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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बोलता है ये तिरंगा

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प्राण पण से जूझता नित वीर अर्पित कर जवानी शौर्य गाथा देख उसकी आज हमको है सुनानी।। बेड़ियों ने श्वांस जकड़ी चीख घुटती कह रही थी रक्त पानी बन गया जब पीर हर जन ने सही थी बोलता है ये तिरंगा फिर हुतात्मी सी कहानी।। आँख में अंगार धधका आग सीने में लगी जब हाथ में ले प्राण अपने शेर सा हुंकारता तब शत्रुओं को ही पड़ी थी बार-बार मुँह की खानी।। रंग बसंती मन लुभाए भाल पे रज है सुहाती देश है परिवार उनका देश उनकी देख थाती भारती की अस्मिता पे वार दी अपनी जवानी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

ये भारत के वीर

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प्राण हथेली पे लिए चौकस रहते वीर गर्मी बर्षा शीत में होते नहीं अधीर। हर्षित मात वसुंधरा पाकर ऐसे रत्न अरिदल चकनाचूर हो करते ऐसे यत्न शौर्य शक्ति के पुंज ये जैसे गंगा नीर। शोभित है इनसे धरा चमकें बनकर सूर्य शेरों सी हुंकार से बजे विजय का तूर्य। त्याग समर्पण भाव से हरते जन की पीर। हिमगिरि की हों चोटियाँ या हो तपती रेत आएँ कितनी आंधियाँ रहते सदा सचेत देश-प्रेम के गीत हों और बसंती चीर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

याद ने फिर छवि उकेरी

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पुष्प सा तन आज महके भ्रमर छेडें राग भेरी धूप आँगन खेलती सी याद ने फिर छवि उकेरी। मोर सा मन नाचता है सुन रहा आहट किसी की प्रेम का प्यासा पपीहा कर रहा चाहत उसी की फिर महावर मेंहदी ने बन खुशी खुशबू बिखेरी। चाँद द्वारे पर खड़ा है साथ तारे बन बराती चाँदनी की ओढ़ चूनर प्रीत बदली घिरी आती महकती जूही अकेली रात ढलती अब अँधेरी। और सौरभ बह उठा फिर प्राण खिलते आज ऐसे मौन छेड़े रागिनी अब बज उठे सब साज जैसे खेलता सुख आज आँचल पीर बहती है घनेरी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

वो कली मासूम सी

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बेड़ियों ने रूप बदले रख दिया तन को सजाकर वो कली मासूम सी जो देखती सब मुस्कुराकर। शूल बोए जा रहे थे रीतियों की आड़ में जब खेल सा लगता उसे था जानती सच ये भला कब छिन रहा बचपन उसी का पड़ रहीं थीं सात भाँवर।। छूटता घर आँगना अब नयन से नदियाँ बहीं फिर हाथ में गुड़िया लिए वह बंधनों से अब गई घिर आज नन्हें पग दिखाएँ घाव सा छिपता महावर।। बोझ सी लगती सदा है बेटियाँ क्यों है पराई मूक रहती और सहती ठोकरें और मार खाई वेदना का घूँट पींती क्या मिला सबकुछ गँवाकर।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

बोती हूँ नित रातों को

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कोमल तन है निश्छल मन है सहती जग की बातों को पग-पग पर दी अग्निपरीक्षा झेल झेल आघातों को। रीति नीति मर्यादा पालन खींच रखी लक्ष्मण रेखा चीर खींचते आज दुशासन तार-तार आँचल देखा दुष्कर्मों के चुभते कंटक सुनती झूठी बातों को।। दो-दो घर के बीच उछालें जैसे कोई कंदुक हो मरते मन में दबी कामना ज्यूँ वह कोई संदुक हो अर्धविश्व की बनी स्वामिनी बुनती कितने नातों को।। घर की चौखट लील रही अब आँसू पीकर जीती हूँ फटी हुई सपनों की चादर निशदिन उसको सीती हूँ अपने दुख पर सुख औरों के बोती हूँ नित रातों को।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

देख युद्ध जब ठहर गया

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रणभूमि सा बना ये जीवन स्वार्थ हृदय में लहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। लोलुपता जब मन पर हावी मार्ग पतन के खुल जाते सद्गुण सारे होम हुए तब नीति-न्याय कब बच पाते मन में रावण-राम लड़े जब संकट फिर से गहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। अपनी-अपनी रेखा खींची खाई और बनी गहरी बंद कपाटों पर फिर आकर चीख किसी की कब ठहरी मानवता ने भरी सिसकियाँ दानव का ध्वज फहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। राख भले ही ठंडी हो पर रहती उसमें चिंगारी आशा मन में क्षीण शेष हो सच्चाई फिर कब हारी तीरों की टंकार सुनिश्चित देख युद्ध जब ठहर गया घृणा-द्वेष की बसती बस्ती प्रेम युक्त वह पहर गया।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' सादर समीक्षार्थ

बिंब कोई था पुराना

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झाँकता है जब घरों में याद का मौसम सुहाना खेलते थे सुख जहाँ पर प्रेम से मिलना मिलाना। दीमकें ऐसी लगी फिर नींव ही हिलने लगी थी द्वेष दीवारें बना जब दूरियाँ मन में जगी थी बोझ बनते इन पलों को चाहते थे सब भुलाना। चीखते थे प्रश्न कितने और उत्तर ही नहीं थे आँख मूँदे सत्य से सब भागते फिरते कहीं थे पूछता दर्पण अकेला बिंब कोई था पुराना।। धूल छाई प्रीत पर तब जाल माया ने बिछाया स्वार्थ ने तोड़ा हृदय जब रास फिर कुछ भी न आया आग सुलगी लीलती सब कौन जाने फिर बुझाना।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

पीर आँचल में समेटी

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लाज की गठरी लुटी जब पीर आँचल में समेटी घाव तन-मन पर लिए वह कंटकों की सेज लेटी। देखती है स्वप्न कितने टूटते नित काँच से जो गात कोमल फ़ूल जैसा जल रहा नित आँच से जो आँख में सागर समेटे प्यास जिसने रोज मेटी।। कौन समझे पीर उसकी झेलती है दंश कितने नाम देवी के रखे पर मान के सब झूठ सपने साथ चलती है उपेक्षा और खुशियाँ बंद पेटी।। छीनते अधिकार सारे भाग्य के बनके विधाता नोचते हैं पंख उसके सोच में कीचड़ समाता कल्पना ही नाचती है धार दुर्गा रूप बेटी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आग सी मन में लगी है

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याद की बदली घिरी जब प्यास सी मन में जगी है। भीड़ में सब हैं अकेले प्रेम के सब स्त्रोत सूखे भावनाएँ मर चुकी हैं बोलते हैं बोल रूखे देखकर ये चाल शहरी आग सी मन में लगी है याद की बदली.........।। धान के वे खेत प्यारे भोर होते गीत गाते पनघटों पे कंगनों के राग कैसे गुनगुनाते गंध सौंधी टिक्करों की आज भी मन में पगी है याद की बदली.........।। प्रीत की नदियाँ सुहानी बाँटती थी पीर सबकी बात करते आँगनों में रोज खुशियाँ थी बरसती स्मृति पटल पर गाँव की वो फिर गली छाने लगी है याद की बदली.............।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

है नवल जीवन सवेरा

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धुंध अब छँटने लगी है लालिमा संदेश लाई राह भी दिखने लगी है आस किरणें जगमगाई। टूटती सब श्रृंखलाएँ जागते मन भाव ऐसे फूटते अंकुर धरा से हर्ष से जो झूमते से नींद से अब जागती सी ये सुबह नवरीत लाई।। सत्य का अब सूर्य चमका कालिमा है मुँह छिपाए भाव जो सोए हुए थे आज फिर से गुनगुनाए। कल्पना ने पंख खोले प्राण वीणा झनझनाई।। रागिनी अब गूँजती सी झूमता मन आज मेरा जीतता विश्वास बोला हैं नवल जीवन सवेरा आज खुशियाँ दीप बनके द्वार मेरे झिलमिलाई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक