शीत का प्रकोप
शीत प्रभाव बढ़ा है भारी। अखिल भुवन कांपे नर-नारी। वृद्ध बिचारे थर-थर कांपे। बैठे हैं वे तन को ढाँके। सूर्य देवता खुद भी काँपे। छिपे भुवन में मुंह को ढाँपे। शीत लहर कोड़े चटकाए। हाड़ कंपे अरु चैन न आए। धूप खेलती आँख-मिचौली। धुंध चली है लेकर डोली। खड़ी फसल को पाला लीले। वन-उपवन भी दिखते पीले। जले अलाव शीत से लड़ते। शीत कोप से कैसे बचते। शीत कहर बड़ा अति भारी। ठिठुरती है प्रकृति सुकुमारी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक