कविताएँ - - 'मंजर' - - -

बड़ा भयावह
बड़ा दर्दनाक
होता है,
वह मंजर....
जब होता है कोई
अपना, बहुत अपना..
मानो दिल ही.... मृत्यु शय्या पर !
देखना उसे,
तड़पते हुए,
पल-पल, तिल-तिल..
क्षण-क्षण, जाते हुए
मृत्यु-मुख में....
बड़ा भयावह होता है
वह मंजर......!
बहुत असहाय, बहुत छोटे..
हो जाते हैं हम
रह जाते हैं हाथ बांधे...
टूट जाता है भ्रम,
कि सब कुछ है हम...
कुछ भी तो नहीं?
किसी में  भी नहीं ..
सुविधाएं
वह भी तो काम नहीं आती?
तब कितनी तड़प,
कितना दर्द,
कितनी बैचेनी, बेबसी......
उमड़ पडती है !
रह जाते हैं सिर पटक,
जब कोई अपना,
बहुत अपना
होता है मृत्यु- शय्या पर,
तब दिल ही टूट जाता है,
या कि दिल का टुकड़ा...
कहीं खो जाता है,
जोडती हूँ....
पर दिल आकार नहीं लेता,
वह टुकड़ा ,
जो खो गया कहीं!
वो जो था बहुत अपना
जो बन गया है सपना,
जो सच था
वह यही था कि
मंजर बहुत भयावह था....
छोड़ गया अनुत्तरित प्रश्न
जिसमें जूझते रहेंगे ताउम्र ...
रह गई अभिलाषा.... तन्हा
बेबस, अकेले लडते
अपने गम से !
ढूंढते प्रश्नो के उत्तर ..... ।


प्रिय भाई तुम्हे समर्पित 🙏🙏🙏🙏🙏🤔🤔

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  5. स्तब्ध रह जाता है कई बार इंसान ... ईश्वर के आगे किसी का कुछ बस नहि होता ...

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