परंपरा बस नाम की(अतिथि)

अतिथि देवो भव
हुआ करते थे कभी
जिनके आगमन से
पलक पांवड़े बिछ
जाते थे कभी
छलक उठता था
अपनापन
बरस उठते थे
नेह-घन
घर भले ही छोटे थे
पर दिल बहुत थे बड़े
अतिथि की मान-मनुहार में
रहते थे हाथ बांधे खड़े
वक्त ने बदली जो करवट
संस्कृति धूमिल हुई
अतिथि देवो भव
परंपरा नाम की हुई
अतिथि से हट गया
'अ'रह गई बस तिथि
पहले ही बतानी पड़ती
है पहुंचने की तिथि
समय की है कमी
होती नहीं किसी की छुट्टी
मोबाइल हैं किसलिए
बतानी ही पड़ती है
आगमन की तिथि

अभिलाषा चौहान


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सवैया छंद प्रवाह

जिसे देख छाता उल्लास

सवैया छंद- कृष्ण प्रेम