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अपूर्ण यात्रा

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भौतिकता और अध्यात्म में उलझता मानव जीवन फंस जाता है अक्सर भौतिकता के व्यामोह में। माया का आवरण ढंक लेता अंतरतम को नहीं सूझती कोई राह अध्यात्म से बेपरवाह कस्तूरी मृग सम भटकता संसार में। सुख, शांति,संतोष की प्रबल लालसा भौतिक साधनों में ढूंढती आत्मानंद। बौद्धिकता का बन प्रबल दास आत्मा को देता नकार अहम के घोड़े पर सवार चंचल मन व्याकुल अतृप्त प्यासा मायावी दुनिया में ढूंढता अमृत की बूँद। ध्यान, चिंतन, योग का अभाव घटता हुआ सद्भाव कर देता विमुख अध्यात्म से जो यात्रा है आत्मा की परमात्मा से मिलन की वह अपूर्ण रह जाती है। अभिलाषा चौहान स्वरचित 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

मिट जाएं दूरियां.....

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मिट जाएं दूरियां कोई बात तो हो, जीवन में प्यार की शुरुआत तो हो। क्यों बढ़ गई हैं तन्हाइयां इतनी, दूर हो जाएंगी रोज मुलाकात तो हो । हमने तो लुटाया दिल का चमन अपना, सहेज लो तुम इसे इतने जज्बात तो हो। दर्दे-इश्क के समंदर में डूबती कश्ती हमारी, रही इसकी वजह क्या हमें मालूमात तो हो। रह-रह के जागती अभिलाषा ये मन में, कभी बदलेंगी हवाएं सही हालात तो हो। अभिलाषा चौहान स्वरचित

करवाचौथ पर्व पुनीत प्रेम का

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करवाचौथ पर्व पुनीत प्रेम का, पति की दीर्घायु कुशल क्षेम का। फिर आया पावन पर्व मनोहर, हृदय भाव बहते हैं निर्झर। प्रेम - प्रीत परवान चढ़ी है , मन-वीणा झंकृत हो उठी है। प्रियतम जनम - जनम के साथी, साथ हमारा दिया और बाती। कभी ये सोलह श्रृंगार न छूटें, भाग्य मेरा मुझसे न रूठे। बनी सुहागन रहूं सुहागन, मर कर भी मैं सदा सुहागन। घूमूं फिरूं मैं तेरे आंगन, ओ मनमीत मेरे मनभावन। मांग सदा सिंदूर से दमके, माथे पर सदा बिंदिया चमके। हाथों में कंगन की खन-खन, पैरों में पायल की छन-छन। आज बनी मैं फिर से दुल्हन, भाव हृदय के तुझको अर्पण। तुम हो चांद मेरे जीवन के , सदा चमकना चंद्रमा जैसे। आओ तुम्हारी आरती उतारूं , नयनों से ये छवि निहारूं। करके पूजा मैं माता की दुआ मांगू तेरी लंबी उम्र की। रखना मेरी प्रीत का मान , मैं शरीर तुम मेरे प्राण। अभिलाषा चौहान स्वरचित

हृदय समंदर होता उनका...

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सीधा-सादा जीवन जिनका,              और होते हैं उच्च विचार। वे ही जन इस जगत का,              करते हैं सदा परिष्कार। करूणा के बादल बरसाते,              स्नेह-सुधा लुटाते हैं। दीन-दुखी की सेवा कर,              तन-मन से हरषाते हैं। हृदय - समंदर होता उनका,              जिसमें सभी समाते हैं। समदर्शी, समता भाव से              सबको गले लगाते हैं। वाणी से मधु-रस बरसाते,              प्रेम के पुष्प खिलाते हैं मानवता को धर्म मानकर,               उस पथ पर चलते जाते हैं । घर कितना ही छोटा हो,                हृदय बड़ा होता उनका। परोपकार और जग-कल्याण से,                सजा होता है घर उनका। जीवन को जीवन मानकर,                सब जीवों को अपनाते। जीवन की रक्षा में रत,                 सर्वस्व अर्पित कर जाते। अभिलाषा चौहान स्वरचित हमकदम

मिट्टी से मिट्टी का नाता

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ये संसार मिट्टी का घड़ा, मिट्टी में मिल जाएगा। सोच रहा तू क्या बंदे! क्या लेकर के जाएगा? मिट्टी से बना शरीर, मिट्टी में मिल जाएगा । सोच रहा तू क्या बंदे! क्या लेकर के जाएगा? बात सही थी लेकिन तुझको, अब तक भी न खबर हुई। मेरा-तेरा करते-करते, तेरी पूरी उमर हुई। ये मिट्टी का घड़ा शरीर, आत्मा इसका है स्थान। जिस दिन त्यागा उसने इसको, पहुंच जाएगा तू श्मशान। आंखे खोलकर देख सत्य को, करले अपना जीवन आसान। वेद-पुराण भी इस सत्य का, करते आए सदा बखान। मिट्टी से मिट्टी का नाता कभी नहीं है टूटा । खाली हाथ जाना है सबको, जो जोड़ा सब यहीं छूटा। अभिलाषा चौहान

क्षण का ही खेल है सारा

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क्षणभंगुर संसार ये सारा क्षण का जीवन क्षण में मिटता क्षण में बीते जीवन सारा। क्षण ही सत्य क्षण ही शाश्वत क्षण का ही ये खेल है सारा। क्षण में राजा क्षण में रंक क्षण में बदले संसार ये सारा। क्षण का जीवन क्षण में ही जीना क्षण में मृत्यु ने आंचल पसारा। क्षण में दुख क्षण में सुख क्षण में नियति का परिवर्तन सारा। क्षण ही स्मृति क्षण ही स्वप्न क्षण संचालित काल ये सारा। क्षण में मिलन क्षण में जुदाई क्षण आधारित संसार ये सारा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

रोशनी औरों के यहाँ बिखेर देते हैं !

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जिनके घर महलों से नहीं होते हैं, उनके दरवाजे सबके लिए खुले होते हैं। तंगहाली में खुशहाल रहते हैं वो लोग सबकी मदद को वे खड़े रहते हैं। प्रेम से सजा होता है घर उनका, गैरों के दुख - दर्द अपने होते हैं । इंसानियत रग-रग से झलकती उनके, करूणा से हृदय भरे होते हैं । जिंदादिली से जीते जीवन वे सदा, हंसकर गम को भुला देते हैं। साजों-सामां घर में हो या न हो, घर को घरवालों से सजा लेते हैं। खुशियों को बांटकर खुश होते, गम को बिछौना बना के सोते हैं। करता सुकून उनके घर में बसेरा, गैरों को अपना बना लेते हैं । रहते दिल के दरवाजे उनके खुले, बंधनों को वे पनाह नहीं देते हैं । रोज उगाते वे अपना सूरज, रोशनी औरों के यहां बिखेर देते हैं । अभिलाषा चौहान स्वरचित (हमकदम) 

फिर आया सवेरा

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******सवेरा****** देखो फिर से हुआ सवेरा, सूर्यदेव ने डाला डेरा। पक्षीद्वय भी जाग उठें हैं, कलरव उनके गूंज रहे हैं। वृक्षों ने भी ली अंगड़ाई, चलने लगी पवन पुरवाई । ओस की बूंदें चमकी ऐसे, हीरे की कनियां हो जैसे। कलियाँ भी फिर से मुस्काई, खिलने की बारी जो आई। हमने भी जब आंखें खोली, ईश्वर से इक बात ही बोली। सबके जीवन आए सवेरा, कहीं नहीं हो तम का घेरा। नित खुशियां वहां करे बसेरा, ऐसा आए नित नया सवेरा। अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार 

हृदय भाव बहते निर्झर

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हृदय भाव बहते निर्झर, भावों की भूमि सदा उर्वर। भावों के मोती चुन-चुनकर, शब्दों की माला में ढ़ल कर। सुंदर बनता है काव्य सदा, मन आनंदित रहता सदा। अविरल पथ है भावों का, सुंदर - सुंदर सद्भावों का। भावों की माला में गुंथकर, सृजन काव्य का होता है। भाव काव्य का होता प्राण,  शब्द शरीर का करे निर्माण। तब उत्तम काव्य सृजित हुआ, रसमय सारा संसार हुआ, क्लेश-विकार का नाश हुआ। अब जीवन आलोकित है, जीवन उद्देश्य भी लक्षित है । काव्यामृत से जीवन सिंचित है, अब यही पथ हमें वांछित है। यह यात्रा ऐसे ही चलती रहे, नित पुष्पित - पल्लवित होती रहे। अभिलाषा चौहान स्वरचित                                                      

आंसुओं को पनाह नहीं मिलती

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तोहमतें हजार मिलती हैं, नफरतें हर बार मिलती हैं, टूट कर बिखरने लगता है दिल, आंखें जार-जार रोती हैं, देख कर भी अनदेखा कर देते हैं लोग, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। मुफलिसी के आलम में गुजरती जिंदगी, सपनों को बिखरते देखा करे जिंदगी , फिरती है दर-बदर ठोंकरे खाती, किस्मत को बार - बार आजमती जिंदगी, मौतें हजार मिलती हैं, आंखें जार-जार रोती हैं, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। अपनों को तड़पते देखती जिंदगी, चंद सिक्कों के लिए भटकती जिंदगी, मारी- मारी फिरती है दर-बदर, इंसान की इंसान ही करता नहीं कदर, इंसानियत जार - जार रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।। तड़पती मासूम भेड़ियों के बीच में, दुबकती और सिमटती है, मांगती भीख रहनुमाई की, हैवानियत कहां रोके रुकती है, सिसकती है और फूट-फूट कर रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती। टूटता घर और फूटता नसीब उनका, बन गए हैं बोझ जहां रिश्ते, देखते उजड़ते आशियाने को, बूढ़े मां-बाप अपने श्रवणों को, उनकी ममता बार-बार रोती है, आंसुओं को पनाह नहीं मिलती। । अभिलाषा चौहान

महिमा संदेश की

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संदेश संचालित जग-जीवन, भावों का करते हैं संचालन। व्यथित हो या हर्षित हो मन, संदेश ही आते सहारा वन। संदेश विरहिणी का जीवन, सैनिकों के लिए हैं संजीवन। बूढ़े मां-बाप की आशा बन, कर देते निराशा का समापन । महापुरूषों की अमृत वाणी, या शहीदों की हो कुर्बानी । बनती प्रेरक संदेश सदा, करती आलोकित जग है सदा। एक छोटा-सा संदेश गलत, जग में कर देता उथल-पुथल। छिड़ जाते हैं युद्ध तभी लड़ते दो समुदाय तभी । संदेश की महिमा सबसे अलग, संदेश करें भावों को सजग । अभिलाषा चौहान स्वरचित

जीवन - यात्रा

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वेद उपनिषद गीता पुराण, जीवन उद्देश्य का करे बखान। चौरासी लाख होती है योनि, सबसे श्रेष्ठ है मानव योनि। जन्म मनुष्य का होता अनमोल, करो सत्कर्म सदा दिल खोल। ईश्वर ने दिए दायित्व मनुज को, जग कल्याण करना है सबको। जन्म मरण निरंतरता सृष्टि की, आत्मा कभी नहीं है मरती। बहुविधि रूप आत्मा धरती है, समय आने पर वस्त्र बदलती है। मां के गर्भ से शुरू होती यात्रा, हरपल रूप बदलती यात्रा। देती हरपल हमको ये संदेश, नहीं शाश्वत है हमारा वेश। चलो सत्पथ करो ईश्वर भक्ति, तभी भवसागर से पाओगे मुक्ति। अभिलाषा चौहान  ं

बड़ा भयावह मंजर (अमृतसर हादसा)

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हो रहा था रावण दहन सब हो रहे थे खूब मगन लेकिन लग गया ग्रहण खुशियाँ हो गई दफन। खड़े हुए पटरी पर लोग रहे मेले का आनंद भोग काली अंधियारी थी रैन काल बन कर आई ट्रेन। कुचल गई कितनी जानें बिछड़ गए ही अनजाने कितने अपने कितने सपने हो गए दफन जाने कितने। बड़ा भयावह था मंजर बिखरे पड़े कितने पिंजर सब ओर थी चीख पुकार मची मौत की लकीर थी वहाँ खिंची। कब तक ऐसे हादसे होंगे? एक दूसरे पर हम दोष मढ़ेंगे?? कब प्रशासन सुधरेगा?? कब हम इनसे सबक लेंगे?? अभिलाषा चौहान

चीर हरण ??

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टूटती - बिखरती मर्यादाएं, विश्रृंखल होता समाज, संबंध होते तार-तार। हो रहा चीरहरण, भारतीय संस्कृति का। बन गए राम प्रतीक मात्र कहां आचरण में दिखते मर्यादा पुरुषोत्तम। कहां है रामराज्य? नारी की अस्मत लुटती सरे बाजार मासूम कलियाँ भी होती हैवानियत का शिकार। वृद्धाश्रम में रोते मां-बाप, भोगते वनवास। होता रोज रिश्तों का कत्ल, होता हर पल आदमी का शिकार। अमर्यादित हो रहा समाज, पनप रहे धोखे-फरेब के वृक्ष, उजड़ रहा विश्वास का गुलशन, सूख रहा स्नेह - त्याग का पुष्प, कर भंग अपनी मर्यादा बो रहा विष की अमर बेल। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बनती है जीने की वजह

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तप्त रेगिस्तान में या गहन अंधकार में जिंदगी के जंगल में निराशा के कूप में बेवफाई के जाल में धोखे के मकड़जाल में अविश्वास के खेल में नफरतों के ढेर में किसी जाल में फंसे पक्षी सा फड़फड़ाता जीवन मृत्यु को मान प्रियतमा कर देना चाहता अंत जीवन की समस्याओं का तब चमकती एक चिंगारी अंतस में कर देती उजास जो होती जिजीविषा खींच लेती मनुष्य को समस्त मायाजाल से बनकर जीने की वजह हां, तभी तो कट जाते नश्तर से चुभते वो पल हार जाता वक्त भी उस जिजीविषा के समक्ष जो बन कर प्रेरणा बन जाती जीने की वजह। अभिलाषा चौहान

मैं वीणा हूँ संगीत हो तुम

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साथी जबसे तुम मेरे बने, साथ बुने हमने सपने। नयनों ने प्रेम-पुष्प चुने, भावों के सुंदर हार बने। मेरे जीवन का श्रृंगार हो तुम, हर सफर में साथ रहेंगे हम। मैं वीणा हूँ, संगीत हो तुम, मैं दिल हूँ , तो धड़कन हो तुम। हम दोनों का अस्तित्व ही एक, अहम न हो,सदा हो विवेक। सुख-दुख कितने ही आएंगे, हम मिलकर साथ निभाएंगे। एक सुंदर - सा संसार अपना, बस प्रेम भाव से सहज बना। जीवन का यह सुंदर सफर, तेरे साथ ही पूरा हो हमसफर। अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

प्रीत की रीत

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प्रीत की रीत बड़ी पुरानी, मीरा कृष्ण प्रीत जग जानी। जग न समझे प्रीत की वाणी, रही मीरा इससे अंजानी । जाने कितनी ऐसी कहानी, प्रीत में डूबी जग से बेगानी। प्रीत समर्पण पूरा मांगे, कुछ न भाता प्रीत के आगे। लोक लाज मर्यादा जग की, प्रीत के आगे पानी भरती । प्रीत दीवानी मीरा होई, राधा कृष्ण के प्रेम में खोई। सच्ची प्रीत की डगर कठिन है, कांटे राह बिछे अनगिन है। प्रीत का जग बैरी बन जाए, प्रीत का भाव न जग को भाए। विष का प्याला पीना पड़े है, प्रीत तभी परवान चढ़े है। प्रीत न देखे अपना-पराया, प्रीत में प्रीतम ही मन भाया। अभिलाषा चौहान

जिन्दगी बेवजह नहीं होती

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जिन्दगी बेवजह नहीं होती अगर होती तो ये जद्दोजहद न होती आंखों में सिमटी हुई कितनी आशाएं पलकों में बंद जाने कितने सपने कोई तो वजह होगी इनके होने की तभी तो आस जगती है फिर जीने की। भावों का उमड़ता जो तूफान कहीं टूटते-बिखरते हैं जज्बात कहीं कोई हौले-हौले मुस्कराता है कोई छुप-छुप कर आंसू बहाता है कोई तो वजह होगी इनके होने की नफरतों के तूफान भी उमड़ते हैं मेघ स्नेह के भी बरसते हैं लोग मिलते हैं फिर बिछड़ते हैं संबंध बनते हैं फिर बिगड़ते हैं कोई तो वजह होगी इनके होने की आंखें करती किसी का इंतजार सदा नींद नहीं आती है रातों को जरा चुभती शूलों सी ये खामोशी हालत होती है जब दीवानों सी ऐसा बेवजह तो नहीं होता कोई तो वजह होगी ऐसा होने की। अभिलाषा चौहान स्वरचित

