धूसर धूमिल स्वप्न उड़े
सहते-सहते हार गई जब
तिरस्कार के दंश गड़े
हृदय वेदना हुई तरंगित
धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।
ममता रही लुटाती सबपर
आँचल में पाए काँटे
घोर निराशा मन को घेरे
अपनों ने सुख ही बाँटे
छीन लिए आभूषण सारे
विषदंतों ने दंत जड़े
हृदय वेदना हुई तरंगित
धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।।
भोग्या बनकर भोग रही हूँ
चीर हरण का पाप बड़ा
नयन मूँद कर बैठे सब हैं
मुखपर ताला बड़ा जड़ा
त्रस्त हुई चीत्कार करे फिर
कितने टुकड़े कटे पड़े
हृदय वेदना हुई तरंगित
धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।।
धीर धरण कर बनती धरणी
भूकंपों से हिलता मन
पीर बढ़ी बन लावा बहती
झुलस रहा है जिसमें तन
जी का जब जंजाल बने
बास मारते नियम सड़े
हृदय वेदना हुई तरंगित
धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
सु न्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏
हटाएंनारी की वेदना को अपनी रचना के माध्यम से बहुत कुशलता से दर्शाया है आपने।👌👌
जवाब देंहटाएंभोग्या बनकर भोग रही हूँ
जवाब देंहटाएंचीर हरण का पाप बड़ा
नयन मूँद कर बैठे सब हैं
मुखपर ताला बड़ा जड़ा
त्रस्त हुई चीत्कार करे फिर
कितने टुकड़े कटे पड़े
हृदय वेदना हुई तरंगित
धूसर धूमिल स्वप्न उड़े।।
आज का कटु सत्य....
बहुत ही हृदयस्पर्शी नवगीत।
संवेदना का कुशल चित्रण
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹
हटाएंबहुत सुंदर नवगीत
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार बहना
हटाएंमन को छूती बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय दी।
जवाब देंहटाएंसादर
सहृदय आभार सखी 🌹🌹 सादर
हटाएंसहृदय आभार सखी 🌹🌹 सादर
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