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हिंदी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या

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हिन्दी भाषा का मानक रूप आज अशुद्ध शब्दों के प्रयोग के कारण लुप्त सा होता  जा रहा है।यह चिंतनीय विषय है।हिंदी विस्तृत भू-भाग की भाषा है। क्षेत्रीय बोलियों के संपर्क में आने से शुद्ध शब्दों का स्वरूप बदल जाता है। अहिंदी भाषियों के द्वारा  भी  हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में  किया जाता हैजिसके कारण शब्द अपना मूल रूप खो देते हैं। इसका कारण क्या है? 'उच्चारण' इस समस्या का मूल कारण है। हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।बिना ये जाने कि मात्राओं के हेर-फेर से शब्द का स्वरूप तो विकृत होता ही है ,उसका अर्थ भी बाधित हो जाता है।ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या किया जाए ?कैसे हिंदी भाषा को अशुद्धिकरण से दूर रखा जाए?कैसे शब्दों के शुद्ध रूप को व्यवहार में लाया जाए । इसके लिए" व्याकरण"का व्यावहारिक ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।आज यह समस्या व्यापक हो चुकी है।पहले समाचार पत्रों की भाषा या आकाशवाणी -दूरदर्शन की भाषा को शुद्ध भाषा माना जाता था ,लेकिन बढ़ते व्यवसायीकरण के कारण वहाँ भी भाषा उपेक्षा की पात्र बन गई है।मुद्रण संस्थानों में भी भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान न

कह मुकरी छंद

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पल-पल जो साथी बन रहता चलता साथ नहीं कुछ कहता उसने ऐसा मन भरमाया हे सखि साजन? ना सखि साया। करूँ प्रतीक्षा निशदिन उसकी, दिखता जब खुशियाँ हैं मिलती। मिले मुझे तो करता चेतन, का सखि साजन?ना सखि वेतन। जिसे देख कर हँसती हूँ मैं, जिसके कारण सजती हूँ मैं। जिसको सब कर देती अर्पण। का सखि साजन?ना सखि दर्पण। पीत वसन पहने मुस्काए, रूप सलोना मन को भाए। शोभा उसकी सदा अनंत। का सखि साजन?ना सखि वसंत। मुझे देख कर जो खुश होता, साथ सदा वह जगता- सोता। प्रीत हमारी चढ़े परवान। का सखि साजन?ना सखि श्वान। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हम सब भूल जाएँगे!!

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उठा के जो तिरंगे को, कसम ये रोज खाते हैं। झुका के शीश अपना जो, वतन पे जान लुटाते हैं। रहे आजाद ये गणतंत्र, तिरंगा यूं ही लहराए। न भूलो उन शहीदों को, जिन्होंने प्राण गँवाए। बदल कर भी नहीं बदला बहुत कुछ देश में अपने, बना गणतंत्र ये अपना कहाँ पूरे हुए सपने। लगी जो दीमकें जड़ में, करें हैं खोखला इसको पिसा घुन की तरह कोई, पता चला यहाँ किसको? यहाँ वादे हैं,दिलासे हैं, इरादों का पता किसको छिपी पर्दों में बातें हैं, चली हैं वो पता किसको? वो फहराता तिरंगा भी, मौन हो सोचता हरदम। हिले बुनियादी ढाँचे में, घुटे गणतंत्र का अब दम। छली जाती है मानवता, सिसकती सहमी सी बैठी धर्म-जाति के फंदे में, आग आरक्षण की पैठी। असमता की लकीरों में, बना है न्याय भी अंधा। पनपता है रसूखों से, अपराध का फंदा। मना गणतंत्र का ये पर्व, निभा कर्तव्य पाएँगे। जो बीता आज का ये दिन हम सब भूल जाएँगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जली तीली कहीं कोई !!

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जली तीली कहीं कोई, धुआँ उठता कहीं पर है। जले अरमाँ किसी के है, किसी के सपने जलते हैं। जली भावों की महफिल है, कसक बाकी बची दिल में। लगी छोटी सी चिंगारी, पड़ा ये दिल है मुश्किल में। सुलगती आग को यूँ तुम, बुझाओगे भला कैसे? सोयी है प्रीत लंबी नींद, जगाओगे भला कैसे? ये चिंगारी धधकती है, चमन अब राख होता है। किसी का प्यार जलता है, किसी का घर ही जलता है। जली तीली कहीं कोई, जले सपने किसी के हैं। जला कर राख जो कर दें, वो अपने किसी के हैं। भला अपनों से भी कोई,   यहाँ जंग जीत पाया है। बदलते देखा जमाने को, ठगा-सा खुद को पाया है। बची बाकी पड़ी ये राख, किरण उम्मीद की ढूँढो। बची मुर्दों की ये दुनिया, यहाँ जिंदगी को तुम ढूँढो। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक।

अंधा बाँटे …????

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पुरखों के त्याग सूद संग जो वसूलते हैं। जनता की भावना से खेल नित खेलते हैं। श्वेत वस्त्रों में छिपे काले उनके कारनामे कागज़ों में देश का विकास वो तोलते हैं। सत्ता- शक्ति का चहुँओर बोलबाला है। झूठों की जय, सच्चों का मुँह काला है। भ्रष्टाचार के वस्त्र तंत्र पहने बैठा है। आदमियत पर अंधेपन का मुखौटा है। भानुमती का कुनबा गठजोड़ कर बैठा है। हर कोई एक-दूसरे से लगे ऐंठा-ऐंठा है। जाति धर्म असमता की बढ़ती लकीर है। सत्य- ईमान आज सबसे बड़े फकीर है। अंधा बाँटे रेवड़ी अपनों को देता है। योग्य बेचारा सिर धुनकर रोता है। अपनों में बाँटी जाती खूब मलाई है। ईमान - योग्यता ने मुँह की खाई है। अंधों के आगे नैना वाले हार मान बैठे हैं। रोते-रोते अंधों के तलवे ही चाट बैठे हैं। अंधों के राज्य में आँखों का काम है। लाठी जिसके हाथ बस उसका ही नाम है। आजादी की छाँव में धूप से तन सेंके हैं। जिंदगी की नाव को बिन पानी खींचें हैं। बँटती जो रेवड़ियाँ , नंबर कहाँ आता है। बैठै-बैठे अंधों का बस मुँह देखा जाता है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

पिपासा मन की

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पिपासा जागती है तो बड़ा तड़पाती है। प्रेम या भक्ति की हो मन ललचाती है चैन नहीं आता और नींद उड़ जाती है। अभीष्ट को पाने की चाह बढ़ जाती है। लोभ के शिकंजे में,मन फँस जाता है। जिंदगी में कभी तृप्त नहीं हो पाता है। लोभ की पिपासा भ्रष्टाचार पनपाती है। बुद्धि-विवेक को वह चाट जाती है। कामवासना में नर तन जब डूबता है। भले-बुरे का सब भेद वह भूलता है। पिपासा उसकी बलवती ऐसी होती है। मानवता भी सिर धुनकर के रोती है। मन में पिपासा ज्ञान की तो जगाइए। अंधकार अज्ञान को दूर तो भगाइए। खोलिए खिड़कियां सत्य को निहारिए। मन से माया-मोह तनिक तो बुहारिए। काम क्रोध लोभ मोह शत्रु सम जानिए। पिपासा को इनकी पैदा होते ही मारिए। प्रभु भक्ति में सदा तन-मन को रमाइए। जीवन के लक्ष्य को ऐसे न गँवाइए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

नवगीत:प्रथम प्रयास

भूचालो की बुनियादों पर है सपनों का घर। पल-पल संकट खड़ा सामने जीना है डरकर। सत्ता के गलियारे झूठे, वादें है बस ऊंचे-ऊंचे। खड़ी बाए मुंह मंहगाई, किस्मत भी है आँखें मीचे। ठोकर खाता फिरे आदमी दिखे नहीं है दर। भूचालों की बुनियादों पर है सपनों का घर। छोटी-छोटी सी आशाएं, छोटे-छोटे सपने लेकर। तरस रहा है आज आदमी होती कैसे अब गुजर-बसर। डूब रहा है सूरज उसका, सब खुशियां लेकर। भूचालों की बुनियादों पर है सपनों का घर। सुख के ऊपर दुख की छाया, गहन निशा तम जीवन पाया। उम्मीदों की झोली खाली, सब कुछ है बस खाली-खाली पिसता रहता सदा आदमी जीता है मरकर। भूचालों की बुनियादों पर है सपनों का घर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जख्म दिल के

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खोया-खोया उदास सा, लगता है हर मंजर। जब कोई अपना ही, मारता है खंजर। टूटते दिल से आती है सदा, अविश्वास के पर्दे से, झाँकता बेरहम सत्य, देता है ऐसी चोट, जिसका मरहम नहीं मिलता। छाता है अँधेरा , उठता है विश्वास दुनिया से। हर शै में दिखता है, झूठ ,फरेब, चोट खाया दिल, चैन कहाँ पाता है। एक बार जो टूटता , आइने के समान, फिर कहाँ वो जुड़ पाता है। इश्क में टूटे याकि, टूटे फरेब से या टूट जाए खुदा के कोप से। बोझ सी जिंदगी का, ढोते रहते हैं बोझा, तमाम उम्र। मरे हुए दिल और जज्बात, फिर चैन नहीं पाते है। चोट खाए इंसान, या तो घुट के रह जाते हैं। या इंसानियत से दूर, हैवानियत को साथी बना लेते हैं। या फिर , दुनिया की बेमुरब्बती से, दुनिया ही छोड़ जाते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कुंडलियाँ छंद-अभिलाषा चौहान

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सागर सम संसार में,मानव बूँद समान। नश्वर जीवन पर भला ,क्यों करता अभिमान। क्यों करता अभिमान,मोह में रहता अटका। माया में मन हार,स्वार्थ में रहता भटका। कहती 'अभि' निज बात,बूँद से भरती गागर। करले अच्छे कर्म,बूँद बनती है सागर। माटी से ये तन बना,साँसों की है डोर। प्राण-पतंगा मन बसा,धड़कन करती शोर। धड़कन करती शोर,करें तू क्यों मनमानी। तेरा किस पर जोर,समझ पर फेरा पानी। कहती 'अभि' निज बात,घड़ी मस्ती में काटी। धड़कन होगी बंद,मिले माटी में माटी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

फूलों सी दुआ

दुआएं काम करती हैं, बरसती हैं ये फूलों सी। मिटाती दर्द जीवन का, लगे बिल्कुल मरहम सी। दुखा कर दिल किसी का, कभी तुम क्या पाओगे। रूला कर तुम किसी को, दुआ से दूर जाओगे। दुआ बिकती नहीं ऐसे, खरीदो चंद सिक्कों से। दुआ मिलती नहीं ऐसे, कभी जोर -धमकी से। दिलों की बात है ये, दिलों तक पहुंच जाएगी। दिलों में झांक कर देखो, दुआ फिर मिल ही जाएगी। दुआ मांगों किसी से तुम, इसे फिर भी न पाओगे। दुआ देना ,दुआ पाना, कभी जब सीख जाओगे। पाठ जीवन का तब शायद, कभी तुम भी पढ़ पाओगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मनोकामना

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नव विहान ************* विहान नववर्ष का भावों के उत्कर्ष का प्रेम भाव खिल उठे द्वेष राग मिट चले ऐसा नव विहान हो खुशियों का जहान हो कोई दुखी न दीन हो दुखों के पल क्षीण हो कामना ये मन में पली खिल उठे अब हर कली भ्रांतियों का अंत हो ज्ञान दिग्दिगंत हो हार -जीत से परे राग-द्वेष मिट चले छोड़ दो अब क्रूरता पालना न भीरूता बुराईयों का अंत हो अब न कोई प्रपंच हो हैवानियत का अंत हो आँख अब खुली रखें गलतियों को न ढकें अस्मिता पर न वार हो दानवों की हार हो मानवता पुकारती अब नया विहान हो पूरे सबके अरमान हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक