बनती है जीने की वजह

तप्त रेगिस्तान में
या गहन अंधकार में
जिंदगी के जंगल में
निराशा के कूप में
बेवफाई के जाल में
धोखे के मकड़जाल में
अविश्वास के खेल में
नफरतों के ढेर में
किसी जाल में फंसे पक्षी सा
फड़फड़ाता जीवन
मृत्यु को मान प्रियतमा
कर देना चाहता अंत
जीवन की समस्याओं का
तब चमकती एक चिंगारी
अंतस में कर देती उजास
जो होती जिजीविषा
खींच लेती मनुष्य को
समस्त मायाजाल से
बनकर जीने की वजह
हां, तभी तो कट जाते
नश्तर से चुभते वो पल
हार जाता वक्त भी
उस जिजीविषा के समक्ष
जो बन कर प्रेरणा
बन जाती जीने की वजह।

अभिलाषा चौहान


टिप्पणियाँ


  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (११ -०१ -२०२०) को "शब्द-सृजन"- ३ (चर्चा अंक - ३५७७) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….

    -अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह! जिजीविषा के माहात्म्य को उकेरती सुंदर रचना। जिजीविषा को संबल देना ही जीवन के प्रति अनुराग को पोषित करना है।
    बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं

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