बोती हूँ नित रातों को
कोमल तन है निश्छल मन है
सहती जग की बातों को
पग-पग पर दी अग्निपरीक्षा
झेल झेल आघातों को।
रीति नीति मर्यादा पालन
खींच रखी लक्ष्मण रेखा
चीर खींचते आज दुशासन
तार-तार आँचल देखा
दुष्कर्मों के चुभते कंटक
सुनती झूठी बातों को।।
दो-दो घर के बीच उछालें
जैसे कोई कंदुक हो
मरते मन में दबी कामना
ज्यूँ वह कोई संदुक हो
अर्धविश्व की बनी स्वामिनी
बुनती कितने नातों को।।
घर की चौखट लील रही अब
आँसू पीकर जीती हूँ
फटी हुई सपनों की चादर
निशदिन उसको सीती हूँ
अपने दुख पर सुख औरों के
बोती हूँ नित रातों को।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत सुंदर गेय रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंनारी मन की अंतर व्यथा कथा को बहुत ही सहजता से अभिव्यक्त करता गीत अभिलाषा जी। हार्दिक शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंरचना के मर्म को समझने के लिए सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
हटाएंघर की चौखट लील रही अब
जवाब देंहटाएंआँसू पीकर जीती हूँ
फटी हुई सपनों की चादर
निशदिन उसको सीती हूँ
अपने दुख पर सुख औरों के
बोती हूँ नित रातों को।।
..अंतर्मन के मनोभावों को व्यक्त करती हृदय स्पर्शी कृति..
सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
हटाएंअपने दुख पर सुख औरों के
जवाब देंहटाएंबोती हूँ नित रातों को।
–उम्दा भावाभिव्यक्ति
सहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर गीत ।बधाई भी शुभ कामनाएं भी ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत खूबसूरत कृति
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
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