संदेश

दिसंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शीत का प्रकोप

शीत प्रभाव बढ़ा है भारी। अखिल भुवन कांपे नर-नारी। वृद्ध बिचारे थर-थर कांपे। बैठे हैं वे तन को ढाँके। सूर्य देवता खुद भी काँपे। छिपे भुवन में मुंह को ढाँपे। शीत लहर कोड़े चटकाए। हाड़ कंपे अरु चैन न आए। धूप खेलती आँख-मिचौली। धुंध चली है लेकर डोली। खड़ी फसल को पाला लीले। वन-उपवन भी दिखते पीले। जले अलाव शीत से लड़ते। शीत कोप से कैसे बचते। शीत कहर बड़ा अति भारी। ठिठुरती है प्रकृति सुकुमारी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

'अभि' की कुण्डलियाँ

चित्र
                 " वेणी"                  ****** वेणी गजरे से सजी, चंचल सी मुस्कान। कान्हा के उर में बसी,गोकुल की है शान। गोकुल की है शान,सभी के मन को मोहे। जैसे हीरक हार,रूप राधा का सोहे। कहती 'अभि' निज बात,प्रेम की बहे त्रिवेणी। दीप शिखा सी देह ,सजा के सुंदर वेणी।                " कुमकुम"                 ******* कुमकुम जैसी लालिमा,बिखरी है चहुँ ओर। जग जीवन चंचल हुआ,हुई सुनहरी भोर। हुई सुनहरी भोर,सजे हैं बाग बगीचे। जाग उठे खग वृंद,कौन अब आंखें मीचे। कहती 'अभि' निज बात,रहो मत अब तुम गुमसुम। सुखद नवेली भोर ,धरा पर बिखरा कुमकुम                  " कजरा"                   ******* भोली सी वह नायिका,चंचल उसके नैन। आनन पंकज सा लगे,छीने दिल का चैन। छीने दिल का चैन,आंख में काजल डाले। मीठे उसके बोल, हुए सब हैं मतवाले। कहती 'अभि' निज बात,चढ़ी है जब वह डोली। भीगे सबके नैन,चली जब पथ पे भोली।                  "गजरा"                 ******* चंचल चपला सी लली,खोले अपने केश। मुख चंदा सा

सड़कों का हाल

सड़कें मेरे देश की,कैसा इनका हाल। टूटी-फूटी ये रहे,लोग रहें बेहाल। लोग रहें बेहाल,गिरे गड्ढों में गाड़ी। मरते कितने लोग,बनी हैं जैसे खाड़ी। कहती अभि निज बात,चलो तो दिल है धड़के। लेती जीवन लील, बनी गड्ढा ये सड़कें। २ सड़कों का देखो सखी, बहुत बुरा है हाल। जनता धक्के खा रही, मरे किसी का लाल। मरे किसी का लाल, किसी के घर हैं उजड़े। नेता सुने न बात, हाल सड़कों के बिगड़े। कहती अभि निज बात, लगे अंकुश लड़कों पर। हुए निरंकुश देख, तेज वाहन सड़कों पर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दुविधा

 टूटे पँखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो आशा का घट हो जब रीता दुख में हर लम्हा है बीता। बंद हुए दिल के दरवाजे,कैसे तम फिर झीना हो। टूटे पंखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो। प्रेम की बातें जग न जाने,बस पैसे को अपना माने खड़ी अकेली बस मैं सोचूं,कैसे पार उतरना हो टूटे पंखों को लेकर के कैसे जीवन जीना हो। जीवन जैसे भूल भुलैया,बीच धार में जीवन नैया। मिला न कोई साथी ऐसा,इसका कौन खिवैया हो। टूटे पंखों को लेकर के,कैसे जीवन जीना हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

औकात

कठिन समय पर ही सदा,लगता है आघात। मित्र,बंधुवर की सदा,दिख जाती औकात। दिख जाती औकात,काट वे कन्नी जाते। संकट में जब जान,फटी वे जेब दिखाते। कहती अभि निज बात,पता चलता है पल-छिन। अपनों की पहचान, करा देता समय कठिन। सत्ता के पड़ फेर में,भूले अपनी औकात। सूली पर नित चढ़ रहे,जनता के जज्बात। जनता के जज्बात,फिरे वह मारी-मारी। भ्रष्टाचार अपार, करें कालाबाजारी। कहती अभि निज बात,वादे का फेंके पत्ता। भटके युवा समाज,लगे बस प्यारी सत्ता। आया कैसा वक्त ये,टूट रहे परिवार। स्वार्थ के पड़ फेर में, अपनों से ही रार। अपनों से ही रार,करें अपनी मनमानी। भार बने मां -बाप,बहे आंखों से पानी। भूल गए औकात,असल ये रूप दिखाया। अपना सुख बस याद,कैसा वक्त ये आया। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जलने लगे अलाव

जगह-जगह जलते अलाव घेर कर बैठे लोग। शीत ऋतु का प्रबल प्रकोप भोग रहें हैं लोग। लहू जमाती है हवा सूरज को लगती ठंड बच्चे बूढ़े कांप रहे जमें हुए हिमखंड जाति-धर्म भूलके घेरे बैठे हैं अलाव इससे बढ़िया और नहीं दुनिया में कोई ठांव चाय की हैं चुस्कियां चर्चाओं के दौर ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्हें कहीं नहीं ठौर दिन में धूप पहनते रात को ओढ़े अलाव दर-दर बेचारे भटकते सर्दी से खेलें दांव कैसा मेरा देश है सड़कों पे सोते लोग न जाने किनके कर्मों का दंड रहे हैं भोग। या व्यवस्था के मारे हैं ये लोग। अभिलाषा चौहान सादर समीक्षार्थ 🙏🌷

हालात पर कुंडलियां

सारा देश उबल रहा, बड़े बुरे हालात। कैसा ये अधर्म हुआ,लगा बहुत आघात। लगा बहुत आघात,समय कैसा है आया। बना युवा उद्दंड,देख के मन घबराया। नहीं रहा संस्कार,चढ़ा रहता है पारा। बाल-वृद्ध लाचार,देखा खेल जो सारा। जलती बेटी आग में ,कैसे ये हालात। नरभक्षी मानव बना,करे घात पर घात। करे घात पर घात,हवस का बना पुजारी। करता मीठी बात,बना तलवार दुधारी। कहे अपना खुद को,मुंह से लार टपकती। बहू हो या बेटी,देखी आग में जलती। बढ़ती जाती कीमतें,प्याज छुए आकाश। आम आदमी पिस रहा,जाए किसके पास। जाए किसके पास,सभी है मन के राजा। बुरे हुए हालात,बजा है उसका बाजा। उड़ी हुई है नींद, गृहस्थी कैसे चलती। कमर तोड़ती आज,नित मंहगाई बढ़ती। अभिलाषा चौहान सादर समीक्षार्थ 🙏🌷