बोती हूँ नित रातों को




कोमल तन है निश्छल मन है

सहती जग की बातों को

पग-पग पर दी अग्निपरीक्षा

झेल झेल आघातों को।


रीति नीति मर्यादा पालन

खींच रखी लक्ष्मण रेखा

चीर खींचते आज दुशासन

तार-तार आँचल देखा

दुष्कर्मों के चुभते कंटक

सुनती झूठी बातों को।।


दो-दो घर के बीच उछालें

जैसे कोई कंदुक हो

मरते मन में दबी कामना

ज्यूँ वह कोई संदुक हो

अर्धविश्व की बनी स्वामिनी

बुनती कितने नातों को।।


घर की चौखट लील रही अब

आँसू पीकर जीती हूँ

फटी हुई सपनों की चादर

निशदिन उसको सीती हूँ

अपने दुख पर सुख औरों के

बोती हूँ नित रातों को।।


अभिलाषा चौहान

स्वरचित मौलिक


टिप्पणियाँ

  1. नारी मन की अंतर व्यथा कथा को बहुत ही सहजता से अभिव्यक्त करता गीत अभिलाषा जी। हार्दिक शुभकामनाएं ।

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    उत्तर
    1. रचना के मर्म को समझने के लिए सहृदय आभार सखी 🌹 सादर

      हटाएं
  2. घर की चौखट लील रही अब

    आँसू पीकर जीती हूँ

    फटी हुई सपनों की चादर

    निशदिन उसको सीती हूँ

    अपने दुख पर सुख औरों के

    बोती हूँ नित रातों को।।
    ..अंतर्मन के मनोभावों को व्यक्त करती हृदय स्पर्शी कृति..

    जवाब देंहटाएं
  3. अपने दुख पर सुख औरों के
    बोती हूँ नित रातों को।

    –उम्दा भावाभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बहुत सुन्दर गीत ।बधाई भी शुभ कामनाएं भी ।

    जवाब देंहटाएं

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