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जून, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आई बारिश (तांका विधा)

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आई बारिश खिल उठी प्रकृति झूमे गगन मगन हुई धरा हर्षा जनजीवन। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" मेघ मल्हार कोयल छेड़े राग नाचे मयूर पपीहे की पुकार बारिश की फुहार। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" बारिश आई खुशहाली है छाई सौभाग्य लाई हर्षित हैं किसान कृषि का वरदान। """"""""""""""""""""""""""""""""""""" हिले धरती फटते हैं बादल हो भूस्खलन बारिश की आपदा प्रकृति है कुपित। """""""&qu

पालकी (वर्ण पिरामिड)

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        है       सजी      पालकी     फूलों लदी    होगी विदाई   हुआ कन्यादान   बेटी बनी दुल्हन। //////////////////////////////////////////////////                          लो                         उठी                       पालकी                     शुरू यात्रा                     छूटा संसार                  उड़ा प्राण पंछी                  रह गया पिंजर। //////////////////////////////////////////////////         है       दृश्य      सुन्दर    सोती धरा   खिली चांदनी   चंद्रमा विराजे बादलों की पालकी //////////////////////////////////////////////////                         ले                        हर्ष                       हिलोर                      तन-मन                    मोहिनी छवि                 फूलों की पालकी                  विराजें नंदलाला। ////////////////////////////////////////////////// अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक चित्र गूगल से साभार

इंसानियत ही रीढ़ है...

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इंसानियत ही रीढ़ है, इस मानव समाज की। होते हैं ऐसे लोग भी, जो बचाते मानवता की लाज भी। जिनके दम से ये समाज, सिर उठाकर जी रहा। जो स्वयं गरल नीलकंठ , बन के है पी रहा। उन्हीं के दम पर अब भी, ये समाज आगे बढ़ रहा। थोड़ा सुकून मन में है, कहीं तो इंसान पल रहा। बिगड़ते इस दौर में, लगा मानवों का  मुखौटा। हैवान अपनी हैवानियत से, इंसानियत को छल रहा। युगों-युगों से ये कहानी, चलती चली आ रही। कोई बना कंस तो , कोई दुर्योधन बन रहा। जोंक बनकर ये असुर, इंसानियत का रक्त चूसते। दुर्बल भले ही हो जाए, मैंने देखा इंसानियत को जूझते। कलंकित करते हैं जो , मानवों के नाम को। ऐसे नरपिशाचों का, समाज में न स्थान हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित, मौलिक 

मानवता की मौत

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मासूम बेटी मां-बाप का खिलौना भोगती दंड असह्य अत्याचार मानवता की मौत। ************** झाड़ी में शिशु रोता औ बिलखता कुत्ते नौंचते भीड़ देखे तमाशा मानवता की मौत। ************** मदद मांगें दुर्घटना से ग्रस्त पत्थरदिल खींचते हैं तस्वीरें मानवता की मौत। ************** राह चलते मनचलों की आंखें भेदती तन सहमी-सहमी सी बेटियों की जिंदगी ************** वृद्ध लाचार मांगें भिक्षा राहों में बेघरबार वृद्धाश्रम आश्रय निकृष्ट हैं संतान। ************** बच्चे लापता होता अपरहण मांगते भिक्षा बेटियां बेचे तन निष्ठुर मानवता। ************** नशे की लत बरबाद हैं घर नित हो क्लेश पड़ता है असर बच्चे कुंठा से ग्रस्त। *************** अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

नया उजाला भर आएं

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चलो कुछ नया काम कर जाएं, डूबे हैं जो अंधेरों में। जीवन उनके उजालों से भर जाएं। नहीं पहुंचा जहां तक आज, उजाला शिक्षा का देखो। चलो इक दीप ज्ञान का, वहां जाकर जला आएं। अभी तक हैं जो अंधेरों में, समझते बोझ बेटी को। पढ़ाते न न लिखाते हैं, मारते गर्भ में उसको। चलो उनके दिलों में, प्रीत बेटी की जगा आएं। कराते बच्चों से मजदूरी, मंगवाते भीख हैं उनसे। चलो उनके दिलों में, एक नया उजाला भर आएं। गरीबी के अंधेरों में, डूबे हैं घर जिनके देखो। आंसुओं को पीकर बुझाते , प्यास अपनी हर पल जो। चलो कुछ सुख के पल, उनको महसूस करा आएं। मिटा दें दिल से ऊंच-नीच की, खड़ी हैं ये जो दीवारें। मिटा दें दिल के अंधेरों को उजाले दिल में भर आएं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

उजाले तेरी यादों के

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                          उजाले तेरी यादों के,                सदा रहते मेरे मन में। कमी खलती बहुत तेरी, है खालीपन जीवन में।              छटपटाती कभी जब मैं,             तेरी यादों की किरण कोई। दिलाती आस मुझको है, कि तू हर पल है जीवन में।                रातों के घने अंधेरों में,                तन्हाई बड़ी सताती है। तभी इक टूटते तारे की, चमक कुछ याद दिलाती है।                 गया जो इस जहां से है,                 वो दिल से गया कहां है। तू तन्हाईयों में अकेली, क्यों आंसू बहाती है।                 दे गया है तुझे वो प्रेम का,                  प्रतिदान कुछ ऐसा। जिससे दुख के अंधेरों में, किरण उजाले की मुस्काती है।                 न खो इस तरह तू कभी भी,                 खुद को भूलती जाए। सहेजती चल उजालों को, कि नई इक भोर आती है।                जिया जो साथ में जीवन,                खेलें बचपन में थे जो खेल। मौत में भी कहां ताकत जो उन्हें छीन पाती है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

ये दुनिया एक छलावा

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ये भौतिक चकाचौंध ये चमकती दुनिया है एक छलावा; कहां देती है ये मानसिक तृप्ति; कहां मिलता इसमें आत्मिक आनंद! कहां है इसमें स्वजनों का स्नेह! बस छल ही छल ? भागता रहता ताउम्र, इंसान बुझाने अपनी प्यास! यह मृगमरीचिका भटकाती-उलझाती; स्वर्ण मृग को पाने की चाह, सदियों से उसे छलती जाती। साम-दाम-दंड-भेद से पाना चाहता वह तमाम सुख; ये सुख-सुविधाएं, छलती उसे निरंतर! इनमें डूबता-उतराता, भागता निरंतर; बस मिलता उसे, यांत्रिक जीवन; मशीन बनकर! कमाने-खाने में निकली उम्र; विपत्ति में रह जाता अकेला, तब समझ आता, कि ये दुनिया है छलावा; जहां साथ सब है स्वार्थवश! पर हर कोई है अकेला, अपनी पीड़ा को' खुद ही पीता!! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हटा लो अब ये पर्दा

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पड़ा है आंखों पर पर्दा, एक दिन उठ ही जाएगा। मिटा के प्रकृति को मानव, तू भी बच न पाएगा। वृक्षों को काटता निशिदिन, लगाता एक न पौधा। तेरी करनी से इकदिन, ये चमन उजड़ ही जाएगा। मिटा दी हरियाली तूने, खड़े अब कंक्रीट के जंगल। तोड़ डाले पर्वत तूने, खड़े किए कचरे के पर्वत। उजड़ती इस धरा की पीर, जब तक तू समझ पाएगा हो चुकी होगी तब देर कुछ भी बच न पाएगा। हटा लें आंखों से पर्दा, हकीकत को समझ ले तू। प्रकृति के बिना तू भी, जीवित न बच पाएगा। सूखती नदियों की पीड़ा, बढ़ाती प्यास धरती की। धरा का जल जो सूखा, तो कल तेरा बच न पाएगा। भूल बैठा माया में तू हकीकत क्या है जीवन की हटा लें अब तो ये पर्दा तभी ये कल बच पाएगा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सांस्कृतिक प्रदूषण

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प्रदूषण वाणी का बढ़ाता द्वेष जीवन में मचता क्लेश टूटते रिश्ते-नाते घुल जाता घृणा का विष संयम वाणी पर है अति आवश्यक ईर्ष्या,निंदा,घृणा की भेंट जब होता संयम होता महाभारत शिष्टता ,शालीनता का होता अंत बड़े-छोटे का मिटता अंतर भूल कर सब सीमाएं रचते महाभारत। सांस्कृतिक प्रदूषण से होता संस्कृति का अंत होता परंपराओं का उल्लंघन अमर्यादित होता आचरण आधुनिकता की अंधी दौड़ में भूल भारतीय संस्कृति की महानता मार रहे अपने पैरों पर कुल्हाडी दो नावों पर हो सवार करना यात्रा सदैव होता खतरनाक विषैले विचार सदैव उत्पन्न करते मानसिक प्रदूषण जिससे होता वैचारिक पतन जो है मानव संस्कृति के लिए सबसे घातक मानव बन रहा मानवता का दुश्मन पर्यावरण का कर रहा अंत सत्य को कर रहा अनदेखा स्वयं को चढ़ा रहा सूली पर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक