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नेह कली मुरझाती है।

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विरह वेदना बदली बनकर हृदय गगन में छाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है।। सूने से इन नयनों से जब पीड़ा छलके गगरी सी बुनती हूँ सपनों के जाले उलझी-उलझी मकड़ी सी रंग नहीं कोई जीवन में रजनी घिर कर आती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह-------------------।। धूप समान सुलगता ये तन  भाव सुलगते अंगारे वनवासी सा प्रेम हुआ है गए साथ हैं सुख सारे स्मृतियों के कानन में जैसे हिरनी राह न पाती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह------------------।। मंथन मन का करते-करते गरल हाथ में आया है पीकर प्यास बुझेगी कैसे हृदय बहुत घबराया है झोली भरकर कंटक पाए नेह कली मुरझाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह--------------------।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

शून्य होते भाव सारे

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शून्य होते भाव सारे प्राण को कैसे जगाऊँ शब्द भी निश्चल पड़े हैं अर्थ से कब बाँध पाऊँ।। घोर छाई है निराशा लेखनी भी रो रही है आस की उजली किरण को ढूँढती सी वो कहीं है व्याकरण उलझा हुआ सा छंद कैसे छाँट लाऊँ।। यह अधूरा ज्ञान कैसा प्यास कैसी ये जगी है बिंब भूले राह अपनी बात कब ये रस पगी है लक्ष्य का संधान कर लूँ   नीड़ कविता का सजाऊँ।। नव प्रतीकों को गढ़े पर क्षीणता कब भेद पाए कल्पना मरती हुई सी जब नयन प्रज्ञा चुराए टूटती सी लय कहे अब हार को माथे लगाऊँ।। अभिलाषा चौहान

आ गए ऋतुराज फिर से

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आ गये ऋतुराज फिर से प्रीत पायल छनछनाए झूमती वसुधा प्रफुल्लित हाथ कंगन खनखनाए।। काननों में मोर नाचे कोंपले फिर लहलहाई फूलती सरसों बसंती हरितिमा ले अंगड़ाई आ गया मकरंद देखो राग कोयल ने सुनाए।। वृक्ष से लतिका लिपटकर हर्ष से जब झूम उठती ओस की बूँदें धरा पर तृण-तृण को चूम उठती फिर कली महकी वहाँ पर गीत भँवरा गुनगुनाए।। फूलते टेसू लगे यों दहकते हों आग से वन प्रेम लेता फिर हिलोरें तीर सा छोड़े जब मदन घुल उठा सौरभ पवन में गात सबके झनझनाए।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अंबर का फटता सीना

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देख धरा की पीर भयंकर अंबर का फटता सीना प्यासी नदियों की आकुलता सागर का आँसू पीना।। तोड़ बही तटबंधों को जब धाराधर की ये धारा कृत्रिमता को रोंद रही फिर जीवन बंदी है कारा स्वार्थ बहे मिट्टी के जैसा हुआ अहम का पट झीना।। जल प्लावन सब तोड़ रूढियाँ धोता जग के पापों को मानवता फिर भोग रही है दानवता के शापों को बीच भँवर में डोले नैया अपना हक उसने छीना।। ढहते पर्वत लिखें कहानी मानव की मनमानी की मृत ठूँठों ने हँसी उड़ाई दिखे न चूनर धानी सी तैर रहे सपनों को पकड़े मरना सरल कठिन जीना।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

और कितना भागना है

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भाव मन के मर चुके हैं और कितना भागना है चित्त भय कंपित हुआ है और कितना साधना है।। मोह का जंजाल ऐसा जाल पंछी फड़फड़ाए काल का आघात कैसा प्राण जिसमें भड़भडाए सूखता हिय का सरोवर प्रेम किससे माँगना है।। झेलते लू के थपेड़े छाँव ढूँढे ठूँठ नीचे शूल पग को छेदते हैं देखते सब आँख मींचे ये छिदा तन बींध डाला और कितना बाँधना है।। बैठ कर नदिया किनारे प्यास से जब बिलबिलाए हाथ में बस रेत आई क्रोध से फिर तिलमिलाए लक्ष्य ओझल हो चला है और सागर लाँघना है।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

बँधी रीतियों में ये ललना

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बँधी रीतियों में ये ललना शीश भार सबका धरती दो-दो घर करती उजियारा पीर सदा सबकी हरती।। अधरों पर वह मौन बसाती शून्य बने सपने उसके अपने सपने बाँध पोटली देख छुपाकर वह सिसके भूल गई जीवन को जीना बस चूड़ी खन-खन करती।। दाँव लगाती जीवन अपना भार सृजन का लेती है आँचल में संसार बसाती कितना कुछ वह देती है पहन वर्जनाओं की चुनरी संयम से पग को धरती ।। अर्द्धविश्व की रही स्वामिनी पथ में कंटक ही पाए पल-पल सहती है उत्पीड़न और वेदना तड़पाए बनी बेडियाँ ये पायल हैं फिर भी छम-छम हैं करती।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मूक हुई आवाजें

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चलें दोहरी चालें सत्ता फंदा नित कसती बेबस सी ये जनता दो पाटों में ही पिसती। तेल नौन सब फीके दाल दूर है थाली से फोड़ रहा है माथा जूझ रहा बदहाली से बढ़ा रेल का भाड़ा दिल्ली निर्धन पर हँसती।। आंखों के सब सपने हैं दूर गगन के तारे खाली खाली जीवन सब चिंताओं के मारे घुन सा लगता तन में ये भूख कील सी धँसती।। कठपुतली बनते सब आँख मूँद सच्चाई से मूक हुई आवाजें बढ़ती इस मँहगाई से जाल बुना मकड़ी सा खुशियाँ जिसमें हैं फँसती।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक