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कौन सुनता है आवाज

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आवाज़ दबा दी जाती है अकसर मन की,आत्मा की, सुनी-अनसुनी करना बन गई है फितरत हमारी। कौन सुनता है ?? जब तड़पती हैं मासूम हैवानों के बीच दब जाती है आवाज अट्टहासों में!!! कौन सुनता है ? जब शोषण के खिलाफ उठती आवाज अक्सर दबा दी जाती है बाहुबलियों द्वारा !!! अब शब्द मुंह में जबरन ठूंसे जाते हैं सच्चाई को दबाने के लिए छीन ली जाती है स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की ।। अब आवाज वेबस है भटकते सरकारी दफ्तरों में गरीब काम की आशा में नहीं होती सुनवाई बहरी व्यवस्था में कौन सुनता है आवाज  ?? आत्मा कराहती है अक्सर अन्याय को देखकर बहरे इंसान कहां सुनते हैं आवाज ?? घर-बाहर हर जगह मजबूर आदमी जिसकी आवाज मर जाती है उसी के अंदर!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

ध्वस्त होती संरचना

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राम-राज्य की संकल्पना युगों-युगों से करते आए महापुरुष। करना चाहते थे ऐसे समाज की संरचना जहां हो महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानव-मानव में न हो भेद जाति-वर्ण-सम्प्रदाय में विभक्त न हो समाज कुरीतियों, अंधविश्वासों से मुक्त आदर्श समाज जहां हो रामराज्य। गौतम,महावीर,बापू अन्यान्य महापुरुष करते सामाजिक बुराईयों का परिष्कार स्थापित कर सद्भाव करना चाहते थे पूर्ण मानव की संरचना जो ईर्ष्या-द्वेष से रहित अवगुणों से मुक्त मानवता का पथ-प्रदर्शक हो। लेकिन खंड-खंड हो गई संकल्पना ध्वस्त हो रही सामाजिक संरचना जातिवाद--सम्प्रदायवाद अधर्म,अनीति की भेंट चढ़ कर। संयुक्त परिवार सामाजिक संरचना का आधार होते विश्रृंखल झुलसते रिश्ते स्वार्थ के जहरीले नाग डंस रहे सौहार्द्र को अपने में सिमटते लोग खंडित होती एकता। भ्रष्टाचार,आरक्षण,अन्याय की भेंट चढ़ते मानवीय मूल्य घुन की तरह खोखला कर रहे सामाजिक संरचना को!!! अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार

आत्मा

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सुन्दर ये संसार है, सुन्दर पाया शरीर, पंचतत्व से है बना,आत्मा का है नीड़। वस्त्र बदलती आत्मा,रखती प्रभु से नेह। मूढ़ मति मानव सदा, करें देह से नेह। मद,माया,मोह में,मानव उलझा जाए। आत्मा की करें उपेक्षा,सुख में भटका जाए। आत्मा विरहिणी बनी,पिय-पिय करतीं जाए। मूढ़ मति मानव सदा, अनसुनी करता जाए। मानव इस संसार में,सदा नहीं तेरा वास। इक दिन पंछी उड़ जाएगा,लगा प्रभु से आस। आत्मा-परमात्मा एक हैं,कुछ दिन का है वियोग। एक दिन हो जाएगा, दोनों का संयोग। अभिलाषा चौहान

चलों जी लें कुछ पल साथ में हम

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वो दिन भी बड़े सुहाने थे, हम दुनिया से बेगाने थे। बस प्यार के हम परवाने थे, कुछ खोए-खोए से रहते थे। वो झील सी नीली आंखों में, मैं भूला-भूला रहता था। वो लहराते काले बालों में, चांद सा मुखड़ा दिखता था। बीत गया वो समय कहां, प्यार भी खो गया न जाने कहां! आंखों चढ़ गया अब चश्मा है, बालों की सफेदी कुछ कहती यहां! जीवन की अंतिम सांझ है ये, दीपक भी अब बुझने को है। जरा देना तुम अपना हाथ जरा, महसूस करूं गर्माहट जरा। तुम मेरे कांधे पर सर रख दो, मैं तुमको फिर महसूस करूं। बस प्रेम का जीवन जीते हैं, अब थोड़ा रूमानी होते हैं। जिम्मेदारी सब बीत गई बुढ़ापे की खुमारी है छाई चलो जी लें कुछ पल साथ में हम रूमानियत से भरे हों अब हम-तुम। अब कोई चिंता न कोई फ़िकर, अब जीना है हमको जी भर। अब प्यार ही प्यार हो हमारे बीच, अब रूमानी बने जीवन का हर पल। अभिलाषा चौहान

खट्टी-मीठी स्मृतियां

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स्मृतियों में जिंदा सदा, जीवन जो हमने जी लिया। खट्टी-मीठी यादों का, अनुभव हमने संजो लिया। छीन सकता नहीं कोई, हमसे हमारे पल वो। जिनको माला के समान, बीते कल में संजो लिया। बचपन की वो नादानियां, घर-आंगन और गलियां। वो सारे खेल-खिलौने, संगी-साथी सहेलियां। वो भाई-बहन का प्यार, था जिस पर जीवन निसार। वो रूठना-मनाना, माता-पिता का दुलार। वो बेफिक्री वो आजादी, वो खुशियां वो मस्ती। राजा थे हम अपने मन के, सपने बड़े थे जीवन के। मीठी-खट्टी स्मृतियां, यादों की सुन्दर गलियां। मनचाहे तब विचरण करलो, हैं जीवन की अनुपम घड़ियां। अभिलाषा चौहान स्वरचित

आभूषण

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आभूषण आवरण बाहरी कर देंगे सौंदर्य वृद्धि पर .. क्या ढंक सकेंगे? मन की मलीनता क्या बदल सकेंगे अवगुणों को गुण में।। जीवन आभूषणों से नहीं सद्गुणों से संचालित सत्कर्म,सदाचरण आभूषण जीवन के सत्य,अहिंसा,प्रेम परोपकार,दया, क्षमा करूणा आदि बने आभूषण मानवीयता में लगते चार चांद।। सौंदर्य की पराकाष्ठा आभूषण नहीं, आभूषण सौंदर्य वृद्धि कारक कविता-वनिता सुशोभित आभूषणों से। कविता में शब्द-अर्थ करते चमत्कार बनते अलंकार करते अलंकृत बनता काव्य सुन्दर मगर आत्मा काव्य की नहीं बन सकते भाव काव्य में भर नहीं सकते।। नारी के सौभाग्य प्रतीक दुल्हन के श्रृंगार कारक मात्र प्रतीक चिन्ह! होते आभूषण सर्वस्व नहीं होते आभूषण! क्योंकि..... बाहरी सौंदर्य से ज्यादा आंतरिक सौंदर्य है महत्त्वपूर्ण!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

परंपरा बस नाम की(अतिथि)

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अतिथि देवो भव हुआ करते थे कभी जिनके आगमन से पलक पांवड़े बिछ जाते थे कभी छलक उठता था अपनापन बरस उठते थे नेह-घन घर भले ही छोटे थे पर दिल बहुत थे बड़े अतिथि की मान-मनुहार में रहते थे हाथ बांधे खड़े वक्त ने बदली जो करवट संस्कृति धूमिल हुई अतिथि देवो भव परंपरा नाम की हुई अतिथि से हट गया 'अ'रह गई बस तिथि पहले ही बतानी पड़ती है पहुंचने की तिथि समय की है कमी होती नहीं किसी की छुट्टी मोबाइल हैं किसलिए बतानी ही पड़ती है आगमन की तिथि अभिलाषा चौहान

बढ़ता औद्योगिकीकरण

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औद्योगिकीकरण विकास के बढ़ते चरण उत्तम पर अनियोजित होता वातावरण प्रदूषित।। ये औद्योगिक कारखाने उगलते जहरीला धुआं कटते वन संकट में जीवन होती जा रही हवा जहरीली लीलती जा रही जीवन।। निकलता कारखानों से अपशिष्ट और कचरा मिलता नदियों में करता जल प्रदूषित जहरीला होता जल नहीं बचेगा कल।। जीवन को सुविधा संपन्न बनाने के लिए उठाए कदम घोंटते पर्यावरण का दम बढ़ रहे रोग,दुख भोगते लोग।। बढ़ता व्यवसायीकरण स्वार्थ के बढ़ते चरण उपभोक्ता वादी नीति रिश्तों में बढ़ी अनीति।। तनाव, आपाधापी उपकरणों में उलझा जीवन यंत्रों के बीच यांत्रिक जीवन नीरस, शुष्क,बेजान मधुरता खोता जीवन।। अभिलाषा चौहान       ‌

बचपन के दिन

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बचपन के दिन बड़े सुहाने थे, हम गम से अनजाने थे। छल-छंदों के न ताने-बाने थे, खेल-कूद के हम दीवाने थे। वो गलियां, वो घर-आंगन, जिनमें में बीता मेरा बचपन। खुशियों से भरे थे पल-छिन वो पल कितने सुहाने थे। वो कच्ची अमियां,खट्टी इमली, बागों में रोज पकड़ना तितली। तब हंसी नहीं थी नकली, खुशियों के हम परवाने थे। भरा-पूरा था परिवार वहां, सब खूब लुटाते प्यार वहां। दादा-दादी, नाना-नानी, किस्से कितने ही सुहाने थे। वो सखियां वो हमजोली, जैसे मस्तानों की टोली। वो गुड्डे-गुड़ियां,वो झूले अनगिन खेल सुहाने थे। वो विद्यालय में आना-जाना, गुरू जी से नित सजा पाना। फिर अच्छे अंक भी ले आना, वे सपने कितने सुहाने थे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

मिथ्या

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ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या कहते हैं वेद-पुराण। जग उलझा माया में, नहीं सत्य का भान। ईश्वर भक्ति को त्याग कर, माया के पीछे भागे। मेरा-तेरा अपना-पराया कर - कर समय बितावे। न सांसों पर जोर चले, न धड़कन साथ निभावे । मूरख मन अति बावरा मिथ्या के पीछे भागे। इस सुंदर संसार को, मिथ्या बातों से बांटे। मानव माया का दास बन, अपनी जड़ ही काटे। खाली हाथ आए थे, और खाली हाथ ही जाना। जीवन बड़ा अनमोल है, क्यों प्रपंचों में उलझाना। अभिलाषा चौहान

भरोसा

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भरोसा जोड़ता दिल को दिल से, हर रिश्ते की नींव यही होता है। जिंदगी के व्यापार चलते भरोसे पर, भरोसा हर संबंध की जान होता है। भरोसे पर टिकी है जिंदगी सारी, इसके बिना जीवन नर्क होता है। कांच के समान होता है भरोसा, जरा सी ठेस से चूर-चूर होता है। टूटता है तो बहुत चुभन होती है, दिल टूटता और दर्द बहुत होता है। उठ जाता है भरोसा जिंदगी से फिर फिर किसी पर भरोसा कहां होता है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

छठ पर्व

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कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से मनता ये त्योहार, सर्वेभवन्तु सुखिना इस पर्व का है आधार। त्रेता-द्वापर काल से मनता आ रहा ये पर्व, चार दिनों तक चलता सूर्योपासना का पर्व। छठी मैया की करते सूर्यदेव भी उपासना, सब जन त्योहार मनाएँ होती निर्मल भावना। निर्जल-निराहार करते सूर्यदेव की साधना, सुख-समृद्धि संतान प्राप्ति की करें कामना। नहाय-खाय से आरंभ होता ये पावन त्योहार, घर-शरीर-मन शुद्धता के साथ आरंभ हरबार । गन्ने के रस खीर बना भोग लगा मनाएं खरना, संध्या में दे अर्घ्य सूर्य को प्रसाद ग्रहण करना। बांस टोकरी रखे ठेकुआ फल-फूल और मेवा, संध्या में जल-बीच में सूर्य को दे अर्घ्य करें सेवा नदी-तालाब किनारे ये पर्व मनाया है जाता, चार दिन कर उपवास मंगल गीत गाया जाता। उगते सूर्य को अर्घ्य दूध से पीपल पूजा होती, पीकर दूध शर्बत परणा विधि पूर्ण होती। विज्ञान और ज्योतिष से जुड़ा ये पावन पर्व, रीति-नीति का पालन कर त्योहार मनाए सर्व। अभिलाषा चौहान स्वरचित ,

