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होकर फिर संग्राम रहे

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छलना छलती सत्यनिष्ठ को कितने अत्याचार सहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। रौद्र रुप धर खड़ी चण्डिका लहू से होली खेल रही जननी जन्मभूमि है रोती हृदय वेदना उमड़ बही कूटनीति के फेंके पासे धर्म-नीति के किले ढहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। एक वृक्ष की डाल खिले थे दो रंगी ये पुष्प कभी आँखों से अंधे बनकर ये भूल गए मर्यादा भी शूल बने चुभते हैं हिय में घृणा-द्वेष में प्रेम बहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। चंदन की शाखों पर जैसे लिपट रहे हों सर्प कई एक जीव पर टूट पड़े सब कपट चलाए रीति नई एक निहत्था पड़ा समर में अर्जुन पुत्र पुकार कहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

धूसर धूमिल स्वप्न उड़े

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सहते-सहते हार गई जब तिरस्कार के दंश गड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े। ममता रही लुटाती सबपर आँचल में पाए काँटे घोर निराशा मन को घेरे अपनों ने सुख ही बाँटे छीन लिए आभूषण सारे विषदंतों ने दंत जड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। भोग्या बनकर भोग रही हूँ चीर हरण का पाप बड़ा नयन मूँद कर बैठे सब हैं मुखपर ताला बड़ा जड़ा त्रस्त हुई चीत्कार करे फिर कितने टुकड़े कटे पड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। धीर धरण कर बनती धरणी भूकंपों से हिलता मन पीर बढ़ी बन लावा बहती झुलस रहा है जिसमें तन जी का जब जंजाल बने बास मारते नियम सड़े हृदय वेदना हुई तरंगित धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

लाख समान जली लंका

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अहंकार सिर चढ़कर बोले पतन बजाता है डंका सुख सारे फिर जले जलन में घेरे बैठी आशंका भरी तिजोरी ताले लटके भूख मिटाए नहीं मिटी कामी लोभी पदवी पाए करुणा हिय में कहाँ उठी पाप घड़ा भरते-भरते तब छलक उठा कैसी शंका।। दुखियों के आँसू में देखे जिसने सपने सतरंगी स्वेत-श्याम को एक करे फिर कपट-घृणा बनती संगी सूर्य शिखर चढ़कर फिर डूबे सत्य मार्ग होता बंका मृगतृष्णा में डूब गया जो डाले पर्दा आँखों पर क्षणभंगुर जीवन को भूला समझे सबकुछ अमर अजर जले लंक के सब परकोटे लाख समान जली लंका।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

एक शाप है निर्धनता

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जीर्ण-शीर्ण काया में सिमटे संगी बनी है दीनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता कैसा कोप विधाता का ये एक हँसे दूजा रोए कोई सुख की गठरी थामे कोई अपना सब खोए आग उदर की रोज जलाए मिटती कहाँ ये मलिनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता।। मानवता हो रही कलंकित पूँजीवाद के फेर में एक तिजोरी भर कर बैठा एक कचरे के ढेर में मरें भूख से जीव तड़पते एक शाप है निर्धनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता कहीं छलकती मदिरा प्याली कहीं नयन से नीर बहा देख रहा श्रम का अवमूल्यन  शोषण का फिर दंश सहा कुचल रहा सपना जीवन का सोती रहती सज्जनता रोटी के टुकड़े को तरसे कुंठा बन गई हीनता।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' सादर समीक्षार्थ 🙏🌹

भूल चुके क्या याद दिलाना!!

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टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। भूल-भुलैया में खोए सब चमक चाँदनी भरमाती है बिना शोर के टूटे लाठी घाव नए देकर जाती है खेल सत्य से आँख मिचौली मृगतृष्णा का जाल बिछाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। बड़े-बड़े अभिमानी हारे कालचक्र की चौसर ऐसी मिट्टी में मिल गई सभ्यता देख प्रलय आई थी कैसी कहाँ बची सोने की लंका कहाँ कृष्ण का रहा ठिकाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। नहीं शाश्वत कभी भी जग में दिखने वाली ये जो माया मानव बाँध आँख पे पट्टी करता रहता अपना-पराया। कालचक्र निर्धारित करके भूल चुके क्या याद दिलाना टूट रही साँसों की डोरी बिखर रहा सब ताना-बाना। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

टूटा-टूटा मन का दर्पण

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टूटा-टूटा मन का दर्पण जाने क्या-क्या करा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। प्रेम समर्पण त्याग धूल से आँधी में उड़ जाते हैं स्वार्थ उतारे केंचुल अपनी घोर अँधेरे छाते हैं इक सपनों का महल बनाया नींव खोखली धरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। अहम सर्प सा फन फैलाए डसता नित संबंधों को समझौते का जाल बिछाए लिखता है अनुबंधों को भूकंपी सी आहट देकर झटका घर को गिरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। सूना जीवन सूना आँगन लटके मकड़ी के जाले ऊपर से जो उजले-उजले हृदय रहे उनके काले एक दशानन हावी होकर अच्छाई को हरा गया बिखर रहे माला के मनके जीते-जी ज्यूँ मरा गया।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक