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अनुभूतियाँ..

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1. मैं पत्थर अनगढ़  नदी का प्रवाह बहा ले चला साथ खाता रहा थपेड़े पल-पल जूझता अनवरत बहती धारा देती रही रूपाकार समय के साथ निखर उठा मैं भी यही तो है जीवन। 2. नमी  बहुत है जरूरी इसके बिना कहाँ कुछ संभव बरसते बादल अंकुरित फसलें बताती महत्ता नमी के बिना बंध्या भूमि हृदय की। 3. कटे पंखों के साथ फड़फड़ाता पंछी भरता आह देख अनंत आकाश को पंख है जरुरी लक्ष्य के लिए पंख मत कटने दो पंख हैं तो सब कुछ है। अभिलाषा चौहान 

लड़ रहा ऐसे समय से....

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सत्य निर्बल हो चला है आज बढ़ते इस अनय से टूट बिखरे स्वप्न सारे मनुजता रोती अदय से। चीख घुटती प्राण की तब नीतियाँ जब धूल होती बोलता बस मात्र पैसा भूख ऐसे शूल बोती ढाल तिनके की बनाकर लड़ रहा ऐसे समय से। कौन सुनता बात किसकी कौन किसकी पीर बाँटे स्वार्थ सिर चढ़ बोलता है मारता जब भाग्य चाँटे जीतता है वो समर भी जो खड़ा रहता अभय से। कीच में खिलते कमल भी दे रहे हैं सीख न्यारी काल कितना भी भयंकर कामनाएँ नहीं हारी साहसी बनकर चला चल कर्म रत हो बस हृदय से। अभिलाषा

मूक मन चंचल......

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मूक मन चंचल मचलकर माँगता ऐसे खिलौने चाहिए बस चाँद तुझको तारकों के ये दिठौने। तू हठी शिशु सा लगे है,रूठता हर बात पर। मानता कब बात अच्छी,लग रहे हैं तुझको पर। पंख बिन उड़ता फिरे तू,चाहता तू क्या बता रोक तुझको अब न पाऊँ,तू रहा मुझको सता। कंटकों से दूर भागे फूल के माँगे बिछौने है भ्रमर सा तू सदा से देखता सपने सलोने। रास क्यों आता नहीं है,जो सदा से पास तेरे। भागता फिरता सदा से,बंधनों के तोड़ घेरे। टूटती उम्मीद रोए,कल्पना के पंख टूटे। तू बधिर निष्ठुर छली है,फूँकते सब शंख फूटे। ले रहा नित नव परीक्षा नयन के भरते भगोने अडिग बन कब तक रहूँगी तू चला सबकुछ डुबोने। अभिलाषा चौहान 

पौध का होता मरण

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आँधियाँ कैसी चलीं हैं लग रहा कैसा ग्रहण वृक्ष बनने से पूर्व ही पौध का होता मरण।। विष बुझे ये तीर छूटें स्वार्थ अपना साधते व्यूह ऐसा रच रहे हैं पाश अपने बाँधते भावनाएँ मर रहीं क्यों विषमयी वातावरण वृक्ष....................।। खींचते ये रेख कैसी टूटते सब प्रेम बंध मानवी मृत हो चली अब शीश चढ़ बैठे हैं अंध नीतियाँ धुसरित हुईं मूल्य का होता हरण वृक्ष.....…............।। जाल में पंछी फँसा ज्यों भूलता अपना धर्म रूढ़ियाँ पायल पगों की कौन समझेगा मर्म दामिनी गिरती सुखों पर ले कलुषता के चरण  वृक्ष......................।। अभिलाषा चौहान 

कालचक्र की ऐसी आँधी

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कालचक्र की ऐसी आँधी बंद हुए मन के वातायन सूने-उजड़े घर के आँगन झींगुर करते रहते गायन।। श्रम का उचित प्रबंधन हो जब यौवन मूल्य-संस्कृति से जुड़े हो उत्थान सभी ग्रामों का ये हवा गाँव की ओर मुड़े किंचित मात्र क्लेश दे विचलन रोक ग्राम से आज पलायन सूने-उजड़े घर के आँगन झींगुर करते रहते गायन।। हरे-भरे खेतों में जब-जब पड़ती सूखे की मार बड़ी आग उदर की बुझती कैसे प्रतिभा सोचे यह खड़ी-खड़ी बाँध पोटली निकल पड़ी फिर प्रतिदिन घर में मचे कचायन सूने-उजड़े घर के आँगन झींगुर करते रहते गायन।। मायावी सी चमक-दमक में स्वार्थ हुआ जब मन पर हावी चमक चाँदनी ऐसी भाई भूल गए सब अपना भावी चकाचौंध शहरी जीवन की बनती जाती है नित डायन सूने-उजड़े घर के आँगन झींगुर करते रहते गायन।। अभिलाषा चौहान