विषमता जीवन की

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ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के समक्ष बनी ये झुग्गियां विषमता का देती परिचय मारती हैं तमाचा समाज के मुख पर चलता है यहां गरीबी का नंगा नाच भूखे पेट नंगे तन भटकता भारत का भविष्य मांगता जीवन की चंद खुशियां जिंदगी जीने की जद्दोजहद मजदूरी करते मां-बाप दो वक्त की रोटी की चिंता में जूझता जीवन न सुविधा, न शिक्षा न स्वच्छता, न पोषण बस शोषण ही शोषण मारता है तमाचा देश की व्यवस्था पर जो बंद एसी कमरों में बैठकर बनाती भारत के विकास की योजनाएं करके बड़ी - बड़ी बातें जो धरातल पर कम ही होती साकार इसलिए झुग्गियों का हो रहा विस्तार भारत में पनपता एक भारत जीता विषमताओं का जीवन सिसकता बचपन कचरे के ढेर में ढूंढता खुशियां मारता है तमाचा उन समाज के ठेकेदारों पर जो करते समाज-सुधार की बातें बातों से किसी का कहां भला होता है बातों से कहां किसी का पेट भरता है?? अभिलाषा चौहान स्वरचित चित्र गूगल से साभार 

बैठी सोच रही है मुनिया

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कैसी है निर्मोही दुनिया, बैठी सोच रही है मुनिया। होते हाथ खिलौने मेरे, कुछ सुख होते जीवन में मेरे। मां-बाप भी कहीं भटक रहे हैं, भूखे बच्चे उन्हें खटक रहें हैं। इसीलिए करनी है मजदूरी, भाग्य लिखा लाई मजबूरी । जब तक न बनें सारी लड़ियाँ, तब तक भूख में काटूं घड़ियाँ। बारूद के ढ़ेर पर हूँ मैं बैठी, मानवता भी मुझसे है ऐंठी। बचपन क्या होता न जाना, काम करूं तब मिलता खाना। मैले वस्त्र और मुख पर उदासी, गरीबी की मैं बन गई दासी। इसीलिए न बैठूं मैं खाली, चूल्हा जले तो आए दीवाली। बाल मजदूरी अपराध सुना है, करके काम पेट भी भरना है। काम बहुत करवाते मुझसे, देते हैं बस थोड़े से पैसे। कब बदलेगा भाग्य विधाता , हम बच्चों पर तरस न आता। अभिलाषा चौहान स्वरचित

महिमा अपरंपार है इनकी

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मेरी इस रचना का उद्देश्य किसी वर्ग विशेष पर आक्षेप करना नहीं है बल्कि मैं उस सत्य को शब्द रूप में प्रकट कर रहीं हूँ जो प्रतिदिन हमारे सामने आता है। बड़ा अच्छा धंधा है, शिक्षा का न फंदा है। न ही कोई परीक्षा है, लेनी बस दीक्षा है। बन जाओ किसी बाबा के चेले। नहीं रहोगे तुम कभी अकेले। इस धंधे में मिली हुई सबकोआजादी कोई कितना बड़ा चाहे हो अपराधी मनचाहा पैसा है, मनचाहा वातावरण है। जिसने ले ली ढोंगी बाबाओं की शरण है। उसने कर लिया अपनी चिंताओं का हरण है । भविष्यवाणियाँ करके जनता को खूब डराते। सेवा-मेवा पाते, जनता को उल्लू बनाते । आलीशान होती है इनकी जीवन शैली । ऐशो आरामों से भरी रहती है हवेली। हाथ जोड़कर बैठी रहती है जनता भोली। खुलने लगी है अब इनकी पोलम पोली। संत-असंत का भेद कैसे समझे जनता? जिसको कहीं जगह नहीं वही संत बन जाता। चौपहिया वाहनों के होते हैं ये स्वामी ऊपर से बनते संत अंदर से होते कामी। सुरक्षा में इनके रहती नहीं कोई खामी। डिजिटल हो गए आज के साधु - संत इनकी महिमा का कोई नहीं है अंत। चोला राम नाम का पहनते राम नाम का मरम न समझते। सुविधा त्याग राम भए संन्यास

रात शबनमी

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रात शबनमी आंखों में नमी खल रही थी दिल को किसी की कमी बेसाख्ता यादों के फूल झरने लगे, हम पहलू में उनको समेटने लगे। आंसुओं की लगने लगी थी झड़ी, बीता हर लम्हा याद आया उस घड़ी। टूट-टूट कर बिखरती रही जिंदगी, अब खुशियों की हम क्यों करें बंदगी। जिंदगी शबे-गम की परीक्षा सही, किस्मत में लिखा बस होगा वही। दिल को अब तक न आया है यकीं, तुम भी चमकते हो इन तारों में कहीं! अभिलाषा चौहान

उलझन है तो समाधान है

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दोराहे पर खड़ा जीवन समस्याओं से घिरकर भूल जाता है आगे बढ़ना तब जन्म लेती है उलझन जिसमें फंसकर जीवन मुक्ति की चाह में छटपटाता है दूर करना चाहता है उलझन उलझाती नहीं है उलझन प्रेरित करती आत्मशक्ति को देती चुनौती बुद्धि-विवेक को करती  है मार्गदर्शन कराती है आत्मचिंतन जिससे होता शक्ति का स्फुरण उलझनों में उलझना जीवन है उलझनों से निकलना परिवर्तन है उलझने बनाती मनुष्य को क्रियाशील इससे होता है जीवन गतिशील यूं ही चलता है अनवरत जीवन उलझन से ही उन्नति करता जीवन समस्या है तो उलझन है उलझन है तो समाधान है समाधान है तो संधान है संधान है तो जीवन आसान है। अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

उलझन ही उलझन है

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कैसे देश चलेगा आगे ! कैसे देश बढ़ेगा आगे ! सबको कैसे खुश रख पाएं, कैसे वोट जनता का पाएं ? ये बहुत बड़ी उलझन है। जाल वोट का बहुत बड़ा है, सबका ध्यान वोटों पर गड़ा है। कैसे जनता को उलझाएं ? उल्लू अपना सीधा कर पाएं। जाति-धर्म को ढाल बनाकर, मंदिर-मस्जिद की बात उठाकर, आरक्षण की आग लगाकर, प्रांतवाद की लहर उठाकर ये पैदा करते उलझन हैं। बढ़ती महंगाई रोक न पाएं, नित नए - नए ये टैक्स लगाएं, जीवन जनता का उलझाएं, जनता इनसे बच न पाए, जीवन जीने की उलझन है। महंगी सुविधा सस्ता जीवन, आसानी से न मिलते साधन, सबके जीवन में है उलझन, चिंता में गल जाता है तन, फिर भी न सुलझे ऐसी उलझन। कथनी-करनी में फर्क बड़ा है जनता की कौन सुनने खड़ा है समस्याओं से घिरी है जनता, हर कोई अपना सिर धुनता, हर ओर यही उलझन है। अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

बिछ गई है चौसर

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बिछ गई चुनावी चौसर जुट गए हैं सभी धुरंधर लेकर अपने अपने पांसे चलने लगे चुनावी दांव शुरू हुआ आरोपों प्रत्यारोपों का दौर त्याग कर मर्यादा जिसका ओर न छोर लगे उखडने गडे़ मुर्दे बोलने लगे अपने बोल आरक्षण व राम मंदिर लगे पीटने ढोल गडबड घोटालों की लगे खोलने पोल किसान की पीड़ा पर राजनीति गरमाई हिंदू मुस्लिम समुदायों की चिंता भी हो आई सुरसा के मुख सी बढती जाती है महंगाई सबको अपनी कुर्सी की चिंतां जनता किसको प्यारी पांच वर्ष तक इन्हें भुगतते अपना सब कुछ हारी फिर से वही बिसात बिछी है सत्ता पाने की होड़ मची है जनता की किसी ने न सुनी है जहां देखो खींच तान मची है  देश की चिंता किसी को नहीं है। अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

दीवार को दीवार ही रहने दो !

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ये दीवारें जो कभी नहीं बोलती जो कभी नहीं सुनती बनी रहती हैं मूक देखती हैं सब घटते हुए गवाह हैं बीते कल की नहीं बांटती किसी का सुख दुख खड़ी रहती हैं निर्जीव निश्चल फिर भी हैं बदनाम लोग कहते हैं कि दीवारों के कान होते हैं। सच तो यह है कि दीवार हमने बनाई है अपने-अपने दरम्यान तभी तो दूर हैं अपने अपनों से बच्चे सपनों से समाज हकीकत से लोग इंसानियत से मत करो दीवारों को बदनाम । आओ मिलकर दीवार हटाएं जो हमने खड़ी की हैं अपने-अपने दरम्यान जाति, धर्म, ऊंच-नीच और अमीर-गरीब की आओ जोडें दिलों के तार हट जाएं सारे भेद मिट जाए मतभेद मिल जाएं मन बनें सुंदर, सरल, जीवन इंसान फिर इंसान कहलाए इंसानियत अपना परचम लहराए सब हो जाए एकसार दीवार को दीवार ही रहने दो इन्हें अपने भीतर खड़ा मत करो । अभिलाषा चौहान

हौंसले को सलाम (माउंटेन मैन - दशरथ मांझी)

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माउंटेन मैन "दशरथ मांझी" के हौंसले को सलाम। जिन्होंने 25 वर्षों की अथक मेहनत से अकेले ही पहाड़ काटकर अपने गांव को शहर से जोड़ने के लिए सड़क बनाई। लोगों का उपहास भी उन्हें रोक नहीं पाया । बाधाएं भी उन्हें हतोत्साहित नहीं कर सकी । उनकी प्रेरणास्रोत थी उनकी पत्नी 'फाल्गुनी देवी ', जिनकी उस पहाड़ से गिरकर मृत्यु हो गई थी । उन्हें समर्पित कविता - - - - आर्थिक स्थिति जर्जर किंतु हौंसला अपार , बाधाओं से उसने कभी न मानी हार। काट रहा था लकड़ी पर्वत के उस पार , पत्नी खाना लेकर आती थी हर बार। वक्त बुरा था उस दिन न कर पाई पर्वत पार, पर्वत से गिरकर जीवन से गई हार। पत्नी की मृत्यु से व्यथित बेकरार, पर्वत को शत्रु समझा कर बैठा इकरार। जब तक पर्वत से न निकलेगी राह, तब तक न बैठूंगा चैन से न मानूंगा हार। हाथ हथौड़ा लेकर करता पर्वत पर प्रहार, विषम परिस्थितियों में भी न मानी उसने हार। लोगों ने पागल कहकर उपहास किया हरबार, अपनी धुन का पक्का था हौंसला अपार। कितने बीते वर्ष बीते जीवन दिया निसार,        पर्वत से बना दी राह किया इच्छा को साकार। अगर मन में किसी क

हौंसलों की उड़ान

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जिनके हौंसलों में अभी जान बाकी है, उनके लिए पूरा आसमान बाकी है। मंजिलें ही जिनके जीवन का लक्ष्य हो, मुश्किलें उनके लिए बन जाती साकी हैं। बुरा या अच्छा वक्त वे देखते नहीं, वक्त को बदलने का उनमें हुनर काफ़ी है। जिंदगी का जोशे जुनून जिसमें बाकी है, उसमें ही नया करने का संधान बाकी है। बाधाएं नित खड़ी हो या छाए अंधकार घना, करते हैं सामना वे लहू में उबाल बाकी है। मुड़ के पीछे देखना उन्हें गवारा नहीं, आगे बढ़ने की उनमें ललक काफी है। जीते हैं शान से औ मरते हैं शान से, क्योंकि उनमें अभी स्वाभिमान बाकी है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

याद आता है बचपन

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बच्चे जो घर से दूर बहुत दूर पडे़ हैं पेट की खातिर करते जीवन की जद्दोजहद का सामना! आता है उन्हें याद मां का आंचल पिता की स्नेही छत्रछाया अपना बचपना वो बेफिक्री का जीवन घर आंगन मोहल्ला गलियां जहां गुजारा अपना बचपन। पेट की आग जीवन का संघर्ष करता है मजबूर परदेश में बसने को। तड़पाता है अकेलापन जब याद आता है बचपन वो सुकून वो आराम वो बिन मांगे सब मिल जाना और भी बहुत कुछ जो मिलता था अक्सर मां-बाप की छत्रछाया में। जीवन की कठिनताएं बना देती यांत्रिक जीवन जिम्मेदारियां कर देती मजबूर परदेश में जीने को। तन्हाईयां रह रह कर उन्हें तड़पाती है भीग जाती है आंखें अपनों की याद में। न चाहकर भी पडे़ रहते हैं बेगाने देश में करते याद पल - पल हर क्षण अपना बचपन। अभिलाषा चौहान