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अभिशप्त वैदेही

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मौन थी सीता, हतप्रभ -सी ! व्यथित,व्याकुल, मन उठा झंझावात ! हे नाथ!मेरा परित्याग !! क्या था ?मेरा अपराध !! क्यों अभिशप्त हैं जीवन मेरा? क्यों वन ही हो मेरा बसेरा?? इस निर्जन वन में अकेली! नियति मुझे कहां ले चली! मैंने तो आपको सर्वस्व माना, आपने ही छीना मेरा ठिकाना। मैंने अग्नि-परीक्षा तो दी थी, मिलन की घड़ी ये छोटी बड़ी थी। हा,नाथ गर्भिणी को यूं वन में भेजा ! फटा क्यों नहीं आपका कलेजा ?? किसके अभिशाप का फल भोगती हूं ! निरपराध होकर मैं दंड भोगती हूं!! प्रजा का हित सर्वोपरि ,मैंने माना, परित्याग मेरा!क्यों ये मैंने न जाना। छाया थी नाथ मैं हर पल तुम्हारी, कैसे फिरूं वन-वन,अब मैं हारी। मिलन का अब न है कोई ठिकाना, जब आपने मेरा मन ही न जाना। मैं अब एक-पल भी जीना न चाहूं, मरना भी चाहूं,मर भी मैं न पाऊं..!! बिलखती वैदेही,अश्रुधार प्रबल थी, अंतर्मन में अंतर्द्वंदों की हलचल मची थी। धरतीसुता का दुख देख प्रकृति दुखी थी निस्तब्धता छाई ,प्रकृति मौन खड़ी थी एक अबला का रूदन गूंजता था, अंबर भी मौन हो सब देखता था चढ़ती है बलिवेदी हमेशा ही नारी !! सीता, यशोधरा, उर्मिला या

कल,आज और कल

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तीक्ष्ण वाणी के प्रहार, झेलता वह मासूम। सुबकता,सिसकता, आंसू पौंछता। खोजता अपने अपराध, शनै-शनै मरता बचपन! आक्रोश का ज्वालामुखी, उसके अंदर लेता आकार। शरीर पर चोटों की मार, बनाती उसे पत्थर! पनपता एक विष-वृक्ष जलती प्रतिशोध की ज्वाला! पी जाती उसकी मासूमियत। वक्त से पहले ही होता बड़ा, समझता शत्रु समाज को, चल पड़ता पाप की राह। कहलाता अपराधी! यही तो होता है, अक्सर मासूमों के साथ, नहीं होती जिनकी मां! होता जिनका अपहरण, वे बेरहम वक्त की चोट से, बन जाते पाषाण! समाज लगता शत्रु सम, लेते प्रतिकार, बस करते जाते वार! बिना सोचे बिना समझे, अंदर की आग! जलाती उन्हें पल-पल, जिसमें जल जाता , कल आज और कल!! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

प्रेम का ये रूप सच्चा

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वो प्रेम के किस्से सुहाने, जो सुने थे हमने अफसाने। तोड़ लाना चांद-तारे देखना सपने सुहाने। कल्पनाओं की उड़ान ऊंची, झूठी बातें लगती सांची। जमीन से कहां जुड़ी थीं, बातें जो थी बहुत ऊंची। गृहस्थी से जुड़ा नाता, प्रेम बना बस समझौता। छोटी-छोटी ख्वाहिशों को, पूरी करना मुश्किल होता। सिमट गई दुनिया पूरी, चांद-तारों से बन गई दूरी। फीस,कापी और किताबें, जरूरतें जो कभी न हो पूरी। जिम्मेदारियां का बढ़ा जाल, भूल गए अपना सब हाल। रोटी, कपड़ा और मकान, इनके उठ खड़े हुए सवाल। खुद को यूं भूल जाना, सपनों का यों दूर जाना। बन गए रिश्ते नए-नए, प्रेम का बस बंटते जाना। कब बीती वह प्रेम-कहानी, होती गई वे बातें पुरानी। बीत गई जब सारी जवानी, बुढ़ापे की दस्तक हुई आनी। आंखों से कम दिखने लगा, हाथ भी थोड़ा कंपने लगा। छड़ी ने दिया जब सहारा, तब याद आया साथी प्यारा। तब प्रेम का रूप समझ आया, साथी का साथ बहुत भाया। जीवनसाथी की अहमियत को, बुढ़ापे ने था समझाया। कहां वे सुहानी प्रेम-कहानी, जिंदगी से थी अनजानी। दो लोगों ने शुरू करी जो, दो लोगों पर खत्म कहानी। अभिलाषा चौहान स्व

कब आएगा हमें करार ?

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               तेरा जाना यूं अचानक,                ले गया दिल का करार।                वो कमी जो न हो पूरी,                करती बहुत है बेकरार।        ‌‌‌‌‌      हर पल तेरी यादों के साए,              दिल-दिमाग पर ऐसे छाए।              हम ढूंढते हैं सुकून के पल,             फिर दिल के हाथों जाते हार।                 छोटी-छोटी खुशियां थी,               प्यार भरी होती थी तकरार।                स्मृतियों के ताने -बाने में,              तेरी हंसी की मधुर झनकार।               वक्त ने चुपके से मारी मार,              न कोई तीर न कोई तलवार।              पाषाण बना कर छोड़ दिया,                 जाने कितने किए प्रहार।                 बहता रहा दर्द का सोता,                दिल भी रहा फूटकर रोता।                   आंखें राह देखती बैंठी,              खोता गया जीवन का करार।                जब तक न आएगा करार,                 तब तक न आएगी बहार।                   बीतेंगे कितने ही सावन,       ‌‌‌‌‌‌       ‌ हम बैठें रहेंगे सब कुछ हार।                  रातें होती जाती हैं लंबी,

वर्ण पिरामिड-(करार)

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                    है                    मन                  व्याकुल                 टूटा-दिल                छिना सुकून               जिंदगी बेजार              कैसे आए करार। *******************************                     न                    ढूंढों                    करार                   बाह्य‌-जग                  कोई न मीत                 बनता मजाक                घाव और बढ़ता। ******************************                    न                  आए                  करार                 दिल-हार                 मन-चंचल                प्रेम का चातक               ढूंढ़ता स्वाति बूंद। *******************************                                            वो                       वीर                      शहीद                   खोया-लाल                  स्तब्ध मां-बाप                  बुत बनी पत्नी                 कैसे पाएं करार। *******************************                  अभिलाषा चौहान                  स्वरचित, मौलिक                  

"मौन वीणा"

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वीणा साधक के बिना बेकार है।जब तक साधक वीणा के तार नहीं छेड़ता तब तकवीणा का होना न होना बराबर है। यहां वीणा'शरीर'और साधक'आत्मा'या कहें' 'परमात्मा का प्रतीक है।महाकवि अज्ञेय ने 'असाध्य वीणा' की रचना की है।बस  उससे ही प्रभावित होकर छोटी सी  कोशिश है मेरी।यह उन्हें ही समर्पित है। ******************************* वीणा थी मौन, साधक था मौन। दोनों में न था संगम, साधक ने न छेड़े तार, वीणा निर्जीव पड़ी बेकार। वीणा चैतन्य तभी होगी, साधक जब करे उसे अंगीकार। साधक ने वीणा को देखा, फिर उसको जांचा परखा, कस दिए उसने वीणा के तार। स्पर्श साधक का पाकर, वीणा थोड़ी चैतन्य हुई, अस्तित्व का उसको भान हुआ, जीवन-उद्देश्य का ज्ञान हुआ। साधक ही सुन्दर साकार, उससे ही वीणा का आकार। मौन संलाप करें वीणा, साधक की उंगलियां थी प्रवीणा। वीणा ने अहम का त्याग किया, साधक को खुद को सौंप दिया। साधक-वीणा एकाकार हुए, सुर-तंत्री फिर रूपाकार हुए। वीणा का सौंदर्य जाग उठा, साधक का हाथ भी कांप उठा। वीणा का आत्मीय सौंदर्य प्रकट, साधक था प्रवीण बड़ा उद्भट। सुर-लय-ताल स्

अंत समय जब आयेगा

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अंत समय जब आयेगा, तब प्यारे पछतायेगा। स्वामी बन बैठा है तू, कुछ न लेकर जाएगा। ये दुनिया का मेला है, प्रभु ने खेल खेला है। सब उसकी कठपुतली हैं, वह जैसे चाहे नचाएगा। आदि का अंत निश्चित है, करले कर्म जो उचित हैं। माया में तू क्यों भ्रमित है, जब खाली हाथ ही जाएगा। नश्वर है संसार ये सारा, इस सत्य को कभी विचारा, आंखों पर क्यों बांधे पट्टी, जो आया सो जाएगा। अंत शरीर का होना है, जो पाया सो खोना है। बांध पोटली सत्कर्मों की, वही साथ ले जाएगा। मेरा-तेरा क्यों है करना, अंत समय से कैसा डरना। जीवन के हर पल को जी ले, बीता समय न वापस आएगा। धर्म-जाति के क्यों पाले झमेले, मंदिर-मस्जिद में क्यों तू उलझे? कितने पापड़ बेल रहा है, सब यहीं धरा रह जाएगा। अभिलाषा चौहान स्वरचित, मौलिक

मानवता जिंदा है...!!

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मानवता मरी नहीं,                        अभी जिंदा है। बस बढ़ते पापों से,                         वह शर्मिंदा है। भटक गए हैं रास्ते से ,                           कुछ मानव। भूल मनुज धर्म,                     बन गए हैं दानव। जिंदगी को समझते                          खिलौना हैं वे। मानवता का कलंक                            बन बैठे हैं वे। मुखौटौं में छुपी होती ,                          इनकी सच्चाई। इसलिए असलियत,                           सामने न आई। मानवता से कहां होता ,                              नाता इनका। बोलते बोल मीठे काम,                            बनाते अपना। ऐसे विश्वासघातियों से,                            दुखी होती है। मानवता कमर कस के,                           खड़ी होती है। दुनिया में करूणा ,दया,                          क्षमा बाकी है। परोपकार ,सद्भाव,समता,                  न्याय अभी बाकी है। एक-जुट होके खड़े होने,                    का दम है अब भी। मुसीबतों से टकराने का,                     जज्बा है अब भी। धर्म-जाति से कहीं ,              

जल रहा था 🌒 चांद

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जल रहा था चांद, थी चांदनी दहक रही। प्रकृति थी मौन, वेदना तड़प रही। खून में उबाल था, बाजुएं फड़क रहीं। हरकतें नापाक थीं, आवाजें उठ रही। खून का बदला खून, पुकार ये मच रही। माहौल था गमगीन, आंखें थीं बरस रहीं। खो दिए थे लाल, माताएं तड़प रहीं। शहीदों की पत्नियां, सिंहनी थीं गरज रहीं। ‌बलिदान न हो व्यर्थ, मेरे सुहाग का। क्यों हो न अंत, अब आतंकवाद का। देखना और सोचना, अब बहुत हो चुका। फैसले का वक्त , अब निकट आ चुका। रक्त की बहीं बूंद, अब न व्यर्थ जाएंगी। हर बूंद तूफान , बनकर कहर भाएगी। भारतवासियों को, कम मत आंकना। वीरता पर आ गए, पड़ेगी बगलें झांकना। अपनी पर आ गए, बहुत कुछ कर जाएंगे। जो तुम न सोच सको, ऐसा करके दिखाएंगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

हे पलाश!!तुम खिलते रहना...

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पलाश !! तुम यूं ही खिलते रहना, .......तुम तो हो वसंत का गहना। खिलते रहो गांवों में और वनों में, दिखते कहां‌ हो अब तुम शहरों में ? चढ़ गए आधुनिकता की भेंट तुम, अब तो शहरों में ईद का हो चांद तुम। औषधीय गुणों के हो तुम स्वामी, ...... कोई नहीं थी तुममें खामी। फागुन में तुम्हारे रंगों की होती थी फुहार अब कहां ऐसे सुर्ख रंग का होता दीदार। कहीं ढाक,किंशुक टेसू ,केशू कहलाए, कहीं राज्य-वृक्ष का तुम सम्मान पाए। ........ ब्रह्मवृक्ष है नाम तुम्हारा, पुष्प तुम्हारा जैसे जलता अंगारा। तुम जब खिलते तो लगता ऐसे, जंगल में लगी हो आग जैसे। हे पलाश!तुम सदा खिलते रहो, अपने सुर्ख‌ रंगों से रंगोली सजाते रहो। हे पलाश!तुम लड़ो अस्तित्व की जंग, तुम से निखर उठते प्रकृति के रंग। ....... .हम मानव अज्ञानी बेचारे, अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारे।  हमने हरे-भरे वृक्ष उजाड़े, प्रकृति के बन बैठे दुश्मन सारे।   देखो!! खून के आंसू रो रही प्रकृति, तुम्हारे पुष्पों में उसकी पीड़ा झलकती। उनका रंग हुआ लहू के जैसा , खिलते हैं तो लगे घाव प्रकृति का। हे पलाश !!बस तुम खिलते रहना!! अभ

मुखर मौन अभिव्यक्ति कविता

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मुखर मौन अभिव्यक्ति कविता, भावों की बहती सुर- सरिता। कविता का संसार है अनुपम, सुर-ताल की छेड़े है सरगम। इसमें सारा विश्व समाया, कोई नहीं यहां अपना-पराया। कहीं जन्मती,कहीं पनपती, कहीं खेलती, कहीं कूदती। इसका क्षेत्र बड़ा व्यापक है, इसका कोई नहीं मापक है। दिल से दिल का बंधन है ये, भावों का अवगुंठन है ये। मौन की ये होती परिभाषा, संतप्त हृदय को देती दिलासा। उड़ती है ये पंख लगाकर, दम लेती अंधकार मिटाकर। सूर्य तेज से ज्यादा तेजस्वी, हृदयों में प्रकाशित इसकी छवि। हृदय का बनकर उल्लास, निराश हृदय में भरती आस। प्रेम -श्रृंगार की ये जलधारा, वीरों का उत्साह ये सारा। पीड़ित-वंचित की आवाज़, क्रांति का करती आग़ाज़। कवि -कल्पना का ये रूप, भावों का सुंदर स्वरूप। अनंतकाल से ये प्रवाहित, इसमें जन-मन है संचित। अभिलाषा चौहान

वर्ण पिरामिड----"दाग"

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************ ************ है दाग इंसान हिंसाग्रस्त चरित्रहीन स्वार्थ से ग्रसित दुराचारी पतित। ************ ************ है मैली चादर लगा दाग किए कुकर्म करता अधर्म जीवन अभिशाप। ************* ************* हो जन पवित्र सच्चरित्र दाग रहित करता सत्कर्म निभा अपना धर्म। ************** ************** अभिलाषा चौहान स्वरचित

अंतस्थ लौ

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दीप की लौ सम झिलमिलाती अंतस्थ लौ देती प्रेरणा। जगाती साहस.. बनाती कर्मण्य.. तूफानों से लड़ती ! ये छोटी सी लौ..! बनती जिजीविषा, जगाती जिज्ञासा, बलवती होती इच्छा, लाती क्रांति, होते परिवर्तन, करके सर्वस्व समर्पण, वीर-धीर-कर्मवीर, बन उत्साही , सतत होते अग्रसर। यह लौ है जगत का आधार, सतत जगत चलायमान, निरंतर दिपदिपाती, इस नन्ही सी लौ से..! देती संघर्ष की शक्ति, जीवन को गति, व्यक्ति को मति, बनती स्वाभिमान, आन -बान-शान, जागता स्वावलंबन, इस लौ का झिलमिलाना! जीवन का प्रतीक, जब तक जलती रहेगी, अंतस्थ लौ ! मानवता खिलती रहेगी, जिंदगी हंसती रहेगी, भाव जगते रहेंगे, सद्गुण जाग्रत रहेंगे। देशभक्ति का भाव होगा, इंसानियत का सम्मान होगा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

कैसा है ये ज़हर...!?

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जहर जुबां का ढाता कहर, जिंदगी होती दोजख और बेजार। टूटते दिल शब्दों की मार से, तीर और तलवार से भी, तेज होती इनकी धार पनपतीे विष की अमर बेल सोखती जीवन का रस, सूख जाता प्रेम का वृक्ष। संबंधों में घुलता जहर, इंसान बेमौत जाता है मर। दिल पर लगे घाव बनते नासूर, जिंदगी होती जाती है बेनूर। अपनी ही लाश को, ढोता है आदमी..! रहती सदा उसकी, आंखों में नमी ...! सर्प भी शर्मसार हैं, इंसान के विष से..! सुनते हैं जब, ऐसे जहरीले किस्से। उगलता जहर इंसान! वातावरण बनता है जहरीला। इंसानियत का मुंह भी, पड़ जाता है पीला। घृणा,द्वेष,ईर्ष्या निंदा का , जहर उगलता। दिल उसका पत्थर का जो नहीं पिघलता। प्रकृति भी इंसान के, जहर से न बची। संस्कृति भी बेचारी , घुट-घुट के मर रही। कैसा जहर ये ...! जिसका न तोड़ है। काल से लगाई ...! इसने होड़ है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

आए हैं ऋतुराज वसंत

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आए हैं ऋतुराज वसंत, वसुधा मुस्काई आ गए कंत। ओढ़ी पीली चुनरिया उसने, फूलों के पहने हैं गहने। वृक्षों ने नवश्रृंगार किया है, हरीतिमा को ओढ़ लिया है। कोयल मीठे गीत सुनाए, भंवरे गुन-गुन करते आए। रंग-बिरंगी तितलियां उड़ती, कोमल कलियां हैं खिलती। बसंत में प्रकृति हुई बासंती, बहती बयार हुई मधुमाती। पीत वर्णी पुष्पों की शोभा, देख-देख मन उठता लोभा। खुशियां लेकर आया बसंत, प्रकृति की शोभा हुई अनंत। शब्द सुंदरता कैसे करें वर्णन, अनुभूति का होता स्पंदन। मां सरस्वती की होती पूजा, उन के सम न कोई दूजा। ज्ञानदीप वे मन में जलाएं, अंधकार को दूर भगाएं। असत्य और अज्ञान मिटाएं, जीवन-ज्योति उज्ज्वल हो जाएं। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बहता नीर हूं मैं !!

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बहता नीर हूं मैं ! हृदय की पीर हूं मैं ! कभी बन सरिता, बहा बन पावन निर्मल। करता सिंचित जीवन, कभी बना मैं निर्झर, करूं धरा को उर्वर। जीवन का अमृत ! सृष्टि की जान ! प्रकृति की मुस्कान ! गाता मेघ मल्हार, मुझसे ही मेघों का श्रृंगार, नवजीवन का सृजनकार, वसुधा का पालनहार, बहता नीर हूं मैं !! कभी बना मैं सागर, कर समाहित, संसार की समस्त पीड़ा ! खो गई मेरी मिठास, पीड़ा के अतिरेक से, अश्रुओं के वेग से, घुल गया मुझमें छार । खो रही निर्मलता मेरी, कलुषित होती , मेरी हर बूंद। नयनों से बहता नीर, नीर की बढ़ी है पीर, प्रदूषित हो गया हूं मैं! बहते-बहते चुक गया हूं मैं! खत्म हो रही जिजीविषा।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

नजर-नजर की बात

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नजरों ने बड़े-बड़े काम किए हैं, कहीं मिले दिल कहीं कत्लेआम किए हैं। नजर-नजर की बात बड़ी बात कह गई, जुबां न कह सकी जज़्बात कह गई। झुकी-झुकी नजर हया बन गई, तिरछी हुई नजर तो अदा बन गई। टेढ़ी नजर ने कई कहर ढा दिए, कितने बसे हुए गुलशन उजाड़ दिए। कोई एक नजर को तरसता रहा, प्यार के लिए दिल तड़पता रहा। पथराई नजर इंतजार करती रही, पलकें बिछाए रास्ता देखती रही। किसी पर नजरें मेहरबान जो हुईं, जिंदगी खुशियों से गुलजार तो हुई। नजर फेर कर जब चल दिया कोई, दिल के हजार टुकड़े हुए नींद भी खोई। होंठ जो न कह सके ,नजर कह गई, प्यार,घृणा,दुश्मनी के बीज बो गई। अभिलाषा चौहान स्वरचित

जिंदगी पतंग-सी

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पतंग-सी है जिंदगी, उड़ान बस भर रही। डोर किसके हाथ है! साधता इसे कौन है? पेंच नए लड़ रही, ख्बाव नए गढ़ रही। छूती आसमान को, कल्पना की उड़ान को। भूल कर सत्य ये, लक्ष्य से भटक ये। इधर-उधर डोलती, वक्त को है तोलती। टूटता गुमान है, छूटता आसमान है। डोर छोड़ती है साथ, फिर पड़े ये किसके हाथ? जिंदगी पतंग -सी, बंधी सांसों की डोर से। टूटती सांसों की डोर, पतंग को न कोई ठौर। निष्प्राण हो कर पड़ी, जिंदगी की रीत है बड़ी। डोर का ही काम सारा, पतंग तो है बेसहारा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

वक्त की बाज़ीगरी

वक्त फिसलता हाथों से रेत के समान पल-पल लेता है , वह इम्हितान खेल चलता है बंदर और मदारी का हम नाचते हैं और वह नचाता है कभी उसका पलड़ा होता है भारी कभी हमारी किस्मत ने बाजी मारी जो मिला वो हमारा था नसीब कौन रहता है भला सदा किसी के करीब भागती हुई इस जिंदगी को रोक न सके जिंदगी की के साथ कदम मिला दौड़ न सके हम समेटते रहे कुछ सुख के पल दुख तो बन साथी सदा रहा हर पल तोड़ना चाहते थे आसमान के तारे ख्बाव बहुत ऊंचे थे हमारे वक्त ने हकीकत का आईना हमें दिखाया हमने वक्त को कभी कहां हरा पाया। अभिलाषा चौहान स्वरचित

किताब-ए-जिंदगी

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मासूम था बचपन, दिल कोरा कागज! सरकी उम्र धूप सम, वक्त ने लिखी इबारत, बनने लगी, किताब-ए-जिंदगी। हर पन्ने पर, लिखा जाने लगा हिसाब। सुख की धूप , कागज पर निखरी। दुख की स्याही , कागज पर बिखरी। जवानी ने देखे सपने सुहाने, दिल की किताब पर लिखे अफसाने। हर ठोकर का, बना बही-खाता। हर कदम हमें था , आजमाता। बनते-बनते , किताब बन गई । हर पन्ने पर नई कहानी गढ़़ गई। कोरे कागज पर कई रंग बिखरे। भावों के रूप उजले और निखरे। बुढ़ापे में अनुभव ने, अपना रौब जमाया। कागज के हर पुर्जे, पर वही नजर आया। कभी हंसाती है , कभी रूलाती है। जिंदगी हर रोज एक कहानी लिख जाती है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

निशब्द हूं मैं!!

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निशब्द हूं मैं!! किसी की कमी कहां होती पूरी! जाना असमय, अनजानी दुनिया में! होता है पहुंच से परे, उस तक पहुंच पाना, एक सूनापन ! एक वीराना ! या रेगिस्तान ! सा पसर जाता है, मन के किसी कोने में, वहां छाया सन्नाटा! चीरता है दिल को, बहता लहू आंसू बनकर!! कहां समझ पाता कोई, कभी किसी का दर्द। एक नीम खामोशी! मिलती है तनहाई! कहां हो सकता है संभव, समझाना वह दर्द!! जो नितांत अपना, होता है बयां कैसे करे? नश्तर-सी चुभती, मर्मांतक पीड़ा!! कर देती निशब्द! डूबते हम दर्द के सागर में। ढूंढते किनारा, कहां मिलता है डूबते को तिनके सहारा। अभिलाषा चौहान

यादों के फूल

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यादों के घने जंगल में, भटकती मैं बन बावरी। चुनती रहती हूं सदा, तेरी यादों के फूल। जिंदगी तो चल रही, अपनी ही रफ्तार से। वक्त भी रूकता नहीं किसी के दुख से हार के। बिखरता है, कुछ टूटता, जो खो गया फिरे ढूंढ़ता। बन बावरा ये मन मेरा, छूट गया जो साथ तेरा। अब मैं हूं ,वे यादें हैं, कुछ टूटे दिल की फरियादें हैं। न वे दिन हैं ,न वे रातें हैं, अब बेमौसम बरसातें हैं। जब वे दिन याद आते हैं, आंखों से आंसू झर जाते हैं। न हम रोते हैं,न हंसते हैं, जीवन के दिन बड़े सस्ते हैं। यादों में हर पल जिंदा हैं, मौत भी इस पर शर्मिंदा हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित