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टूट-टूट कर बिखर रहीं हूँ...

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टूट-टूट कर बिखर रही हूँ, विपदा कैसी आई। पग-पग पर नित छली गई हूँ सहमी हूँ घबराई। लावा अंतस में बहता था, जला न कोई पापी। आग लगाई औरों ने थी, हरपल धरणी काँपी। लाज गठरिया मिलकर लूटी, कौन करे भरपाई। पग-पग पर नित छली गई हूँ, सहमी हूँ घबराई। टूट-टूट कर बिखर रहीं हूँ, कैसी विपदा आई। अपने ही बैरी बन बैठे रोज तराजू तोले। कठपुतली सा नाच नचाकर, जीवन में विष घोले। खंड-खंड में बाँट दिया है, मानव बना कसाई। पग-पग पर नित छली गई हूँ सहमी हूँ घबराई। टूट-टूट कर बिखर रही हूँ, कैसी विपदा आई। अपना ही अस्तित्व मिटाती करती इनका पोषण सर्पों जैसी फितरत इनकी करते कितना शोषण कुछ भी मेरा रहा न अपना दुख से हूं झुलसाई पग-पग पर नित छली गई हूँ सहमी हूँ घबराई। अभिलाषा चौहान