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अगस्त, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जीवन के मायने

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अपने आस पास जब भी देखती हूं तो मुझे लोग किसी न किसी परेशानी का रोना रोते दिखाई देते है या परनिंदा में संलग्न दिखाई देते हैं। यह देखकर मैं सोच  में पड़ जाती हूं कि क्या ये लोग जीवन के मायने समझते हैं ? मेरा - तेरा, अपना-पराया, करते हुए छोटी-छोटी बातों पर लडते हुए ये जिंदगी का रस लेना ही भूल जाते हैं, इन्हें अपने सिवा किसी की फिक्र नहीं होती रिश्ते नाते इनके लिए बोझ होते हैं। स्वार्थ इन पर इस तरह हावी होता है कि उसके आगे दूसरों का सुख - दुख इन्हें दिखाई नहीं देता । इनका जीवन खुद से शुरू होकर खुद पर ही खत्म हो जाता है। वास्तव में जीवन क्या है? इन्हें कभी समझ नहीं आता । जीवन के उद्देश्य से अपरिचित ये लोग सांसारिक माया को सर्वोपरि मान कर धन - सम्पत्ति के लिए आजीवन परेशान रहते  हैं । मैं ये नहीं कहती कि ये वस्तुएं जरूरी नहीं पर उन्हें ही जीवन मान लेना गलत है। जब जीवन पर ही किसी का हक नहीं तो वस्तुओं पर हक जमाना, उसके लिए अपनों को कष्ट पहुंचाना बेमानी है। अगर आप खुश रहना चाहते हो तो तो जीवन के प्रति नजरिया बदलना होगा। जितना खुश रहोगे और दूसरों को रखोगे, उतना ही मन तृप्त रहेगा। नहीं तो ए

व्यथा विरहिणी की

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विरहिणी जागे सारी रैन पिया की याद में तरसे नैन उमड घुमड़ घटा घिर आई बिजूरि चमके सारी रैन बैरी भये सावन के बदरवा पिया की याद में जरे करेजवा कैसे आये जिया को चैन बैरन कोयलिया टेर लगाए पपीहा पी पी राग सुनाए तन पे गिरी पानी की बुंदिया ज्यों गिरे जरे पे नौन शीतल पुरवइया जब लागी विरहाग्नि और भडकन लागी अब तो बैरन निंदिया रानी मोसे दूर खड़ी है इठलानी कैसे धीरज धरे मेरा जियरा तडपत बीत रहे दिन रैन प्रीत पिया की बैरन बन गई प्रीत में पूरी बावरी मैं बन गई बैरी बना मेरा पूरा जमाना किसी ने प्रीत का मर्म न जाना रोज सुनाए मुझे जरीकटी बतिया सुन सुन फाटे मेरी छतियां कब आओगे मेरे प्रियतम प्यारे राह निहारूं तेरी सांझ सकारे अभिलाषा चौहान

मन के बैरी

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मन के बैरी पांच भए मन को अपने वश में किए काम क्रोध मद लोभ मोह मन में पनपे उपेक्षा द्रोह अति कामी व्यभिचार में डूबा चरित्रहीन उस सम न दूजा क्रोध समान न बैरी कोय क्रोध में सबकुछ गडबड होय बुद्धि विवेक नष्ट हो जाय बडे़ बड़े काम बिगडाय मद में मदमस्त होय जवानी आंखों में न शर्म का पानी मद जब सिर चढकर डोले बडे़ बड़े सिंहासन डोले लोभ मनुज का ऐसा बैरी दीन ईमान की चिता जलाए लोभ में डूबा लोभी देखो कैसे कैसे गुल खिलाए मोहपाश में बंधे जो व्यक्ति उसको कभी फिर मिले न मुक्ति मोह के दलदल डूबत जाय भवसागर से फिर तिर न पाए अलग से ये बैरी नहीं दिखाए पर जब ये हावी हो जाए मनुज की सीरत पल में बदले पतन की राह पर वह है फिसले पाप पुण्य हो जाय बेमानी फितरत बदल जाय इंसानी अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

दुख का कारण

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बहुत दिनों से मन को एक बात परेशान कर रही है कि आदमी के दुख का कारण असुविधाएं हैं या उसकी अपनी प्रवृति ? मुझे लगता है कि असुविधाओं में आदमी जीवन जी सकता है किंतु उसकी अपनी प्रवृति ही उसके दुख का सबसे बडा कारण है क्योंकि यदि सुविधाएं सर्वोपरि होती तो सुविधासम्पन्न लोग ज्यादा प्रसन्न होते लेकिन ऐसा नहीं है बल्कि वे ज्यादा दुखी हैं, जिन लोगों को भौतिक सुविधाओं की चाह है वेज्यादा से ज्यादा पाना चाहते हैं, ऐसे लोग छोटे घर से भी परेशान होते हैं और बड़े घर से भी । उनका पूरा जीवन झींकते हुए या नुक्ताचीनी करते हुए बीतता है। इस जद्दोजहद में वे अपने अनमोल जीवन को व्यर्थ गंवा देते है । उनका अपना जीवन तो समस्याओं से घिरा होता है किन्तु वे साथ वालों का जीवन भी दूभर कर देते हैं। उनका सारा जीवन उपभोग की वस्तुओं को एकत्र करने में निकल जाता है पर वे उसका सुख नहीं भोग पाते। इसका कारण असंतोष है और असंतोष से मन की शांति नष्ट हो जाती है और जीवन अशांत हो जाता है।  सोचने वाली बात ये है कि मूर्ख लोग इस अनमोल जीवन को जीने की बजाए सांसारिक वस्तुओं के लिए लडते झगडते रहते हैं और अंतत संसार से चले जाते हैं

आप बीती

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हम पांच भाई बहन प्रगाढ़ बंधन में बंधे सदा पांच पांडव कहलाते थे। वक्त के साथ हम तीनों बहनों की शादी हुई और हम सब दूर हो गए पर स्नेह का बंधन दूरियां नहीं देखता और हम सब एक बंद मुट्ठी के समान थे। बचपन का लडना झगडना, रूठना मनाना बदस्तूर जारी था  मैं सबसे बड़ी थी, मुझसे छोटा मेरा भाई लोकेन्द्र, जिसे हम बबलू बुलाते थे, वह मेरे बहुत करीब था उसका कोई भी काम और मेरा कोई भी काम कभी एक दूसरे के बिना पूरा न होता  ।मुझे बस कहने भर की देर होती वह कैसे भी आता पर मेरे सामने खड़ा होता। बडी खुशहाल चल रही थी हमारी जिंदगी किंतु अचानक हमारी खुशियों को नजर लग गई, एक मामूली से फ्रेक्चर और डाॅक्टर के गलत इलाज से उसने ऐसा बिस्तर पकडा कि लाख कोशिशों के बाद भी हम उसे ठीक नहीं कर पाए। काल और नियति हमारी कोशिशों पर भारी पड़ गए और हम उसे खो बैठे। आज सात महीने होने को आ रहे हैं, पर अभी भी स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है । ऐसा लगता है,माला टूट गई और मनके  बिखर गए । अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उनकी अमानत दो छोटे-छोटे बच्चों को हम लायक बना सके तो शायद उसके प्रति हमारा नेह सच हो जाएगा। आज का दिन मेरे लिए

सूना मन

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प्रिय भाई को समर्पित सूना मन सूना जीवन तुम बिन भैया सूना सावन न सुहाए मुझे रक्षाबंधन याद आई वो तुम्हारी कलाई जिस पर सबसे पहले मेरी राखी सुहाई अब कौन मुझे धीरज बंधाए तुम बिन न पहला सावन सुहाए कैसे काटूं मैं पल छिन न जिया जाए अब तुम बिन न भाए कोई अब तीज त्योहार ये कैसा नियति का प्रहार अभी उम्र नहीं थी जाने की खाई थी कसमें साथ निभाने की ये घर आंगन सूने तुम बिन ढूंढे हर ओर तुम्हें मेरे नयन अभिलाषा चौहान 

कभी तो मिलेंगे

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वो ढलती हुई सुरमई शाम में तुम्हारी पहली झलक जैसे उतर आया हो कोई चांद जमीं पर बिखर गई सर्वत्र तुम्हारे रूप की चांदनी देखते रह गए हम अपलक जमीं के चांद को तुम्हारा यूं अचानक आना आकर चले जाना कर गया मदहोश हमें वो तुम्हारी समंदर सी गहरी आंखों में डूबते उतराते सरकने लगी जिंदगी ज्यों ढल रही हो रात जीवन की इसी इंतजार में कि कभी कहीं किसी मोड़ पर तुम्हारा दीदार होगा आंखें चार होगी तुमको हमसे प्यार होगा मेरा सपना तब कहीं साकार होगा । अभिलाषा चौहान

रंग बदलती आंखें

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              बचपन की आंखें निश्छल मासूम पवित्र द्वंद्व रहित येआंखें दिल को लुभाती दुख दर्द से दूर मासूम हंसी छलकाती कराती ईश्वरीय सत्ता का अहसास बांध लेती पल में दिल को अपने साथ                    जवानी की आंखें चंचल अल्हड़ रूमानियत से भरी ये आंखें मानो कोई झील हिलोरें लेती डुबाने को तत्पर जमाने को बदल जाती है पल में इनकी तासीर लहराता जोश का समंदर बदलाव की बयार चलने लगती है उत्साह उमंग से लबरेज ये आंखें डरती नही झुकती नहीं पाना चाहती है आकाश                 अधेड़ की आंखें चिंता में डूबी जिंदगी की जद्दोजहद में उलझी ये आंखें भविष्य संवारने को आकुल हर समय दिखती व्याकुल जिम्मेदारियों के बोझ से दबी कराती गंभीरता का निदर्शन                    वृद्ध की आंखें अनुभवों का खजाना ये आंखें भरी स्नेह आशीष से दिखाती राह आने वाली पीढ़ी को झेलती दंश अकेलेपन तिरस्कार का थोडा सा अपनापन पाने को आकुल सदा ये आंखें।                                 ये आंखें उम्र के हर पडाव पर रंग बदलती आंखें जीने के ढंग का प्रदर्शन करती आंखें दिल की बात को बोल द

वो आंखें

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वो आंखें सूनी सपाट  खुली हुई दुनिया का अथाह दर्द समेटे कुछ भोगा हुआ कुछ अपनों का दिया भावना विहीन पथराई सी देख जिन्हें रूह कांप उठी समझ कर भी नहीं समझ पाए उन आंखों का दर्द जो कहना चाहती थीं अपना दमघोंटू दर्द बोल नहीं सकती थीं भीगे थे किनोर दिल का दर्द आंसूओं का रूप ले झर रहा था कतरा कतरा मानो दिल का बह रहा था पथराए से खडे हम असहाय देख रहे थे दर्द के समंदर को सैलाब उमड़ आने को था कोई जान से जाने को था उस सैलाब में बह रहे थे हम स्तब्ध जडवत असहाय से चाह कर भी नहीं समझ पाए वह अनकहा दर्द जो उन आंखों में था पथराई सी वे आंखें आज भी शूल बन चुभोती हैं नश्तर बह उठता है तब हमारी आंखों से आंसुओं का झर झर निर्झर अभिलाषा चौहान

कन्यादान

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वह कली जो मेरे आंगन खिली नाजों से पली बाबुल की लाडली महकता था आंगन जिसके हंसने से खुशियां थी खिलखिलाती जिसके होने से बन आंखों का तारा चमकती थी वो दिल में हमारे धडकती थी वो रौनके हमारे घर की उससे ही थी वक्त हाथों से फिसला, फिसलता गया परंपरा निभाने का समय आ गया छोड बाबुल का घर अब उसे जाना था मां-पिता को कहां अब चैन आना था कैसे सौंपे किसी को हृदय की कनी सोचने से कभी बात कहां है बनी बेटी की विदाई की रीत कैसे बनी क्यों पराई हुई मां-पिता की जनी दान करना है उचित मैंने माना भला कन्यादान उचित कैसे मानूं भला दान दे दी जब अपनी प्रिय लाडली सूना हुआ घर आंगन दिल की गली अपनी बेटी पर अपना हक न रहा सोचकर ये दिल तड़पता रहा बेटियां सदा रस की खान है इन पर निछावर दिलो जान है बेटियों को दिल से लगाकर रखो बेटियों को कभी कोई दुख न हो अभिलाषा चौहान

दस्तूर जिंदगी का

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जिंदगी के सफर में लोग मिलते हैं मिलकर बिछड़ जाते हैं कोई दिल में बस जाता है कोई याद बन जाता है कोई साथ निभाता है कोई अपनी छाप छोड जाता है कोई सच्चा दोस्त बन जाता है कोई दोस्त बन दगा कर जाता है कोई दूर होकर भी बहुत पास होता है कोई पास होकर भी बडा दूर होता है परिचय से परिचित होने की शुरुआत होती है जब दो अजनबियों की मुलाकात होती है परिचित होने पर आदमी की पहचान होती है बातचीत इसका मुकाम होती है ये सफर अनवरत चलता रहता है रिश्ता बनता या बिगडता रहता है मिलना बिछडना चलता रहता है क्योंकि आदमी अकेला नहीं रहता है ये मिलना बिछडना है खेल जिंदगी का यह खेल ही दस्तूर जिंदगी का अभिलाषा चौहान स्वरचित

पाती परिचय रोज तेरा

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हे प्रभो मैं हूं अपरिचित तेरे रूप से जानती हूं बस कि इतना तू है यहीं कण - कण बसा सृष्टि के हर रूप में ये चमकते चांद-तारे उदित दिनकर भुजा पसारे ये चहकते पंछी सारे तेरे रूप का विस्तार हैं नदियों के कलकल प्रवाह में खिलते पुष्पों की सुगंध में पाती परिचय रोज तेरा है तेरा हर ओर बसेरा ये जलधि की तरंगें ये पर्वतों की ऊंची श्रंगे ये तितलियां और भृंगे करती आह्लादित मन मेरा परिचित कराती ये रूप तेरा शक्ति का तू अनंत पुंज है हर दिशा तेरी ही गूंज है मैं अकिंचन क्षुद्र प्राणी वंदन करती जोड़ पाणि तेरी अनंतता का न बोध मुझको ढूंढती हूं रोज तुझको मंदिर मस्जिद गुरूद्वारों में नहीं पता था तू बसा है गरीब की पुकारों में हो रही हूं रोज परिचित जबसे तुझमें लगा मेरा चित हे प्रभो......... अभिलाषा चौहान

परिचय की परिभाषा

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चेहरे हैं जाने - पहचाने पर मन से हैं अनजाने दुख में साझीदार न बनते सुख में साथ खड़े हो जाते हाय हैलो का नाता है बस कोई किसी को भाता है कब अगल - बगल में रहने वाले हों कितने जाने - पहचाने वक्त पडे तब काम न आए झूठा अपनापन छलकाएं कैसा परिचय कैसा नाता मन को ये समझ न आता महानगरों की यही संस्कृति व्यक्ति से अपरिचित व्यक्ति कहां खो गए गली-मोहल्ले मिलकर रहते होते हो-हल्ले तीज-त्योहार भी ऐसे आते मिलकर सब एक घर हो जाते अब तो सब औपचारिक है बस सभी बंध गए दायरों में बस बदल गई हैं सब रीत पुरानी जिनसे परिचित थी अंजानी बदल गई अब जीवन शैली परिचय की परिभाषा  बदली चेहरे कितने हो जाने-पहचाने कोई किसी को कहां हैं जाने अभिलाषा चौहान

नमन

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भारत मां का लाल अटल अविचल निश्छल औ निर्मल व्यक्तित्व उसका बड़ा सुदृढ अपने निर्णय पर सदा अटल कोई न उसका सानी था राजनीति का ज्ञानी था नवयुग का निर्माता था गया आज हमसे है बिछड रहेगा सदा दिलों में अमर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

मेरा अनोखा वतन

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मेरे वतन की माटी की बात अनोखी है सारे जहाँ में इसकी शान अनोखी है धर्म भाषा संस्कृति के भेद कितने हो एकता के सूत्र बंधने की रीत अनोखी है देख लो कुदरत के सारे रंग इसमें है हिमगिरि रक्षा प्रहरी की साख अनोखी है वादियां कश्मीर की इसकी जन्नत है प्रकृति के रंगों की यहां शोभा अनोखी है गले में हार गंगा का सोहता जिसके जलधि भी पांव नित पखारता जिसके शस्य श्यामल भूमि जिसकी शोभा हो अनोखा है वतन मेरा इसकी शान अनोखी है वीरप्रसविनी भूमि इसकी वीर रत्न  उगले बनी वीरों से विश्व में पहचान अनोखी है विश्वगुरू है ये वंदनीय इसकी है माटी यहां प्राण न्योछावर करने की रीत अनोखी है। अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

कही-अनकही

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कुछ कही अनकही बातें अंतरतम में सदा मचाती शोर है उत्ताल तरंगें भावों की लहराती पुरजोर हैं अनुभूति की अभिव्यक्ति में मुझको आता जोर है मेरे मन की मैं ही जानू न जाने कोई और है भावों की इस नगरी का न कोई ओर या छोर है शब्द चुनूं तो कम पड़ जाए वाणी में न जोर है कैसे बांधू मन को मन से पकड़ बडी़ कमजोर है सपने बुनती खुली आंखों से बंद आंखों की किनोर है भावमेघ ऐसे उमडे हैं बरसी बूंदे जोर है बरस बरस के ऐसे बरसी भीगी आंखों की कोर है । अभिलाषा चौहान

भारत या इंडिया

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स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मेरी ओर से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। अपने मन की अनुभूति को प्रस्तुत कविता में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। वतन की शान प्यारी हो वतन की आन प्यारी हो वतन के सामने किसी को न अपनी जान प्यारी हो । बडी़ मुद्दत से मिली है जो आजादी है हमको बडी़ शिद्दत से वीरों ने दिलवाई है हमको बहा के खुद लहू अपना सच किया आजादी का सपना वतन के सामने उनको न कुछ भी और था प्यारा वतन के लिए उन्होंने  अपना सब कुछ था हारा वही वतन है आज हम वतन के वाशिंदे  बना कर धर्म जाति की दीवारें और वोट के फन्दे लडें आपस में और पहुंचाए वतन की संपत्ति को नुकसान आरक्षण बन गया है ढाल चुनावी वादों में बने मंदिर और मस्जिद भी अब चुनावी मुद्दे हैं बना कश्मीर भी देखो रण का अखाड़ा है गुलामी की वो जंजीरें तब जो टूटी थीं बनी गलहार हैं देखो देश की जनता की वादों और इरादों का फर्क तुम देखो अभी भी देश में छाई कितनी गरीबी है भर गए घर हैं उनके कुर्सी पर जो बैठे अभी भी एक भारत में दो भारत हैं जीते एक इंडिया है कहलाता एक भारत है कहलाता इंडिय

ख्वाहिशें जिंदा हैं........

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किसी दिन तो मेरे  शहर में भी बारिश होगी ऐसे लम्हों की हमें हर पल ख्वाहिश होगी। गिरती अमृत बूंदों से गर्द सब छट जाएगी इंसानियत फिर निखर के रंग दिखलाएगी। ख्वाहिशें जिंदा हैं मरते हुए इंसानों में उम्मीद है कि जिंदगी फिर रंग दिखलाएगी। संवेदनाएं दब गई है जिम्मेदारियों के बोझ तले बारिशें फिर इन्हें उभार कर लाएगी। बचपना जबसे खो गया है हम सबका चैन आया नहीं किसी को एक पल का। जिस दिन मेरे शहर में फिर से बारिश होगी बचपना लौट आए तो जिंदगी, जिंदगी होगी। ख्वाहिशें जिंदा रहती हैं इंसान चलें जाते हैं अधूरे ख्बाव सदा इंसान को तडपाते हैं । जब खुदा के रहमोकरम की फिर बारिश होगी उसकी नजरेइनायत से जिंदगी, जिंदगी होगी। अभिलाषा चौहान 

दास्तां ए दर्द

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कुछ टूट गया कुछ छूट गया रब रूठ गया सब छूट गया रिश्ता दिल का दिल से ही था तुम जब से गए दिल टूट गया दिल के टुकडे अब जुडते नहीं हम हंसते हैं पर हंसते नहीं एक सूनापन एक खालीपन हर पल हमको तडपाता है अब कैसे तुम्हें हम बतलाएं हम पर क्या है बीत रहा लगता है कुछ अंदर अंदर दरक रहा औ टूट रहा मुश्किल है जीना लेकिन फिर भी जीवन हम जीते हैं कुछ भी नहीं अब पास मेरे हाथ हमारे रीते हैं रिश्ता दिल का अब दर्द से है ये दर्द बडे़ बेदर्द से है । अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

मन की गिरह खोल दो

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दिल की बात जुबां पर लाओ तो सही मन ही मन सोचने से है क्या फायदा जब तक राज ए दिल पता न चले गांठ मन की बताओ कैसे खुले बात करने से बात बन जाती है राह कोई न कोई निकल आती है दूरी रिश्तों में बढ़ जाए ऐसा न हो हाथ से सब निकल जाए ऐसा न हो खोल दो सब गिरह जो दरम्यान है जिनसे जिंदगी हो गई परेशान है मुश्किलें और बढाने से क्या फायदा सीखलो जिंदगी जीने का कायदा बोझ बन जाए जीवन ऐसा नहो जीना चाहो मगर फिर जी न सको खुशियां बांटों कि सब मुस्कराने लगे जिंदगी जीने का असली मजा आने लगे  । अभिलाषा चौहान

जियो जिंदगी ऐसे......

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दरवाजा दिल का हो या घर का कभी तो खुला रखो नई रोशनी इसमें आने तो दो झरोखा दिल का हो या घर का जरा इसमें ताजी हवा आने तो दो आंखों के पट खोल के देखो भले ही दुनिया को दिल को सही-गलत की आजमाइश होने तो दो रूह को अहसास का अहसास होता रहे दुनिया में खुद को रमाते रहो। न करो कान से सुनी बात का तुम भरोसा बुद्धि को भी जरा काम आने तो दो जीना सिर्फ नाम का किसलिए जिंदगी को जिंदगी का लुत्फ उठाने तो दो बंध गए बंधनों में तो क्या हुआ दिल को बच्चा बन खिलखिलाने तो दो उम्र हावी न हो जाए तुम पर कहीं उम्र को जिंदगी रास आने तो दो अभिलाषा चौहान 

मां भारती के वीर सपूत

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उन शहीदों को कैसे भूलें जो झूला फांसी का झूले वो हंसते रहे सर कटते रहे दुश्मन के छक्के छुडाते रहे न रूके कभी न झुके कभी मां भारती के लिए मिटते रहे सीने पर जब खाई गोली तब मां भारती की जय बोली आजादी उनको प्यारी थी महिमा उनकी न्यारी थी वो भारत मां के लाल सदा तन मन धन न्योछावर करते रहे न फिक्र थी उनको डंडों की न फिक्र थी फांसी के फंदों की लहू बहता था लावा बनकर सरफरोशी की बस तमन्ना थी घर परिवार भी छोड़ा था बस कफन से नाता जोडा था ले जान हथेली पर निकले वे मतवाले धुन के पक्के तब मिल पाई आजादी हमें याद करें न कैसे हम उन्हें वो शहीद हुए हम मुरीद हुए हम करते शत-शत नमन उन्हें अभिलाषा चौहान

वक्त की करवटें

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वक्त बदल जाता है हालात बदल जाते हैं देखते-देखते इंसान बदल जाते हैं कभी हम फकीर तो कभी शहंशाह बन जाते हैं मुकद्दर पर किसी का जोर कहां चलता है कभी हम अर्श पर तो कभी फर्श पर आ जाते हैं वक्त फिसलता जैसे रेत मुट्ठी से हम वक्त के आने का करते इंतजार रह जाते हैं वक्त को थामना किसी के बस में कहां वक्त की चाल से ख्यालात बदल जाते हैं                   अभिलाषा चौहान                                   

रास्ते और दिल

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रास्ते और दिल अगर मिल जाए तो मिल जाए मंजिल.... और भटक जाए तो भटक जाए जीवन दोराहे पर फंसा जीवन विफलता का स्वाद ही पाता है सही रास्ते का चयन जिंदगी बना देता है दिल से दिल का मिलन जिंदगी में रस घोल देता है तब जाकर बनती है जिंदगी जन्नत गलत चयन जिंदगी को जहन्नुम बना देता है                 अभिलाषा चौहान

वीर जवां निकल पडे.....

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वतन पे मर मिटने की सौगंध लिए वो वीर जवां निकल पडे छूटा घर छूटे मां बाप छूट गया पत्नी का संग आंखों में उनके ज्वाला थी देश प्रेम की पी हाला थी बाजू उनके फडक रहे दुश्मन के दिल धडक रहे सीमा पर चौकस रहते वो खेले खून की होली वो जब हरा दिया दुश्मन को तो रोज मनाए दीवाली वो जब लडते लडते शहीद हुए या वीरगति को प्राप्त हुए चेहरे पर उनके शांति थी छलकती वीरता की कांति थी जब लिपट तिरंगे आए वो मां बाप गर्व से कह पाए तू फर्ज निभा आया बेटा तू कर्ज उतार आया बेटा पत्नी की आंखों में आंसू धीरज उसका छलक रहा हूं अब शहीद की विधवा मैं कमजोर नहीं, मजबूर नहीं दूर होकर भी वो दूर नहीं अमर हुआ है मेरा सुहाग सबके कहां ऐसे होते भाग वो वीर सपूत इस जननी का अपना धर्म निभा आया वो वीर शहादत की देखो इक नयी इबारत लिख लाया  ।  जय हिंद जय हिंद की सेना                                     अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

देख लो आईना है सच दिखाता

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समाज को बदलना है तो शुरूआत घर से होगी संतान को बदलना है तो शुरूआत खुद से होगी बोलने से कोई नहीं कुछ सीखता है दण्ड से भी कोई नहीं कुछ सीखता है आचरण जैसा तुम्हारा स्वयं होगा बीज संतति में भी वैसा पडेगा दोष देना संतति को व्यर्थ है संस्कारित करने में ही अर्थ है देख लो आईना है सच दिखाता संतति का आचरण बन आईना जाता छोटा शिशु भी देखा देखी सीखता सब गढता जाता कुंभ सम उसका व्यक्तित्व संस्कारित आचरण यदि स्वयं का होगा देख शिशु स्वयं ही संस्कारवान बनेगा नारी का आदर यदि घर घर में होगा तो कोई भी बालक न बेहूदगी करेगा अत्याचार जब घर में वह देखता है अत्याचारी बन वह भी निखरता है सद्गुणों की उसको तब पहचान होगी घर में जब सद्गुणो की शान होगी चित्र गूगल से साभार अभिलाषा चौहान 

सबकी अपनी अपनी दुनिया

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बसते बसते बसती दुनिया सपनों से सज जाती दुनिया इस दुनिया में सबकी दुनिया  कभी हंसती कभी रोती दुनिया  कितनी प्यारी होती दुनिया जब प्यार से बनती दुनिया नफरत घुल जाए जब इसमें बडी़ बुरी ये लगती दुनिया बहुत बड़ी है वैसे दुनिया सबकी अपनी अपनी दुनिया कभी सरहदों में बंटती दुनिया कभी आपस में लडती दुनिया कभी उजडती कभी बस जाती कभी पल में रंग बदलती दुनिया ईश्वर की है ये सुंदर रचना प्रकृति का उपहार ये दुनिया अभिलाषा चौहान 

भीष्म पितामह की भीषण प्रतिज्ञा.......

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भीष्म पितामह की भीषण प्रतिज्ञा से रच गया था महाभारत सही समय पर निर्णय न लेने से छिड़ गया था गृहयुद्ध आंखों के सामने देखा द्रोपदी का चीरहरण फिर भी न मुख खोला कुछ भी न मुख से बोला उनकी चुप्पी समझ नहीं आई न एक अबला की लाज बचाई अन्याय का न किया प्रतिकार हो गई प्रतिष्ठा तार-तार बंधे थे भीषण प्रतिज्ञा से बने लकीर के फकीर आज भी बैठे हैं चुप समाज में भीष्म पितामह देखते अन्याय, अत्याचार लुटते अबला की लाज सत्ता की खातिर सब कुछ है स्वीकार अधर्म की अनीति की ढाल जाति पांति की ये चुप्पी और आंखों पर बंधी पट्टी रखती इन्हें सच से बहुत दूर हर घर महाभारत हर ओर महाभारत इन्हें है स्वीकार नहीं छोड़ा इन्होंने आज भी सत्य को अनदेखा करना तभी तो बंटता देश समाज परिवार क्योंकि इन्हें बस स्व से है प्यार इनके लिए बाकी सब बेकार अभिलाषा चौहान

मेरी नजर में मित्रता के मायने

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मित्रता दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं दोस्ती का रिश्ता सबसे अनोखा और प्यारा होता है । पर सच्चा सखा या दोस्त किस्मत से नसीब होता है। कृष्ण - सुदामा,  कर्ण - दुर्योधन जैसी मित्रता के उदाहरण अब कहां मिलते हैं। आजकल स्वार्थ ने मित्रता को अपनी गिरफ्त में ले लिया है ।" विपत्ति कसौटी जे कसे ते ही सांचे मीत   "यह कथन पूर्णरूपेण सत्य है। सभी रिश्ते प्यारे होते हैं, पर सबसे अनोखा और प्यारा रिश्ता दोस्ती का है। यह दोस्ती ही है जो अटूट बंधन में बांधती है और अगर यह रिश्तों में समा जाय तो सोने पर सुहागा हो जाती है। अतः दोस्ती के महत्व को समझना आवश्यक है। दोस्ती में स्वार्थ विष के समान है। अतः जहां स्वार्थ है वहां दोस्ती नहीं हो सकती। किसी मकसद के लिए कई गई  मित्रता सदैव हानिकारक और पतन की ओर ले जाने वाली होती है। जेब में पैसो की खनक सुन ऐसे मित्र मक्खियों के समान भिनभिनाने लगते हैं और दोस्ती की कसमें खाते नहीं थकते जैसे ही आपकी जेब खाली हुई  , वे फिर नजर नहीं आते। दोस्तों की भीड जुटाने से अच्छा तो यही है कि एक मित्र हो पर सच्चा हो जो आपके साथ हर अच्छे या बुरे वक्त में

मैं हूं आम आदमी.....

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मैं आम आदमी हूं नहीं मेरी कोई पहचान आम समझकर कर दिया जाता मुझे अनदेखा पर मैं सब देखता हूं क्योंकि खास लोग मेरे बगैर नहीं बन सकते खास उन्हें सदा मुझसे है आस नहीं मेरे पास कुछ भी मैं हूं आम आदमी मुझे कमजोर न समझना न हो मेरी पहचान पर सामर्थ्य है मुझमें सत्ता परिवर्तित करने की आता हूं जब अपनी पर बन जाता हूं खास और तुम हो जाते हो आम इतिहास साक्षी है इसका मैं जब जागा हुई क्रांतियां अनेक पल में बदल गया इतिहास बस मैं परखता हूं सब ओर निरखता हूं अति सर्वत्र वर्जयेत पर अमल करता हूं मैं गिरगिट नहीं जो रंग बदल दूं क्योंकि मैं आम आदमी हूं बस मेरी यही पहचान अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

उदबोधन गीत.....

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आंखों में हो ख्बाव और कदम जमीं पर ऊंची हो हौंसलों की उड़ान निगाहें लक्ष्य पर तो कौनसा है ख्बाव जो हकीकत न बने सिर्फ सोचने से ही कभी सपने न सजे कथनी -  करनी का अंतर बाधा सदा बना कोरी कल्पनाओं के तू महल मत बना आयेगी मुश्किलें और बाधाएं अनेक सुविधाओं के आगे तू घुटने कभी न टेक सोना भी आग में तपकर कुंदन है बना तू शक्ति का है पुंज सामर्थ्य है घना रोके तेरी राह ऐसी शय नहीं बनी तू युवा तेरी सोच है बहुगुणी साकार कर तू स्वप्न राह नयी बना लिखदे नया इतिहास तुझमें बाहुबल घना आंखों में हों ख्बाव ........... अभिलाषा चौहान । चित्र गूगल से साभार