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कोई कैसे खिलखिलाए

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छाँव की अब बात झूठी धूप कैसी चिलचिलाए आग में सब सुख जले जब कोई कैसे खिलखिलाए। कौन देखे दर्द किसका स्वप्न पंछी मर रहें हैं भावनाएँ शून्य होती घाव से मन भर रहें हैं नेत्र कर चीत्कार रोए नाव जीवन तिलमिलाए। खोखला तन है थका सा माँगता दो घूँट पानी स्वार्थ का संसार कैसा ठोकरों से बात जानी रात काली घेर बैठी प्राण कैसे बिलबिलाए। आँधियों का दौर कैसा तोड़ता सारे घरोंदे शूल हँसते आज देखे फूल कैसे देख रौंदे और मंजिल खो गई जब आस कैसे झिलमिलाए।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

पाठ ये किसने पढ़ाया

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पीर पर्वत सी बढ़ी जब कौन सुनता बात किसकी हो रही कंपित धरा भी शून्यता क्यों आज सिसकी। आँगनों में मौन पसरे नींव हिलती आज बोली दाँव पर जीवन लगाते प्रीत की हर बात तोली व्यंजना भी रो रही है देख आँसू धार उसकी। खेल खेला भावना से स्वार्थ को सिर पर चढ़ाया लीक खींची और बाँटा पाठ किसने ये पढ़ाया बो रहे विष बीज पल-पल बेल पनपीं आज जिसकी। शब्द भी अब तीर से है भेदते मन के गगन को फूस के तिनके बने सुख झेलते नित हैं अगन को बंद खिड़की जब हृदय की धूल तो अब झाड़ इसकी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक