हटा लो अब ये पर्दा

पड़ा है आंखों पर पर्दा,
एक दिन उठ ही जाएगा।
मिटा के प्रकृति को मानव,
तू भी बच न पाएगा।

वृक्षों को काटता निशिदिन,
लगाता एक न पौधा।
तेरी करनी से इकदिन,
ये चमन उजड़ ही जाएगा।

मिटा दी हरियाली तूने,
खड़े अब कंक्रीट के जंगल।
तोड़ डाले पर्वत तूने,
खड़े किए कचरे के पर्वत।

उजड़ती इस धरा की पीर,
जब तक तू समझ पाएगा
हो चुकी होगी तब देर
कुछ भी बच न पाएगा।

हटा लें आंखों से पर्दा,
हकीकत को समझ ले तू।
प्रकृति के बिना तू भी,
जीवित न बच पाएगा।

सूखती नदियों की पीड़ा,
बढ़ाती प्यास धरती की।
धरा का जल जो सूखा,
तो कल तेरा बच न पाएगा।

भूल बैठा माया में तू
हकीकत क्या है जीवन की
हटा लें अब तो ये पर्दा
तभी ये कल बच पाएगा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. सूखती नदियों की पीड़ा,
    बढ़ाती प्यास धरती की।
    धरा का जल जो सूखा,
    तो कल तेरा बच न पाएगा।
    .
    अच्छी सीख देती रचना।

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