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मनवा रहता है भरमाया

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कोरी चादर दाग लगाए फिरता उसपर यूँ इतराया मैली गठरी ढोता जैसे मनवा रहता है भरमाया। काम जकड़ता बेड़ी बनकर माया जड़ती उसपर ताले अन्धेकूप में भटके बुद्धि मक्खी मारे बैठे ठाले। पिंजरे में बंदी हंस कभी ज्ञान-मोती नहीं चुग पाया मैली..........................।। कैसी प्यास जगी है मन में नदिया-सागर लगते झूठे खाली गगरी लिए हाथ में फिरता जग में तूठे-तूठे भवसागर की चमक-दमक में सत्य कहीं जा बिसरा आया मैली------------------------।। फीकी पड़ती चमक चाँदनी छँटने लगे भ्रम के जाले हंसा पी की पुकार लगाए जिह्वा पड़ते रहते छाले वह आत्मबोध की ज्योति जली यह भू पतिता कंचुक काया। मैली--------------------------।। अभिलाषा चौहान 

पर्वत दरके सहमे झरने

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पर्वत दरके सहमे झरने, सिकुड़ी सिमटी सरिताएँ। वन-उपवन भयभीत लगे, कलियाँ डरकर मुरझाएँ। धीर धरे धरणी अब हारी,लावा उफने सीने में। अंबर आहत आए आफत, मुश्किल होती जीने में। मूढ़ मति मानव करे शोषण,घोल रहा विष जीवन में। दूषित होता ये जग सारा,रोग लगे बस तन-मन में। चौपायों के छिने आसरे, देख देख मन घबराए। बेबस से सब हुए पखेरू, ठौर कहाँ वे अब पाएँ। नद-नाले का फर्क मिटाया,पनघट कुएं सभी प्यासे। धरती का सीना अब फाड़े,रूठ गए अब चौमासे। छीन लिया माता का आँचल,अपने सुख को पाने में। उजड़ रही ये बगिया सारी,लगा चाँद पर जाने में। शोषक शासक बनकर बैठा, रूप नए नित दिखलाए। संसाधन की बाट लगाता, गीत विकास के है गाए। अभिलाषा चौहान 

ऐसा भी व्यापार किया

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काम क्रोध मद लोभ चढ़ा सिर नैतिकता को त्याग दिया घोला ऐसा विष जीवन में  पैर कुल्हाड़ा मार लिया। संबंधों पर डाली मिट्टी और पतन की राह चले मादकता में ऐसे डूबे पालक भी कब लगे भले भूल गए उन संस्कारों को कब उनका सम्मान किया। डोल रहें हैं लिए तराजू पैसों को बस तोल रहे जिससे स्वारथ निकले अपना मीठा उससे बोल रहे अँधियारा मन में छाया है ज्ञान दीप का बुझा दिया। धूप बेचते इनको देखा छाँव छीनते हैं सिर की रक्त चूसते बस औरों का बातों की छोड़ें फिरकी दूध फटे का मोल लगाया ऐसा भी व्यापार किया। अभिलाषा चौहान 

ये कहाँ जा रहें हम??

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समाज के बिगड़ते स्वरूप को देख मन बड़ा व्यथित हैं।हम आगे बढ़ रहें हैं या पतन की ओर बढ़ रहें हैं।हमने क्या पाया है?एक ऐसी पीढ़ी जिसका भविष्य अंधकारमय है।इस अंधकार का जनक संस्कारों का पतन है। साहित्य का सदा से यही प्रयास रहा है कि समाज से अंधकार मिटे ।लोग संस्कारों का महत्व समझें।एक स्वस्थ और सुंदर समाज की रचना हो।पर ऐसा स्वस्थ और सुंदर समाज सदा से कल्पनाओं में देखा है,हकीकत तो बहुत ही दुखदाई है। हमारे पूर्वजों ने समाज को व्यवस्थित रखने के लिए कुछ नियम निर्धारित किए थे।आज वे नियम कहीं दिखाई नहीं देते। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। समाज में बढ़ता अनाचार इसका प्रतीक है।यदि संस्कार नहीं तो शिक्षा का भी कोई औचित्य नहीं है।जैसे बिना मूल के वृक्ष का अस्तित्व नहीं है वैसे ही बिना संस्कार के शिक्षा भी निरर्थक है।आज समाज का अपराधीकरण हो गया है। समाचार पत्र उठाइए तो हत्या,धोखा लूटपाट, आत्महत्या, बलात्कार की खबरों का ही बोलबाला होता है और न्यूज़ चैनल लगाइए तो भी यही सब सुनाई देता है।ऐसा लगता है कि समाज में इसके अलावा और कुछ होता ही नहीं है।टूटते-बिखरते परिवार,बढ़ता अविश्वा

कोई अब न रहे उदास

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उमड़ घुमड़ कर घटा घनेरी भरती हैं हृदय में आस नर्तन करती किरणें बोलें मन में रखो तुम विश्वास  पवन कहे कानों में आकर जीवन का ये सत्य बड़ा सुख-दुख के प्रत्यावर्तन में जीत उसी की रहा अड़ा लुका-छिपी का खेल निराला जगा रहा अबूझी प्यास उच्च श्रृंग करता आकर्षित देता यही नित संदेश बाधाओं को चीर बढ़ो अब बदलेगा तभी परिवेश धूप निखरती छटे अँधेरा कोई अब न रहे उदास आज बेडियाँ निर्बल होती सदा गूँजती उनकी आह उड़ने को यदि पंख मिलें हैं नभ छूने की रखो चाह आज क्षितिज बाँहें फैलाता कर लेना इसका आभास।। अभिलाषा चौहान 

आल्हा छंद -सत्ता पुराण

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सत्ता के गलियारे शापित, भ्रष्टों का ही चलता जोर। मेल नहीं कथनी करनी में , दिल में इनके बैठा चोर। धूल फाँकते मुद्दे सारे, वादों का कब होता मोल। मोल नहीं है सच्चाई का , बातों में होता है झोल। अपनी खूबी रोज गिनाएं, बड़े-बड़े इनके हैं बोल। औरों की निंदा ये करते, पीट रहे नित झूठे ढोल। ये विकास की बातें सुनकर, बहरे हुए हमारे कान। गडढों वाली सड़कें निशदिन, ले लेती हैं कितनी जान। टैक्स चुकाए कैसे जनता, काट-काट कर अपना पेट। काले धन के स्वामी करते, सपने सारे मटियामेट। कीचड़ मिलकर सभी उछालें, नीति-नियम रख देते ताक। हिन्दू-मुस्लिम भेद बढ़ाएं, और बचाएं अपनी नाक। मुर्दें गडे़ उखाड़ रहे सब, भाग्य भरोसे चलता देश। बढ़े प्रदूषण कितना ज्यादा, मैला होता है परिवेश। आने वाली पीढ़ी देखे, स्वार्थ भरे ये इनके काम। इनको वे आदर्श बनाएँ, कैसा देते ये पैगाम। सत्ता का तो लोभ बुरा है, सच्चों का बिगड़े ईमान। शक्ति का दुरुपयोग यहां पर, कौन करे किसका सम्मान। सीमा पर सैनिक बलिदानी, खेत झूलता रोज किसान। अबलाओं की लाज लुटे नित, कहाँ किसी का इसपर ध्यान। अपनी-अपनी ढ़पली बजती, निर्धन पर नित पड़ती मार। मंहगाई डायन बनकर नित, छ

गीत जीवन गा उठेगा

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मन भ्रमर बन बावरा सा है अहम में फूलता सा सुमन मुरझाए पड़े सब दृश्य कुछ ये शूलता सा साँझ ढलती कह रही है आस को मत छोड़ना अब टूट के बिखरे जो मनके प्यार से अब जोड़ना सब गीत जीवन गा उठेगा देख सब कुछ झूमता सा चाँद भी ओढ़े उदासी चाँदनी विरहन बनी है ये पवन सौरभ समेटे याद की चादर तनी है नयन पट ढूँढे किसी को था लगा जो भूलता सा। भोर की किरणें सुनहरी धो रहीं हैं कालिमा को छँट रही है धुंध सारी देखकर इस लालिमा को प्रीत हिंडोले लहर में हिय कुसुम कुछ झूलता सा। अभिलाषा चौहान 

वीणा का संताप

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रुदन करती आज वीणा राग में विराग कैसा सो गए क्यों सप्त सुर भी गीत लगे भार जैसा। प्राण मेरे घुट रहे क्यों वेदना घुली सुरों में हूँ विवश क्य़ों आज मैं भी रस घुले न अब उरों में खो रहा अस्तित्व मेरा काल कहाँ रहा वैसा सो गए क्यों सप्त सुर भी गीत लगे भार जैसा रुदन---------------।। भाव-सागर जड़ हुआ है उठे न तरंग कोई रागिनी माधुर्य रीती प्रीत भी खोई खोई तार अब जुड़ते नहीं है ये मुखरित मौन कैसा सो गए क्यों सप्त सुर भी गीत लगे भार जैसा रुदन---------------।। धूल खाती सी पड़ी हूँ लौ लगन की टूट चली दीप्ति बुझने लगी अब जा रही हूँ कौन गली साधना रहती अधूरी टूट रहा स्वप्न ऐसा सो गए क्यों सप्त सुर भी गीत लगे भार जैसा रुदन----------------।। अभिलाषा चौहान 

कुण्डलिया

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              १.       चंचल चपला सी लली,खोले अपने केश। मुख चंदा सा सोहता,सुंदर उसका वेश। सुंदर उसका वेश,चली वो लेकर गजरा। देखा उसका रूप,आँख से दिल में उतरा। कहती 'अभि' निज बात,मचा है हिय में दंगल। देख सलोना रूप,प्रेम में तन-मन चंचल।                 २.   पायल पैरों में सजे,बेंदी चमके माथ। कानों में कुंडल सजे,कंगन पहने हाथ। कंगन पहने हाथ,गले मोती की माला। ओढ़ चुनरिया लाल,कमर में गुच्छा डाला। कहती 'अभि' निज बात,करे वो सबको घायल। गोरी घूमें गाँव,पहन पैरों में पायल।                 ३.     वामा बोली प्रेम से,आया है त्योहार। सजना अबकी से मिले, नया नौलखा हार। नया नौलखा हार,साथ में कान के बाले। कंगन ला दो नाथ,जड़ाऊ हीरे वाले। वामा की सुन बात,सजन ने माथा थामा। करती मांग अनेक,याद कर करके वामा। अभिलाषा चौहान 

बेबस-सा सब देख रहा

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धर्म खड़ा ठिठका-ठिठका बेबस-सा सब देख रहा सत्यता की होती मृत्यु  झूठ किलक कर खेल रहा। घृणा जमाती अपना डेरा ईर्ष्या खेले घर-घर में निंदा बैठ करे पंचायत अब पीर पैठती दर-दर में  आस लाज का छिना ठिकाना जग बैर -क्रोध फल- फूल रहा । प्रेम बना संन्यासी डोले घर-घर मांग रहा भिक्षा करुणा दया विरहनी बनती मरती जाती हैं इच्छा दर्पण सा विश्वास बना है बस तड़क-तड़क जो टूट रहा। शांति अहिंसा बनी अपरिचित  उच्छृंखलता सिर चढ़ बोली नींव स्वार्थ की भवन लोभ का संस्कारों की निकली डोली बारे न्यारे हुए द्वेष के अब पाप मुखौटा चमक रहा। अभिलाषा चौहान 

बादलों के पार उड़ते

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कामना के इस भँवर में देखता आदर्श झड़ते कर्म का फल ना मिले तो टूटते घर हैं उजड़ते रिक्त मन में शून्यता फिर डालती अपना बसेरा डूबती नौका कहे तब अब कहाँ होगा सवेरा साथ में कोई नहीं जब कालिमा के पैर पड़ते। प्राण पंछी फड़फड़ाता पंख टूटे देख अपने चीख घुटती नैन सूखे धूल मिलते देख सपने चक्र घूमे भाग्य बदले पल दुखों के हैं सिकुड़ते। ठूँठ पर ज्यूँ कोंपलों ने आस जीवन की जगाई दीप जो बुझने चला था लौ लगन की पास पाई और हिय में चाह जागे मेघ ज्यूँ नभ में घुमड़ते। फूटते अंकुर धरा से आज लिखते हैं कहानी साँस चलती बोलती अब कर्म की गंगा बहानी स्वप्न नित बनकर पखेरू बादलों के पार उड़ते। अभिलाषा चौहान 

टूटते दर्पण हृदय के

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टूटते दर्पण हृदय के घिर रही है रात काली आज उपवन तब उजड़ते छोड़ते जब साथ माली। छाँव सपना बन चली अब ठूँठ पत्थर बन खड़े हैं प्रेम के सब तार टूटे बुद्धि पर ताले जड़े हैं कौन सुनता पीर मन की बोल लगें जैसे गाली। नीड़ उजड़े आज देखे शून्यता ने पग पसारे गीत रूठे साज झूठे छूटते हैं सब सहारे हाथ ही जब साथ छोड़ें कौन बजाए तब ताली। बाँटते आँगन घरों के नोचते संबंध सारे सूखते सब नैन निर्झर चोट ऐसी भाग्य मारे शूल भरते आह देखे छोड़ते जब पुष्प डाली। अभिलाषा चौहान 

जाल

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सुरेश जी सिर पकड़ कर बैठे थे।हाथ में कुछ कागज थे, उन्हें बार-बार देखते और फिर गहरी सांस भरते।माथे पर पसीना छलक रहा था।पति को इस तरह बैठे देख रागिनी घबरा उठी। "क्या हुआ जी!जबसे डाकिया आया है,आप यूँ ही बैठे रह गए।कोई परेशानी वाली बात है।बताओ तो मुझे।" सुरेश जी पत्थर का बुत बने बैठे थे। रागिनी ने उन्हें पकड़ कर हिलाया,पर वे कुछ न बोले तो रागिनी ने वे कागज उनके हाथ से लेकर पढ़ना शुरू किया और उसके बाद वो भी सिर पकड़ कर धम्म से उनके पास रखी कुर्सी पर गिर गई। दोनों को जैसे साँप सूँघ गया था। सुरेश जी सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी थे और रागिनी एक शिक्षिका,उसकी सेवानिवृत्ती में एक वर्ष बाकी था।उनकी एक ही संतान थी,जो शादी के कई वर्ष बाद हुई थी। ईश्वर ने देर से ही सही,उनकी झोली में एक पुत्र डाल दिया था।आज उनका बेटा साफ्टवेयर इंजीनियर था।अभी दो महीने पहले ही बड़ी धूमधाम से उसकी शादी की थी।अपने सारे अरमान पूरे किए थे।जो भी शादी में आया ,वो गद-गद होकर गया था।बेटा भी उन्हें श्रवण कुमार जैसा मिला था और ईश्वर की कृपा से बहू भी परी जैसी आई थी।जिसने देखा उसने सराहा।उनके भाग्य को लेकर लोग अक्सर