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साँझ हुई माँ लाई दाना -नवगीत

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  साँझ हुई माँ लाई दाना प्रत्याशा में शावक चहके पूरे दिन से करें प्रतीक्षा  पेट क्षुधा पावक बन दहके। तिनका-तिनका जोड़-जोड़ कर नीड़ बनाती कितना सुंदर बड़े यत्न से रक्षा करती पाल रही सपनों को अंदर आँधी-बर्षा और शीत से लड़ती है वह सबकुछ सहके छोटे-छोटे पंख भले हों उड़ती फिरती नील गगन में शावक उसके उड़ना सीखें रहें न पीछे इसी लगन में सफल हुई तब ममता उसकी शावक का जीवन जब महके पंख बने फिर उड़ते शावक ममता देख-देख खुश होती छोड़ नीड़ को उड़ जाते हैं मोह बँधी वह भी कब रहती जीवन बंधन-मुक्त रहे जब तभी खुशी मन आँगन लहके। अभिलाषा चौहान

ये तितलियां डरी-डरी

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ये तितलियाँ डरी-डरी,भय से जो हैं अधमरी। सबकी हैं जो सहचरी,सुनो कथा ये दुख भरी। बाग भी उजड़ गए  पात-पुष्प झड़ गए काल ये कराल है  कौन करे ख्याल है  ये भ्रमर दुष्ट डोलते नित रूप-रंग तोलते पंख भी झड़े -झड़े धरा पर पड़े-पड़े प्राण भी अब छोड़ती सबसे मुख हैं मोड़ती आह मन भरी-भरी,चाह भी धरी-धरी। ये तितलियाँ डरी-डरी,भय से जो हैं अधमरी। उड़ सकी न चार दिन जी सकी न आस बिन संग साथ छूट गया और हृदय टूट गया चुभे सब शूल सा स्वप्न उड़े धूल सा भोगती ये दंड क्यों भ्रमर यूँ उद्दंड क्यों बहेलियों के जाल में वासना के ताल में गिद्ध की निगाह से मनचलों की आह से लुटी-लुटी ये तितलियाँ गिरी इन्हीं पे बिजलियाँ सुन रही खरी-खरी,दुख से ये मरी-मरी। ये तितलियाँ डरी-डरी,भय से जो हैं अधमरी। अभिलाषा चौहान 

घुटन

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पुरुष सत्तात्मक समाज में दबी-कुचली अपनी इच्छाओं को मारकर दूसरों के हिसाब से चलने वाली उन सभी नारियों को समर्पित जो घर की धुरी होते हुए भी कोई भी कार्य बिना पुरुष की मर्जी के नहीं कर सकती। कितने ही अंशों में विभाजित मैं  भूलती अपना अस्तित्व  कौन हूँ मैं ?? लोगों की नजर में भाग्यशाली ये लोग ही  करते हैं मेरे सौभाग्य-दुर्भाग्य का निर्धारण ये जो बनके बैठे हैं नियंता कभी जानी नहीं इच्छा कभी पनपने नहीं दिया मेरा वजूद। कुचली हुई इच्छाओं की चिता पर बैठी एक कठपुतली!!! वृक्ष के तने से लिपटी लता के समान बन गया अस्तित्व मेरा! जो मैंने चाहा खुद को जीना तो मर्यादाओं की खींच दी गई रेखा! घर की चहारदीवारी है वो लक्ष्मण रेखा जिसे पार करना अपने वजूद को तलाशना है किसी युद्ध के जैसा! थक चुकी हूँ टुकड़ों में बँटी मैं भूल गई हूँ हँसना-रोना-सपने देखना खिलखिलाना बस मुझे चलते जाना है मंजिल विहीन इस यात्रा की 'घुटन' जब चीखती है तो हो जाती हूँ सुन्न पथराई सी आँखों में मन की पेटी में दबे कुछ हसीन ख्वाब आँसू बनकर झिलमिलाते हैं पोंछ पल्लू से ढोने लगती हूँ कर्तव्यों का भार लेकर अधरों पर मुस्कान! कुम्हलाए हृदय

वर्ण पिरामिड -अभिलाषा चौहान

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  (श्राप) है श्राप अधर्मी दुराचारी दुष्ट-प्रवृति स्वार्थ से ग्रसित सिसके मानवता। ________________________  (दुष्ट) है दुष्ट कलंक जड़ काटे समाज त्रस्त नैतिकता ध्वस्त मानवता पीड़ित। ________________________  (दुख) है दुख तिमिर झंझावात विधि-प्रहार कठोर-आघात दुर्दिनों की आहट। ________________________  (शूल) है शूल गरीबी आरक्षण बेरोजगारी जातिगत-भेद दलीय राजनीति। ________________________  (राह) है राह जीवन कष्टकारी संघर्ष-अति उद्देश्य-कठिन संसार का समर। है राह सुगम ईश-भक्ति बंधन-मुक्ति देह-आवरण मोह-माया संसार। ________________________ (सूर्य) है सूर्य पालक संचालक संसार-सृष्टि जीवन-आधार अंधकार-संहार। ________________________  (दान) है दान महान परमार्थ परोपकार मानव-कल्याण समत्व का प्रसार। ________________________  (श्रम) हो श्रम सेवार्थ परमार्थ परोपकार मानव-कल्याण जगत का उत्थान। है श्रम सार्थक स्वाभिमान स्वावलंबन उद्देश्य फलित जीवन का आधार। ________________________ वर्ण पिरामिड सात पंक्तियों की छंदमुक्त रचना है। इसमें प्रथम पंक्ति में एक वर्ण,दूसरी में दो वर्ण,तीसरी में तीन वर्ण ,चौथी में चार,

कह मुकरी छंद

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  "कहमुकरी"जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है,'कहना और मुकर जाना'।यह एक लोक छंद है।  'अमीर खुसरो'ने हिंदी भाषा में 'कह मुकरी'छंद में कई सर्वश्रेष्ठ कहमुकरियाँ रची।उसके बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अन्यान्य कवियों ने भी इस विधा को आगे बढ़ाया।यह सोलह मात्राओं का छंद विधान है।इसकी संरचना चौपाई छंद के समान ही होती है। लयात्मकता,गेयता और पहेली की आभा इस छंद के सौंदर्य को बढ़ाती है।बिम्बात्मकता से इस छंद में चार चाँद लग जाते हैं।यह छंद दो सखियों के वार्तालाप का जीवंत दृश्य उपस्थित करता है, इसमें एक सखी दूसरी सखी से अपने साजन के बारे में बात करती है।प्रथम दो पंक्तियों में ऐसा बिंब बनाती कि दूसरी को लगता है कि वह साजन के बारे में बता रही है, लेकिन जब वह पूछती है तो वह मुकर जाती है। इस प्रकार यह छंद रोचक रचना विधान के साथ पाठक के मन की जिज्ञासा को बढ़ाता है। इस छंद की सुंदरता १६ मात्राओं के प्रयोग से बढ़ जाती है,पर कभी-कभी १५ और १७ मात्राओं का प्रयोग भी देखने को मिलता है।तुक और लय इसकी विशेषता है।इसके चार चरण होते हैं।प्रत्येक चरण के अंत में ११११, ११२,२११,२२ का

हिंदी दिवस पर विशेष

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हिंदी दिवस पर विशेष हम हर साल हिंदी दिवस मनाते हैं और अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।पता नहीं यह कैसा चलन है कि अब किसी के प्रति अपने भाव अभिव्यक्त करने के लिए या अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए एक दिन सुनिश्चित कर लिया गया है।उस दिन जोर-शोर से कार्यक्रम होते हैं,सब अपनी भागीदारी निभाकर फिर सब भूल जाते हैं। चाहे पुत्री दिवस हो,मातृ-दिवस हो या पितृ-दिवस हो या और कोई सा भी दिवस। ऐसा लगता है हमने दिखावा करना बखूबी सीख लिया है।अब हम दिखावे को सत्य मानते हैं या फिर इतने भुलक्कड़ है कि अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं और हमें अपने कर्तव्य याद दिलाने के लिए साल में एक बार इन दिनों को मनाने की तिथि निर्धारित कर दी गई है।तभी तो नई पीढ़ी ने भी यह सीख लिया है कि माता-पिता,बहन-बेटी सिर्फ कभी-कभी याद करने बात है।भाषा तो बहुत दूर की बात है।अगर हम इतने ही कर्तव्य-निष्ठ होते तो अंग्रेजियत के गुलाम बनकर थोड़े ही रहते।आजकल बड़े -बड़े स्कूलों में बच्चों को "अ आ इ ई "ही नहीं सिखाई जाती।अब यह भी कोई सिखाने की चीज है,इससे कोई सम्मान तो मिलने वाला नहीं,जब तक आप फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोलते,आप स

नीले अंबर सा यह सागर

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नीले अंबर सा यह सागर, लहरें कितनी चंचल है। मदमाती ये चंद्र देखकर उछलें कूदें हर पल हैं। मुट्ठी रेत फिसलती जैसे सरक रही नित ये घड़ियाँ क्षण-क्षण का अवगुंठन हो जुड़ जाएँ सारी कड़ियाँ पल-पल को जी भर कर जीना किसने देखा कब कल है। मदमाती ये चंद्र देखकर उछलें कूदें हर पल हैं। मन मृग आतुर दौड़ रहा है ढूँढ रहा है कस्तूरी प्रेम भरा यह साथ हमारा इच्छा कर लें सब पूरी। टिक-टिक करती घड़ी बताती समय नहीं ये अविचल है। मदमाती ये चंद्र देखकर उछलें कूदें हर पल हैं। झरते पात मुरझाते सुमन  कहते एक कहानी है। रस की धारा बहती कल-कल हर ऋतु लगे सुहानी है निशा बाँध के चली पोटली सूर्य उदित उदयाचल है। मदमाती ये चंद्र देखकर उछलें कूदें हर पल हैं। अभिलाषा चौहान

न्याय उसे कब मिल पाएगा???

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हमने ऐसे समाज की कल्पना तो नहीं की थी,जहाँ मासूम बच्चियों का जीवन असुरक्षित हो जाए।एक और जहाँ बालिका शिक्षा,'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,सुकन्या समृद्धि,लाडली लक्ष्मी जैसी योजनाएँ बालिका के जीवन को बेहतर बनाने के लिए चलाई जा रहीं। बेटियों को आत्म निर्भर बनाने,उन्हें चूल्हे-चौके से निकाल कर समाज की मुख्य-धारा से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। भ्रू णहत्या,बालविवाह जैसी कुप्रथाओं को मिटाने की बात की जा रही है,वहीं दूसरी ओर दुधमुँही बच्चियों से लेकर किशोर,युवा यहाँ तक कि महिलाएँ भी इस समाज में सुरक्षित नहीं है,पता नहीं कैसी मानसिकता पनप रही है। दुमका की अंकिता हो या दिल्ली की वो छात्रा (जिसे सरे राह गोली मारी गई)या फिर कोई आदिवासी बाला या फिर कोई बिलकीस बानो किसी का जीवन सुरक्षित नहीं है।कौन कब हैवान बन जाए,पता नहीं है! वो न अपनों से बची है और न ही बाहर वालों से। क्या ऐसी परिस्थितियों में बेटी या नारी सशक्तिकरण की अवधारणाएँ साकार हो सकती हैं? कुछ म हिलाओं,तरुणियों, किशोरियों ब च्चियों को अनुकूल वातावरण मिलने से वे सक्षम बन जाती है, लेकिन उनका क्या जो आज भी शोषित,पीड़ित हैं,कैसे उन्हें इन सिर

थाम चला पतवार हाथ में

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शिक्षक दिवस पर विशेष_ __________________ जीवन के पथ पर हमें जिन लोगों से कुछ भी सीखने को मिलता है, वे सभी शिक्षक तुल्य होते हैं। मैं उन सभी विद्वजनों को नमन करती हूँ।जिनसे मुझे कुछ भी सीखने का अवसर मिला।विद्यालय, महाविद्यालय, परिवार समाज तथा आभासी दुनिया के उन सभी आदरणीय सुधिजनों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। थाम चला पतवार हाथ में नौका पार लगाने को ज्यों दीपक में जलती बाती तम को दूर भगाने को। ज्ञान कुंभ का तीरथ पावन  दोष मिटाता है सारे संशय-बाधा दूर हटाए तम के बादल भी हारे संस्कार शिक्षा से शिष्य को तत्पर सदा जगाने को।। बन आदित्य शिष्य जीवन का पथ में किरणें बिखराता आशा के वह पुष्प खिलाकर आगे बढ़ना सिखलाता कर्म बीज बोता जीवन में सूरज नया उगाने को।। फूल-शूल का देता परिचय भूलों को गिनता चुन-चुन कुंभकार सा शिक्षक बनकर करता शिष्य का उन्नयन जीवन रण का वीर बनाता अपना धर्म निभाने को।। अभिलाषा चौहान 

मौन है संवेदनाएं

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मौन है संवेदनाएं ढूँढते कारण नहीं पत्थरों पर शीश पटका पर मिला तारण नहीं। कर्ण भेदी चीख गूँजे चीखते सपने जले आँख के सूखे समंदर प्राण अब कैसे पले इस व्यथामय वर्जना की  हूक साधारण नहीं।। बंद महलों ने न जाना झोंपड़ी के दर्द को ताप कितना झेलते वे या कि मौसम सर्द हो दे दिए ताले मुखों पर व्यर्थ उच्चारण नहीं। खेलते हैं खेल नित ही चाँद की बातें करें नाग बनके विष उगलते नीलकंठी हिय धरें रक्तबीजों की फसल है हो रहा पारण नहीं।