संदेश

अप्रैल, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

काल कठिन है क्रूर

चित्र
कैसी आई आपदा अपने होते दूर बैठ अकेला सोचता कितने है मजबूर। ढेर शवों के लग रहे विवश हुआ विज्ञान कैसे रोकें त्रासदी टूटा सब अभिमान सन्नाटा हिय चीरता सपने सारे चूर।। जीवन ऐसा अब लगे जैसे कारागार छाया अँधियारा घना कैसे होंगे पार छुपकर बैठे हैं कहीं बनते थे जो शूर।। चिंतन करते मैं थका किसके थे ये पाप जिसका दंड भोग रहे कितने ही निष्पाप साहस पल-पल टूटता काल कठिन है क्रूर।। अभिलाषा चौहान

चंद साँसों के लिए

चित्र
  चंद साँसों के लिए तड़पते लोग कैसे जीतेंगे ये जंग जब लाशों के ढेर पर लालची मुर्दे बनाते सपनों के महल सिक्कों की खनक में डूबे कर रहे सौदेबाजी जुगाड़ की प्रवृति कालाबाजारी जमाखोरी में लिप्त ये भ्रष्टाचारी मुर्दे भारी है इन साँसों पर साँसों के व्यापारी जोंक के समान चूसते रक्त मानवता का हतप्रभ, जड़,असहाय से अपनों के लिए गिड़गिड़ाते लोग इन मुर्दों से माँगते भीख या बेचकर खुद को तिल-तिल मर रहे ताकि मिल जाए चंद साँसें नाउम्मीद होती मानवता में साँस और आस को सहारा देते कुछ लोग ज़िंदा है अभी जो लड़ रहे हैं इन मुर्दों से ताकि अभिशापित मानवता जीत जाए जंग....! अभिलाषा चौहान

बस इतनी सी बात

चित्र
मौत से पहले मौत की आहट सुन काँपती रूहें अधमरी गिरती टूटती साँसे खौफ से काले पड़े चेहरे पर पथराई फटी आँखें देखती मंजर अपने जनाजे का जिससे दूर है काँधा गैरों सी जिंदगी हमनवा मौत की बन खीसें निपोरती पल्ला झाड़कर दूर खड़ी अगूँठा दिखाती आदमी से दूर होता आदमी आँखों में सूखे सागर को पीता हुआ धरती और आसमान के बीच सूखे तिनके सा बस जल रहा है अपने न होने का  धुधँला अहसास चौतरफा मार अव्यवस्था में गेंद सा न जाने किस-किस के हाथों में उछलता करता पूरा है से था बनने का सफर बस इतनी सी बात ??

लेती ज्यूँ आकार प्रिये

चित्र
लोहा गर्म पिघलता जैसे ठंड़ा नव आकार लिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। भाव तरंगित होते हिय में उड़े कल्पना कानन में शब्द-शब्द पुष्पों से महके अर्थ प्राण उर आनन में चली चेतना चुनने मोती सीपी ने मुख खोल दिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी नव श्रृंगार किये लोहा गर्म---------------।। मन तुरंग सा दौड़ रहा है जग के कोने-कोने में देख दशा अति अकुलाता है कविता लगता बोने में चाक चले जब गीली मिट्टी लेती ज्यूँ आकार प्रिये स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। लोहा गर्म-----------------।। हिय अंतस में आस जगाए राह नई यूँ दिखलाती सुंदर-सुंदर लगता जीवन सपनों की पढ़ता पाती ताना-बाना जोड़-जोड़ कर जगजीवन आधार दिए। स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये। लोहा गर्म----------------।। अभिलाषा चौहान

सवैया छंद (गोपी व्यथा)

चित्र
सवैया छंद 1. मुरली बजती सुन माधव की, सखियाँ यमुना तट दौड़ चली। अखियाँ तरसे हरि दर्शन को, मन में पलती इक आस भली। मन में बसते बस श्याम सखी,उनसे मिलना यह चाह पली। दिन-रात बसे छवि नैनन में ,उनसे अनुराग विराग जली। 2. भँवरे सम श्याम सखी लगते, रस जीवन का सब लूट गए। जबसे हमको वह छोड़ दिए ,सुख तो हमसे सब छूट गए। लिखदीं पतियाँ उनको कितनी, कितने सपने अब टूट गए। लगता अब जीवन शून्य हुआ, मुझसे जबसे वह रूठ गए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जैसे सब कुछ डोल रहा था

चित्र
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल नेह हृदय कुछ तोल रहा था तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ डोल रहा था। अम्बर पर बदली छाई थी दुख की गठरी लादे भागे नयनों से सावन बरसे था विरह आग ने गोले दागे प्यासा-प्यासा जीवन मेरा चातक बन कर बोल रहा था। कस्तूरी को वन-वन ढूँढे, पागल मृग सा मेरा मन था। मृगतृष्णा में उलझा-उलझा सड़ता गलता मेरा तन था खोया-खोया जीवन मेरा जीवन-धन को ढूँढ रहा था।। धरती से लेकर अंबर तक सबको अपना मान लिया था सच्चाई से मुख मोड़ा था दुख को गठरी बाँध लिया था, थोड़ा-थोड़ा सुख पाया वह जीवन में विष घोल रहा था।। अभिलाषा चौहान

टूट रहे अनुबंध अनोखे

चित्र
सीप गर्भ में मोती पलता भाव हृदय में पलते वैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। खारा सागर पिए वेदना लहरों में मचती नित हल-चल उमड़-घुमड़ के बादल आए प्यास धरा की जागे पल-पल व्यथित हृदय तटबंध तोड़ता नयना नीर सरोवर ऐसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। एक मिलन पूरा होता है विरही बनकर दूजा डोले पाषाणों ने चीख-चीख कर राज हृदय के कितने बोले पर्वत का आँसू है झरना नदी हर्ष की गाथा कैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। टूट रहे अनुबंध अनोखे जीवन को जो सींच रहे थे काँटों की शैया पर लेटे अपना ही इतिहास कहे थे आस डोर हाथों से छूटे चैन जिया का खोता तैसे घिरता है घनघोर अँधेरा लड़ता जुगनू उससे जैसे।। अभिलाषा चौहान

उधड़ी हुई सी जिंदगी

चित्र
उधड़ी हुई सी जिंदगी  पैंबंद से ढक गई मुस्कुराहटों पर पर्तें उदासी की रुक गई। आँखों में सपनों ने जब डाला न बसेरा उजड़े हुए चमन में अब होगा न सवेरा जलते हुए इन गमों से देखो उम्र पक गई।। कोशिशें भी हारकर यूँ मुंह फेर कर बैठीं खुशियाँ गुरूर करती सी रहती हैं बस ऐंठी मरम्मत करें अब कितनी ये मशीन थक गई।। बदली नहीं हैं सूरतें बुनियाद है बोलती  ये दुनिया कैसी बनिया तराजू में तोलती वीराना ही पसरा था नजर जहाँ तलक गई।। अभिलाषा चौहान