकता है किंतु बदले हुए परिवेश में जो बदलाव यहां हुए हैं, उनसे भारतीय संस्कृति प्रभावित हुई है, उन सबके प्रति अपनी विचारधारा का संक्षिप्त परिचय भी दे रही हूं

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