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सब कुछ भूल रहा था

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल नेह हृदय कुछ बोल रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। अम्बर पर बदरी छाई थी, दुख की गठरी लादे भागे। नयनों से सावन बरसे था प्यासा मन क्यों तरस रहा था। खोया-खोया जीवन मेरा चातक बन कर तड़प रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। कस्तूरी को वन-वन ढूँढे, पागल मृग सा मेरा मन था। मृगतृष्णा में उलझा-उलझा कंचन मृग को तरस रहा था। खोया-खोया जीवन मेरा जीवन-धन को ढूँढ रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। धरती से लेकर अंबर तक, जिसको अपना मान लिया था। सच्चाई से मुख मोड़ा था, दुख की गठरी बाँध लिया था, थोड़ा-थोड़ा सुख जो पाया, कोई उसको छीन रहा था। तिनका-तिनका दुख में मेरे जैसे सब कुछ भूल रहा था। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

काल व्याल सा

काल व्याल सा खड़ा सामने करता पल-पल वार। कैसी विपदा आई मानव, प्रकृति खा रही खार। अपनी करनी से ही तूने विष प्रकृति में घोला। देती है संदेशा प्रतिपल, न बन इतना भोला। रूप बिगाड़ा उसका तूने कर ले ये स्वीकार। मानवता पर संकट आया, नयनों के पट खोल। नियमों का पालन अब कर ले, इधर-उधर मत डोल सुनी नहीं यदि तूने अब भी, समय की ये पुकार। मनमानी क्यों करता फिरता, क्या है तेरे पास। खोल पिटारा बैठा यम है, नित हो रहा विनाश। जीवन बंदी घर के अंदर, होती तेरी हार।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक