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जनवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सब भूले वो गीत सुहाना

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भौतिकता की चकाचौंध में, सब भूले वो गीत सुहाना वो चूल्हे को बैठ घेरकर माँ की सेंकी रोटी खाना। कब देखी थी वो पगडंडी जो खेतों के बीच खड़ी थी कहाँ गई वो सखी सहेली जो झूले के लिए लड़ी थी भूल गए वो गुड्डे -गुड़िया बिसर गया वो ब्याह रचाना। वो चूल्हे.....................।। नीम निबौली कच्ची अमियाँ खट्टी-मीठी इमली खाना घर-घर की टूटी दीवारें छत से छत का बात बनाना प्रेम की धारा बहती अविरल जिसमें मिलकर रोज नहाना वो चूल्हे के पास...............।। अंतर्मन में कसक उठी है बचपन की वो याद पुरानी दादी-नानी की गोदी में सुनते बैठे रोज कहानी यूँ भी कश्ती भूल गई है कागज वाली आज ठिकाना वो चूल्हे के पास बैठकर माँ की सेंकी रोटी खाना।। अभिलाषा चौहान 

संशय मिटे तभी सारा

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घनगर्जित साखी से फूटी भावों की उन्नत धारा तोड़ तोड़ तटबंध उछलती उन्मत चंचल ज्यों पारा। रिक्त कूप में छलका पानी सत्य सुहाना सुंदर सा अंधकार में चमके जुगनू हृदय लगे फिर मंदिर सा बुद्धि कल्पना संगी बनती संशय मिटे तभी सारा कलुष कालिमा गरल मिटा सब निर्मल कलित गगन मन का धरती अंबर मध्य बसा ये कुसुम खिला जग यौवन का और भैरवी नृत्य करे जब तब टूट गई सारी कारा तोड़-तोड़................ जड़ता मिटी वेदना उपजी करुणा के अब बरसे घन सागर सा विस्तृत उर हो जब प्रेम बरसता ज्यों सावन चंद्र चांदनी रस छलकाती जीत ज्योति की भ्रम हारा तोड़-तोड़..................

मेहनत ही श्रृंगार बनी

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जठराग्नि के प्रबल प्रभाव से मेहनत ही श्रृंगार बनी जीवन श्रम से सिंचित होगा सृष्टि की ये पुकार बनी श्वेद बहाते तप्त धूप में खेतों में श्रमदान करे भूमिपुत्र गलहार जगत के अन्न-धन के भंडार भरे कोप प्रकृति का जब-जब टूटा आशा की बुझ गई कनी जीवन श्रम से....... पाथर तोड़े महल बनाए ढोते गारा 'औ' माटी भीषण गर्मी,शीत प्रबल हो पीर कहाँ किसने बाँटी दो पाटों के बीच पिसे हैं आँसू की बरसात घनी जीवन श्रम से....... सपने आशा साहस जीतें भाग्य बदलता मानव का गढ़ लेते जो लक्ष्य अनोखे नाम अमर रहता उनका संकट जिनको लगते प्यारे मृत्यु से उनकी रार ठनी जीवन श्रम से....... अभिलाषा चौहान 

जोशीमठ का दर्द

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मैं जोशीमठ छीन लिया मेरा रूप,अस्तित्व स्वतंत्रता किया अपमान  बसा दिया तुमने शहर गंदगी से अटा  मेरा हृदय फट रहा है  अंग-अंग मेरा कट रहा है  कभी था मैं  शाश्वत संस्कृति का प्रतीक शांति दूत छीन ली तुमने मुझसे शांति । मैं देता रहा तुम लेते रहे और हो गए बेशर्म... मैं पर्यटन स्थल नहीं मैं हूं अध्यात्म मैं ही ब्रह्म पर मेरा दर्द तुम क्या जानो ? तुमने बजाया सभ्यता का डंका रौंद दिए मेरे अरमान ध्यान-योग, ज्ञान का साक्षी समेटते हुए  तुम्हारी गंदगी मर रहा हूँ  धीरे-धीरे-धीरे.... अनियोजित  व्यवसाय और विकास से थक चुका हूं मैं मेरे आँसुओं का मूल्य तुम क्या जानो ...!! इन अत्याचारों से समा जाऊँगा मैं धरती के गर्भ में सीता के समान....!! अभिलाषा चौहान 

पेट की आग

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देखा मैंने धूप को काँपते सूर्य को ऊँघते कोहरे की रजाई में लिपटे पूस की शीत से डरे हुए अलसाए और दुबके! देखा मैंने चिथड़ों में लिपटे दो जून की रोटी के लिए शीत को धता बताते  कंपकंपाते हाड़ों को...... भीषण शीत से करते दो-दो हाथ। उनके बहते श्वेद के समक्ष सूर्य भी मान लेता हार मौसम उनके लिए कहां होते हैं...!! उनके लिए होती है  पेट की आग ..… जिसके के समक्ष सूर्य की तपिश शीत की बंदिश बेमानी हो जाती है देखा मैंने गर्म कपड़ों में बदन को छिपाए उन अमीरों को  जिन्हें फुटपाथ पर पड़ा कंपकंपाता जीवन बदनुमा धब्बा लगता है  एसी कमरों में और कारों में मौसम की मार से पीड़ित जीवन के संघर्ष से अपरिचित संवेदना हीन कहां समझ पाते हैं उनकी पीड़ा...!! जहां एक-एक रोटी के आगे फीकी है मौसम की मार जीवन यहीं पर खिलता है नेह भी यहीं पर पनपता है समभाव से अपनाते सुख-दुख जो हैं इनके सहभागी अविचल अडिग मुस्कुराते ये हाड़-मांस के पुतले संघर्ष के प्रतीक हंस कर सहते मौसम की मार। अभिलाषा चौहान 

पत्थरों के हैं शहर ये

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पत्थरों के हैं शहर ये लोग भी पत्थर बने खो गए कानन कहीं पर ये भवन ऊँचे तने....? देख कर मन जल रहा है नयनों से बरसे जल आज भी अब जल रहा है जल रहा है इसमें कल जलजले को देख जड़वत वेदना बादल घने खो गए ................... खोखले होते तनों में दीमकें ऐसी लगी मौत भी अब कांपती है देखती जो दरिंदगी सभ्यता की सीढ़ियों ने कलियुगी दानव जने खो गए...................... साँस भी सौ बार सोचे छोड़ दूं मैं ये शहर प्राण तड़पें जग बुरा है वारुणी पीती जहर भाव संन्यासी बने हैं हैं लहू से उर सने खो गए...................... अभिलाषा चौहान 

नींद चुराई है किसने

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रात अमावस की है काली दीप बुझाए हैं किसने घृणा-द्वेष की दीवारों से नींव हिलाई है जिसने। कुरुक्षेत्र लगता मरघट सा डाली के सब पुष्प झरे  वंशबेल की होगी समृद्धि कौन कामना भला करे शमशीरों की रक्त पिपासा देख जगाई है इसने घृणा-द्वेष की दीवारों से नींव हिलाई है जिसने। आँसू की बहती नदियों में कोख उजड़ती है कितनी सूनी माँगों में सपनों की जली चिताएँ हैं उतनी सोच-सोच भयकंपित होती काल-व्याल लगता डसने घृणा-द्वेष की दीवारों से नींव हिलाई है जिसने। मस्तक पर है श्वेद छलकता रोम-रोम फिर काँप उठा चुभने लगा अजब सन्नाटा संकट हिय अब भाँप उठा आज सुभद्रा की आँखों से नींद चुराई है किसने घृणा-द्वेष की दीवारों से नींव हिलाई है जिसने। अभिलाषा चौहान