बँधी रीतियों में ये ललना


बँधी रीतियों में ये ललना

शीश भार सबका धरती

दो-दो घर करती उजियारा

पीर सदा सबकी हरती।।


अधरों पर वह मौन बसाती

शून्य बने सपने उसके

अपने सपने बाँध पोटली

देख छुपाकर वह सिसके

भूल गई जीवन को जीना

बस चूड़ी खन-खन करती।।


दाँव लगाती जीवन अपना

भार सृजन का लेती है

आँचल में संसार बसाती

कितना कुछ वह देती है

पहन वर्जनाओं की चुनरी

संयम से पग को धरती ।।


अर्द्धविश्व की रही स्वामिनी

पथ में कंटक ही पाए

पल-पल सहती है उत्पीड़न

और वेदना तड़पाए

बनी बेडियाँ ये पायल हैं

फिर भी छम-छम हैं करती।।



अभिलाषा चौहान

स्वरचित मौलिक



टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-02-2021) को "विश्व प्रणय सप्ताह"   (चर्चा अंक- 3970)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    "विश्व प्रणय सप्ताह" की   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --

    जवाब देंहटाएं
  2. अर्द्धविश्व की रही स्वामिनी
    पथ में कंटक ही पाए
    पल-पल सहती है उत्पीड़न
    और वेदना तड़पाए
    बनी बेडियाँ ये पायल हैं
    फिर भी छम-छम हैं करती।।

    बहुत सुंदर यथार्थपरक रचना ...🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
  3. बनी बेडियाँ ये पायल हैं

    फिर भी छम-छम हैं करती।।

    बहुत खूब,सुंदर सृजन सखी

    जवाब देंहटाएं
  4. अति सुंदर और यथार्थ से भरा हुआ नारी का चित्रांकन

    जवाब देंहटाएं

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