ऐसी रही दीवाली

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कुछ खट्टे कुछ मीठे, अनुभव देकर गई दीवाली। कुछ बीते पल याद आए, बच्चों बिन सूनी रही दीवाली। कुछ भावों के दीप जले, कुछ नए प्रेम के पुष्प खिले। झिल-मिल, झिल-मिल दीप जले, बस मन ही गई दीवाली। मेल-मिलाप का दौर चला, कुछ सूनापन-सा बहुत खला। उत्साह-उमंग की कमी खली, बस शुभकामनाएं ही लगी भली अपने में सिमटी रही दीवाली। प्रेम का घट गया घनत्व, औपचारिकता का बढ़ा महत्व। चकाचौंध थी हुई भरपूर, बस जीवन में कम था नूर। पाँच दिनों का ये त्योहार, लाया था खुशियाँ अपार, साफ-सफाई के दौर चले, सौंधे-सौंधे पकवान बने। बात एक बस अच्छी लगी, माटी के दीपक में लौ जगी। पटाखों ने बहुत मचाया शोर, हुआ प्रदूषण फिर पुरजोर। भाई - दूज का आया दिन, सूना रहा भाई के बिन मन ही गया पावन त्योहार पर कुछ कमी खली इस बार। अभिलाषा चौहान स्वरचित

सौंदर्य की परिभाषा

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नयनों की भाती सुंदरता, देख उर आनंदित होता। सुंदर-सुंदर ये सृष्टि सारी, नयन उस पर हों बलिहारी। हृदय भाव, गुण हो यदि सुंदर, जीवन सरल सहज अति सुंदर। सद्गुण आचरित जीवन सारा, उत्तम चरित्र जगत विस्तारा । सुंदर रूप हो असुंदर सीरत, दुष्कर जीवन हो प्रेम रहित। सुंदर सीरत भाव हो अनुपम, कोई न हो जग में उसके सम। रूप उम्र संग ढलता जाता, सीरत उम्र संग चार चाँद लगाता। करो सुंदर भावों का अवगुंठन, कलुष मिटे सुंदर जग-जीवन। अभिलाषा चौहान स्वरचित

कब आएगी ऐसी दीवाली

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राम अयोध्या आए मनने लगी दीवाली, हर घर में फिर भी आई न खुशहाली। राम नाम की महिमा खूब गई बखानी, राम-नाम के मर्म से बने रहे अज्ञानी। राम को दिल में अब तक नहीं बसाया, राम-चरित को जीवन में नहीं अपनाया। राम ने शबरी के झूठे बेर भी खाए, हम मन से जाति-भेद मिटा न पाए। राम-लक्ष्मण बने इक-दूजे की परछाई, वर्तमान में देखो भाई का दुश्मन भाई । अब भी अबला नारी बनी हुई बेचारी, हर घर बैठे रावण नहीं सुरक्षित नारी। तुमने मारा रावण हमने दशहरा मनाया, तुमसे ज्यादा लोगों में रावण जिंदा पाया। राम घर आए खुशियों के दीप जलाए मन में छाया अंधकार कहाँ मिटा पाए। कहीं रौंनके होती कहीं छाया अंधियारा, गरीब बेचारा तरसे कोई नहीं सहारा। कब आएगी राम ऐसी सुंदर दीवाली हर घर खुशियाँ होंगी अमा मिटेगी काली। अभिलाषा चौहान स्वरचित

धनतेरस

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पूरी करे धन्वंतरि, सबके मन की आस। रोग-दोष सब दूर रहें, जब आयुर्वेद हो पास। सच्चा सुख है सदा, स्वस्थ निरोगी शरीर। हर लेते भगवान, सबके मन की पीर। धनतेरस के दिन, होती उनकी उपासना। उनकी पूजा-पाठ से, पूरी हो मनोकामना। उत्तम काया-माया का, प्रभु देवें वरदान। अमृत आयुर्वेद का, करो सदा रसपान। आयुर्वेद में छिपा, लम्बी उम्र का राज, बडे़ - बडे़ रोगों का होता तुरंत इलाज। मंगलकारी पर्व पर, सबके पूरे हों अरमान। भगवान धन्वंतरि की कृपा, से हो जीवन आसान। अभिलाषा चौहान स्वरचित

अतीत

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अतीत और वर्तमान, सहोदर सम सदा साथ,                               संवारते भविष्य को। अतीत देता है प्रेरणा, गलतियों को न दोहराने की, सिखाता है सबक। लेकिन..............! मैंने लोगों को अतीत में डूबे देखा है, अतीत को लेकर वर्तमान को, बिगाड़ते देखा है। चलती हैं पुश्तैनी लड़ाइयाँ, होते हैं वाक-युद्ध, उखड़ते हैं गढ़े मुर्दे, यही तो देखते हैं प्रतिदिन। वर्तमान राजनीति, रोना रोती अतीत का, भूल वर्तमान को, करती दोषारोपण। अतीत तो भारत का, बड़ा सुनहरा था। ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान से, भारत का रिश्ता गहरा था। वीरता-विनय सत्य - अहिंसा, आभूषण थे। वीरों की गाथाओं से सजा था, अतीत हमारा। पौराणिक गाथाओं से, समृद्ध संसार ये सारा। केवल कल्पनाएं रह गई , ये अनुपम सौगातें। अब तो बना अतीत को मोहरा, हो रही हैं घातें। अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार 

आया चुनाव का मौसम

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आया चुनाव का मौसम नेता बुन रहे जाल, लोक-लुभावन वादों के बुनते मायाजाल। फैलाए मायाजाल  नित चलते नई चाल, नेताओं की नीतियाँ बनी जी का जंजाल। सत्ता के भूखे जनता का रखें न ख्याल, जनता बेचारी निशदिन होती है हलाल। हाथ जोड़ते फिरते मासूम बना के हाल , वोटो की राजनीति नित करती खड़ा बवाल। सत्ता में आकर नेताजी होते हैं मालामाल, कब लोगे सुधि हमारी जनता पूछे सवाल। अभिलाषा चौहान                  छायाचित्र गूगल से साभार 

सुनसान वादियाँ

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**(1)** ये वादियाँ, ये लहराते दरख्त, नीले आसमां तले, नीली आभा में ढले, दिखते हैं मायूस, बिखरी नीम खामोशी, बनती है गवाह हर पल की। ये शांत सुरम्य वातावरण, प्रकृति का अनंत सौंदर्य, अनिर्वचनीय, अद्वितीय, बन गया पनाहगार, निर्मम आतंक का। ये सूने मकान, ये दरोदीवार, जीवनोल्लास से रहित, भय से ग्रसित, ये जन्नत !! बन गई कैद खाना, दुबके घरों में लोग, हताश व निराश। छिन गई जीवन की सरलता, हर और दिखती विकलता, प्रकृति में भी नहीं सहजता, जीवन में आ गई दुरूहता।। ****(2)***** प्रकृति की गोद में रचा-बसा मैं आज रोता हूँ अपनी वीरानी पर शहरीकरण ने उजाड़ दिया मुझे छीन लिए मुझसे मेरे अपने जो यहाँ पले-बढ़े वे बन गए सपने नहीं गूंजती यहाँ खिलखिलाहट नहीं होती आने की आहट उजड़ा हुआ मैं अकेला क्या-क्या न मैंने झेला ये दरख्त ये वादियाँ गवाह हैं मेरे दुख की बीते हुए सुख की नीलाभ नभ सी छाई शून्यता मैं अकेलेपन को ताकता किसे भाता है गांव इन दरख्तों की छांव अब न मनती दीवाली होली बस सब है खाली-खाली बचे इक्के-दुक्के लोग मेरी तरह खामोशी रहे भोग। अभिलाषा चौहान

ज्योति जीवन की

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असीम विषमताएं अनेक समस्याएं उलझा जीवन लड़ता जंग जिंदगी की। अभी भी जल रही आश-ज्योति प्रदीप्त जिजीविषा प्रबल होती प्राण- ज्योति अनवरत, निरंतर। जीवन-गति निर्बाध, निर्बंध चलायमान करती सामना। आंधियों तूफानों का सतत प्रज्वलित ज्ञान-ज्योति से। अमानवीयता के आवरण में धर्म, सद्भाव, मानवता बुझती हुई लौ सम बस एक प्रयास और जल उठती है मानवीयता की ज्योति। यह सृष्टि आत्म-ज्योति से प्रकाशित परमात्म-स्वरूप सतत प्रवाहमान अद्वितीय, अनुपम। अभिलाषा चौहान