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अगस्त, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यह बस एक भ्रम है

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जीवन का सच समझ लिया है मैंने यह बस एक भ्रम है इसके सिवा कुछ भी नहीं हम इसे पकड़े है दोनों हाथों से फिर भी कहां पकड़ पाते हैं एक झटके में सपने टूटते जाते हैं अपने छूट जाते हैं भ्रम में भटकते माया में उलझते सत्य से विमुख हो जाते हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक रचे इस मायाजाल में उलझे किसी बेबस जीव सम मुक्ति की तलाश में फड़फड़ाते हम और उलझते जाते हैं यह उलझना समस्याएं बढ़ाता है न मिलता समाधान न सत्य नजर आता है। बस एक चक्रव्यूह जिसमें फंसे हम न जीवन को जी पाते हैं न मृत्यु से भाग पाते हैं।

कीमो एक अनुभव

आज-कल मुझे अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं,क्योंकि मेरी मां को कैंसर हुआ है और उनकी कीमोथेरेपी चल रही है। मैं एक जीवन को बचाने की जद्दोजहद में लगी हूं। आपको यह सब बता रही हूं,इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि मैं अपना दुखड़ा आपसे रो रही हूं,बल्कि वहां जो अनुभव मुझे हुआ,उसे आपसे बांटना चाहती हूं। मैंने वहां जाकर देखा कि जिंदगी की कीमत क्या है?? और कितनी बेवस है जिंदगी हर तरह के कैंसर से पीड़ित लोग,दर्द सहते,मौत से लड़ते और कीमो कीे असहनीय तकलीफ को झेलते,कराहते, बस एक आस लिए कि शायद...। कीमो सिर्फ कैंसर पीड़ितों की नहीं होती बल्कि उनके परिजनों की भी होती है। अपनों की जिंदगी बचाने के लिए बेकरार भागते-दौड़ते,कराहते मरीजों के बीच पता चलता है कि जिंदगी का क्या मोल है?? एक ओर चलती है जिंदगी की जद्दोजहद और दूसरी ओर मानव इसी ज़िंदगी को किस तरह जहन्नुम बनाता है। मैं वहां बैठे-बैठे यही सोचती रहती हूं।जो आदमी मृत्योन्मुख होता है,उसे बचाने की हर संभव कोशिश और जो जीना चाहता है,खुश रहना चाहता  है,उसे मृत्यु-मुख में ढकेलने की कोशिश!! यह फलसफा मेरी समझ से परे है। मेरे कहने का मत

सुन्दर तस्वीर सी... जिंदगी

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सुंदर तस्वीर सी यह जिंदगी, सुख-दुख के रंगों से सजी, प्रेम पुष्पों से खिली! त्याग का रंग भरे, समर्पण के भाव भरे! कभी क्रोध की ज्वाला से, कभी नफरत की आंधी से, कभी आने वाली विपदा से, कभी कठिन परीक्षा से, बदलते इसके रंग हैं!! कभी यह तस्वीर , हो जाती है बदरंग!! फिर भी दिखाती है, जिंदगी का आईना! अपनों का धोखा, स्वार्थ के जाल, रिश्तों के मुखौटे, पनपते बैर भाव, एक झटके में, खोल देते हैं आंखें!! तस्वीर हो जाती है भयावह, फिर आहिस्ता-आहिस्ता..., बंजर जमीन पर, होते हैं अंकुरित, भावनाओं के बीज!! बिखरते इंद्रधनुषी रंगों से, बन जाती है , खूबसूरत सी तस्वीर!! ये जो है ज़िंदगी!!

बस तस्वीर में रह गए तुम

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बस तस्वीर में रह गए तुम, रह गई यादें.. जो उमड़ती है, देख तस्वीर तुम्हारी, या यादों के आते ही, देख लेती हूं तस्वीर तुम्हारी !! बस रह गए मुट्ठी में... बीते लम्हें, वो प्यार, वो नोंक-झोंक, वो बचपन, वो रेशमी बंधन, वो मुस्कान, जो खेलती थी चेहरे पर.. तुम्हारे !! ये अमिट तस्वीर संजोए , दिल के किसी कोने में, यादों के बिछोने में, बन रही है एक और तस्वीर!! जिसमें बसा है प्रेम, वो अटूट बंधन, वो साथ पलछिन का, जीना भी उसके संग, रंगना उसी के रंग, बस तुम नहीं हो! पर हर पल यहीं हो!! मेरी यादों में, मेरी जिंदगी में, जो बन गई है जैसे, तस्वीर तुम्हारी!! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अनूठी मिसाल

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भारतीय वायुसेना के गरूण कमांडो ज्योति प्रकाश निराला पूरे एक साल बाद एक महीने की छुट्टी पर घर आए थे। माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था और बहनें तो भाई के आगे-पीछे घूम रहीं थीं,चार बहनों का एक अकेला भाई परिवार का कर्ता-धर्ता.. माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी.... सेवाभावी...स्वभाव से मृदुल..सबका ध्यान रखने वाला देशभक्ति से लबरेज बेटे के आने से मानों परिवार में खुशियां बरस पड़ी थी। इन खुशियों में चार चांद तब लग गए,जब छोटी बहन का रिश्ता तय हुआ। विवाह तय होते ही परिवार में विवाह की तैयारियों को लेकर चर्चा शुरू हो गई। ज्योति कहता..देखना पिताजी कैसे धूम-धाम से करता हूं सरला की शादी....दीदी की शादी में ,मैं छोटा था..। लेकिन अब मैं जिम्मेदार हूं और ऐसी शादी करूंगा सरला की...सारा गांव देखता रह जाएगा। देखते-देखते एक महीना बीत गया था.. छुट्टियां खत्म हो रहीं थीं..दिन पंख लगा कर उड़ गए थे...विवाह में तीन माह शेष थे..फिर जल्दी आने की बात कह कर ज्योति ड्यूटी पर जम्मू -कश्मीर चला गया। वह वायुसेना के द्वारा संचालित आपरेशन रक्षक का अहम सदस्य था। १८ नबंबर २०१७  को आतंकवादियों से चंद्रगढ

बने ये दुनिया सबसे प्यारी

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जन्म जन्म का नाता साथी, जैसे हो हम दीपक बाती। बनके चलूं मैं तेरी परछाई, ए मेरे हमदम ऐ मेरे साथी। दुख सुख मिलकर साथ सहेंगे, पग-पग हम साथ चलेंगे। रहे अमर ये नाता हमारा, हर संकट से मिलकर लड़ेंगे। ये जीवन का सफर सुहाना, तेरा मेरे जीवन में आना। जैसे उतरा चांद जीवन में, महका गुलशन था जो वीराना। ये सुंदर सा अपना आंगन कितना प्यारा है मनभावन। कितने फूल खिले नातों के, जिनसे महका अपना जीवन। आओ मिलकर सींचे ये फुलवारी, प्रेम की खाद डालें-क्यारी-क्यारी। मतभेदों के शूल हटा दें, बने ये दुनिया सबसे प्यारी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

शर्तों से घिरा जीवन

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कैसी-कैसी शर्तें लगाते हैं लोग जिंदगी को दांव पर लगाते हैं लोग। फकत मुट्ठी भर खुशियों की होती तलाश खुशियों के लिए ही तरसते हैं लोग। कैसे करें पूरी जिंदगी की जरूरतें, जरूरतों के लिए शर्तें निभाते हैं लोग। हर कोई यहां लगाता है शर्त, बिना शर्तों के कहां जीवन जीते हैं लोग। बड़े से बड़े काम होते  शर्त से, घर और बाहर आदमी जूझता शर्त से मानो अगर शर्त तो काम बन जायेंगे बिगड़ता बहुत कुछ टूटती शर्त से। सदियों से चली आ रही परंपरा है ये हर युग की कहानी लिखी गई शर्त से विवशता बनी कभी, बनी जीवन का ध्येय पर हारे न जीवन कोई ,कभी शर्त से। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

घिरे थे जो बादल

घिरे थे जो बादल, वो छंटने लगे हैं। तने थे वे ऐसे, कि निकले न सूरज। सूरज के तेवर से, डरने लगे हैं। छाए थे बादल, बीते कितने वर्षों से। घुटने लगा था, घाटी का दम भी। उजड़ती गई थी, रौनकें वहां की। बनके आतंक , बरसते थे बादल। लहू का रंग से, रंगे थे ये बादल। बरसते थे ओले, बम और गोलियों के। कुटिल चालों से काले, रहे थे ये बादल। कीचड़ ही कीचड़, हुई हर गली थी। सुकून की कली कब, वहां खिली थी। चमका जो सूरज, डरे थे ये बादल। घाटी से अब तो, छंटेंगे ये बादल। खुशियों के फिर से, बरसेंगे बादल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक घाटी से अब तो, छंटेंगे ये बादल।

भीगने का मौसम आया है।

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सावन का महीना आया है, मेघों ने रस बरसाया है। चलो मिलकर हम चलते हैं, भीगने का मौसम आया है। वर्षा की रिमझिम फुहारों ने, छेड़ा है मन के तारों को। उमड़ कर प्रेम आया है, भीगने का मौसम आया है। ये ऋतु बड़ी सुहानी है, हर ओर पानी ही पानी है। मन मेरा फिर हरषाया है, भीगने का मौसम आया है। नाचते मोर बागों में, पपीहा तान छेड़े हैं। कोयल ने सुर लगाया है, भीगने का मौसम आया है। बना के कागज की कश्ती, तैरा दें बहते पानी में। बचपन फिर याद आया है, भीगने का मौसम आया है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दम तोड़ती मेंहदी

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कितने सपने और अरमानों से, हाथों में रचाके मेंहदी  ।  बेटी बनती है दुल्हन, छोड़ बाबुल का घर, तब पाती है साजन। जलती है दहेज की आग, जल जाती हैं मेंहदी। कभी पिटती कभी सिसकती, कभी अरमानों की राख में, दम तोड़ती है मेंहदी। सीमा पर चलती गोली, खेली जाती खून की होली, तब कितनी ही दुल्हनों की, उजड़ जाती है मेंहदी। छलकते जामों में, रोज मयखानों में, अपने आपको को, लुटते देखती है मेंहदी। टूटते रिश्तों में, स्वार्थ की भट्टी में, अंधविश्वास और रूढ़ियों में, मर ही जाती है मेंहदी। अनियंत्रित वाहनों से, होती हैं दुर्घटनाएं, बिखरते हुए लहू में, कुचल जाती है मेंहदी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक