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जनवरी, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रोई होगी भारत माता

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जयचंदों के चक्रव्यूह में सत्य सदा ही मारा जाता घर में ही जब छुपे भेदिए राज भला कैसे बच पाता।। विश्वासों की आड़ लिए जो छीन रहे आभूषण उसके पाखंडों की बनी बेड़ियाँ प्राण घुटे मानवता सिसके वीर सपूतों की जननी को कहाँ भला ये बंधन भाता घर में ही जब छुपे भेदिए राज भला कैसे बच पाता।। आँखों चढ़ी लोभ की पट्टी भूल गए अपनी मर्यादा जाति धर्म विद्वेष फैलाकर बाँट रहे सब आधा-आधा आग लगाकर अपने घर में कुआँ कभी क्या खोदा जाता घर में ही जब छुपे भेदिए राज भला कैसे बच पाता।। आतंकों के विषबीजों पर सुख की ऐसी पौध लगाई बाँट दिया निज माँ को जिसने पीड़ा कहाँ समझ में आई खण्ड-खण्ड से खण्डित होकर रोई होगी भारत माता घर में ही जब छुपे भेदिए राज भला कैसे बच पाता।। अभिलाषा चौहान

अनोखी धरा

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अखिल भुवन में धरा अनोखी जीवन से जो संचारित सूर्य-चंद्र रक्षक सम बैठे पंचभूत पर आधारित।। नील-हरित आभा से मंडित रत्नों के भंडार भरे सरिता,सागर और सरोवर कल-कल-कल का नाद करे षडऋतुओं का चक्र निरंतर करता इसको श्रृंगारित सूर्य-चंद्र रक्षक सम बैठे पंचभूत पर आधारित।। समरसता का भाव हृदय में ममता की बरसात करे देवों को भी प्रिय लगती है आकर वे अवतार धरे वेदों ने महिमा गाई है काल करे सब निर्धारित सूर्य-चंद्र रक्षक सम बैठे पंचभूत पर आधारित।। हरती सब संताप जीव का सहन करे अपघातों को करुणा कलित क्षमा करती है मानव की सब बातों को बन तपस्विनी धरणी तपती सूर्य मंत्र कर उच्चारित भानु-चंद्र रक्षक सम बैठे पंचभूत पर आधारित।। अभिलाषा चौहान

चंदन माटी को माना

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संकल्पों की डोर थामकर चट्टानों से टकराना मन में बसती मां भारती चंदन माटी को माना।। घात लगाकर गिद्ध बैठते मन में कलुष भरा जिनके छुप-छुप कर ये वार करे हैं सगे बने ये कब किनके पाँचजन्य सी शंखनाद कर वीर भारती बढ़ जाना। मन में बसती मां भारती चंदन माटी को माना।। प्राण हथेली पर रखते हैं जन्मभूमि के मतवाले शेरों सी हुंकार भरे जब अरिदल शस्त्र सभी डाले वज्र समान हौंसले रखना पूरा करना जो ठाना मन में बसती मां भारती चंदन माटी को माना।। हृदय बसा कर देशप्रेम को हँसते-हँसते बढ़े चले नभ में नाम लिखाते अपना आन-बान संकल्प फले वसुधा के ये रत्न अनोखे जाने उसको महकाना। मन में बसती मां भारती चंदन माटी को माना।। अभिलाषा चौहान

दीप तुम कब तक जलोगे ?

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यहाँ मैंने 'दीप'को प्रतीक बनाकर भाव अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। दीप तुम कब तक जलोगे? स्वयं को ही छल रहे हो? बस अकेले चल रहे हो.. यामिनी को भेद लोगे,भ्रांत ये अवधारणा है। तुम विवश क्लांत हो कितने,यही सदा विचारणा है। आँधियों से जूझते हो,हारते थकते नहीं हो। पंथ से परिचित भले हो,आकलन करते नहीं हो। हाथ खाली फिर मलोगे! कल्पना में पल रहे हो । बस.... देख लो इतिहास अपना,और चिंतन आज कर लो। लक्ष्य को क्या साध पाए,इस मिथक से अब उबर लो। अहम को अपना बनाकर,वेदना तुमने बढ़ाई। मोह से लिपटे रहे बस,आस कब तुमने जगाई। सूर्य बनकर तुम उगोगे! नींद में क्यों चल रहे हो? बस... क्षीण क्षणभंगुर जगत में,अंत सबका है सुनिश्चित। धर्म जलना है तुम्हारा,कर्म का क्या भान किंचित। प्रेम में जलता पतंगा,क्या बने उसका सहारा? तेल-बाती के बिना तो,व्यर्थ है जीवन तुम्हारा। बीतता बस कल बनोगे। क्यों दुखों में गल रहे हो? बस.... अभिलाषा चौहान

दूर हों अब ये अँधेरे...

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कुछ कहूँ मन की सुनाऊँ, क्या सुनोगे प्राण मेरे?       दूर हों अब ये अँधेरे! उस गगन के पार भी क्या,है बसा संसार कोई? स्वप्न है या कामना है ,जागती हूँ या कि सोई? तैरते इन बादलों का ,राज क्या है जानना है नील लोहित नभ छुपाए, राज मेरा मानना है। मैं न समझूँ छटपटाऊँ, ये समझलो प्राण मेरे!      दूर हों अब ये अँधेरे... टिमटिमाते तारकों से, भेजता संदेश कोई। रश्मियाँ थिरकी धरा पर, ओस बूँदे देख सोई। कौन है जो रूप बदले, चाह जिसकी जागती है। प्रीत मेरी उस अदृश की, ओर नित ही भागती है। मैं भी उसको जान पाऊँ, क्या चलोगे साथ मेरे?     दूर हों अब ये अँधेरे... हँस रहे ये फूल नित ही, देख लो कैसे चिढ़ाते । ये सरित निर्झर सदा से, प्यास मेरी हैं बढ़ाते। ये तपस्वी श्रृंग देखो,अचल अविचल से खड़े हैं झाँकते हैं उस गगन में,बात पर अपनी अड़े हैं। चाह को कब रोक पाऊँ, उड़ चलो हे प्राण मेरे...    दूर हों अब ये अँधेरे।

मैं बस उसकी अनुभूति हूँ

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हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के, मैं बस तुमको ही जीती हूँ। वन-उपवन से महक रहे हो, मैं बस उसकी अनुभूति हूँ। तुम पूर्ण गगन सम विस्तृत हो, चंद्र-सूर्य से हो न्यारे। चमचम तारों से चमके,बनकर जीवन के उजियारे। मैं घूम रही हूँ पृथ्वी सी,पाती हूँ तुमसे सारे रस। जलधि सा छलके प्रेम सदा, आलिंगन में लेता कस। बन अमृत वारिद बरसे हो मैं बस उसको पीती हूँ। हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के, मैं बस तुमको ही जीती हूँ। चहके पक्षी जब नीड़ों में,मैं उठती हूँ ले अँगड़ाई। कलियों ने घूँघट पट खोले,ऊषा प्राची में मुस्काई। किरणें करती स्पर्श मुझे,सुख भरते हैं फिर झोली में। हाँ प्रेम तुम्हारा बोल उठा,कोयल की मीठी बोली में। विरह-व्यथा की कथरी को, हिय अंतर में चुप सीती हूँ। हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के, मैं बस तुमको ही जीती हूँ।   ये पर्वत से जो दुख सारे, निर्झर बन नयनों से बहते। उफनी तरिणी जब पीड़ा की,तटबंध बने तुम सब सहते। मैं लता बनी लिपटी तुमसे,तुम वृक्ष समान सहारा हो। ये क्षितिज मिलन का है साक्षी,ये सुंदर संसार हमारा हो। अवनि-अंबर को बाँध सके मैं तो बस वह प्रीति हूँ। हो प्राण तुम्हीं इस जीवन के, मैं बस तुमको ही जीती हूँ। अ