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आकुल अंतर

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चित अतृप्त व्यथित , व्याकुल चंचल, कुछ पाने को, नित रहे आकुल सुप्त ज्ञान बुद्धि, विवेक निश्चल, इक पल को भी , न पड़ता कल। भावों की गगरी, भरी छल छल, हृदय मची,  हलचल हलचल। मैं विवश व्यथित, प्यासी हरपल, नहीं स्वार्थ रहित,  न हूं निश्छल। पीती रहती, चुपचाप गरल, हर ओर मचा है,  कोलाहल। कुछ पाने को, अंतर आकुल, ये छलना छलती,  पल पल पल। इन सबसे दूर, मैं जाऊं निकल, उर रस की धार, बहे अविरल । अभिलाषा चौहान

वर्ण पिरामिड - वीर/शहीद /भगत

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वर्ण पिरामिड वीर/शहीद/भगत हे वीर अजेय भाल चंद्र भारत माता चमकते रहो भगत सिंह सदा हो जय हमेशा शहीदों की दे बलिदान मातृभूमि हित करते परित्राण देश सुरक्षित सदा थे पुत्र महान शेरदिल आजादी प्रिय चढ फांसी पर किया था बलिदान अभिलाषा चौहान (प्रथम प्रयास)

रंग सुरंग बने हैं सारे

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इतनी सुंदर रंग बिरंगी प्रकृति की सुंदरता प्यारी भांति भांति के पुष्प खिले हैं महक उठे जीवन की क्यारी बह उठती जब हवा बासंती सरसों की फूले फुलवारी ओढ चुनरिया धानी धरती मन के सब संताप है हरती चमक उठे हिमगिरि सोने सा जब दिनकर की किरणें हैं पडती देख नीलिमा जलधि गगन की हो जाती हूं पूर्ण मगन सी चहचहाते हैं पक्षी प्यारे कितने सुंदर कितने सारे घिर आता जब घोर अंधेरा तब परिवर्तन ने डाला डेरा प्रेम का रंग है सबसे न्यारा इससे बंधा संसार है सारा रंग सुरंग बने है सारे आंखों को भावे हैं प्यारे श्वेत  श्याम में फंसा ये जीवन देखे नित नए रंग मनभावन केवल कोई चित्र नहीं ये विचित्र है पर विचित्र नहीं ये। अभिलाषा चौहान

चित्रकार की चित्रकृति

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चित्रकार की चित्रकृति चित्रलिखित सी देखती कौन सुघड़ सोच सोच कर अंतर्मन टटोलती जिसने रंग भरे हैं न्यारे कितने सुंदर कितने प्यारे कितनी सुघड़ है उसकी कूची गलती  की न कोई सूची देख देख संसार की शोभा मन ही मन सोचती किसकी है ये सुंदर रचना जिज्ञासा मन डोलती हरा रंग बना खुशहाली लाल बना है मंगलकारी श्वेत बना शांति का दूत है काला बना अज्ञान प्रतीक है इंद्रधनुषी रंगों से ये दुनिया कितनी सुन्दर लगती नित दिखते नए रंग इसमें कूची कोई न दिखती पीला रंग बन बसंत जीवन में खुशियां भरता जलधि आसमां का रंग मन का संताप है हरता इन रंगों से सजी ये धरती कितनी सुंदर दिखती चित्रकार की चित्रकृति मन को है हर्षित करती। अभिलाषा चौहान    

पल ही सत्य है

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हर पल कहता है कुछ फुसफुसा कर मेरे कानों में मैं जा रहा हूँ जी लो मुझे चला गया तो फिर लौट न पाऊंगा बन जाऊंगा इतिहास करोगे मुझे याद मेरी याद में कर दोगे फिर एक पल बर्बाद इसलिए हर पल को जियो उठो सीखो जीना अतीत के लिए क्या रोना भविष्य से क्या डरना यह जो पल वर्तमान है है वही परम सत्य बाकी सब असत्य यही कहता है हर पल फुसफुसा कर मेरे कानों में । अभिलाषा चौहान 

जीवन में समस्याओं का कारण

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कभी-कभी मन वैचारिक झंझावातों में घिर जाता है जीवन को लेकर अनेक प्रश्न उठने लगते हैं ? न हमें जन्म से पूर्व का पता होता है और न मृत्यु के बाद का, फिर भी हम इस संसार की माया में उलझ कर जीवन को इस कदर मुश्किल बना लेते हैं कि जीना भूलकर समस्याओं का समाधान करने में पूरी उम्र निकल जाती है। सही मायने में में जीवन को जीना भूल जाते हैं और अंत समय पछताते हैं।    माना कि जीवन जीने के लिए मिला है, तो जियो न, किसने रोका है , किन्तु उसे इतनी  संकीर्ण सोच के साथ मत जियो कि जैसे उस पर तुम्हारा ही एकाधिकार है। सच पूछो तो यही भ्रम  सभी समस्याओं की जड़ है।     अपनी संतान से लेकर निर्जीव वस्तुओं पर एकाधिकार जमाने और उसके लिए लडने की प्रवृति ने मनुष्य को सत्य से भटका दिया है मत भूलो कि ईश्वर ने हमें किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु मानव जन्म दिया है इसलिए बिना किसी चाह के अपने कर्तव्यों की पूर्ति करो,तभी सच्चा सुख मिलेगा। अभी दूरदर्शन पर एक परिवार का झगड़ा चल रहा था । माता पिता पुत्र से अपेक्षा कर रहे थे कि उन्होंने उसे पढाया लिखाया इसलिए वह धन कमाए और उनकी सेवा करे जबकि पुत्र माता पिता के आए दिन होने वा

क्षणिकाएं (घटा, फुहार, गर्जना.....)

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    **   घटा  ** घिर के आई फिर घटा याद आने लगा फिर जीवन में जो भी था घटा।      ** फुहार** गिरने लगी रिमझिम फुहार मन मचल करता गुहार मत खोलो अब यादों के द्वार।     **गर्जना** गरजते हैं जोर से बादल धडकने लगता मेरा दिल और भी मैं होती विकल ।      **दामिनी** कड़क उठती जब दामिनी तब दर्द की यादें घनी बढा जाती हैं बैचेनी।      **छटा** निखरने लगी प्रकृति की छटा हटने लगी सारी धुंध भी छाया था मन में जो अंधकार धीरे धीरे वो भी छटा।       **ऊषा** हुआ ऊषा का अब आगमन हुआ दर्द का तब निगमन खिल उठा फिर खुशियों का चमन। अभिलाषा चौहान

बढती जाती और तृष्णा

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तृषित चातक सम मन भटकता सदा इस संसार में तृषा स्वाति बूंद की है कभी मिटती नहीं बढती जाती तृष्णा नित अग्नि सम धधकती हुई अनभिज्ञ है मन उस ज्योति से जो हृदय में है जल रही नहीं मिलता वह ज्योति पुंज जो हृदय में है छुपा ढूंढता फिरता उसे मन ऐसे इस नश्वर संसार में जैसे कस्तूरी मृग वन में फिरे कस्तूरी को ढूंढता मोह का अंधकार घना लोभ का बढा मायाजाल है संतोष और धैर्य से मन हुआ कंगाल है ध्यान की बात मन में कभी आती नहीं तृष्णा से मुक्ति तभी तो मिल पाती नहीं ढूंढती ही जा रही होके मैं बावरी डूबकर माया में तृप्ति रस की गागरी सांसारिकता की मृगमरीचिका ध्यान अपनी ओर खींचती बढ जाती है और तृष्णा जब तक ज्ञानज्योति जलती नहीं। अभिलाषा चौहान

कुछ दोहे.. (विषय-तृष्णा)

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1* तृष्णा ऐसी डाकनी,मन को हर ले चैन।                                                      जाके हृदय जे उपजे,सदा रहे बैचेन ।।                        ****        2*  जाके मन ना संतोष,जाके मन ना धीर।   तृष्णा पीड़ित वा मनुज,रहता सदा अधीर। ।                         ****            3*मन में माया मोह की,जाके है जंजीर।                     वाकी तृष्णा ना मिटी,मिट मिट गया शरीर।।                         **** 4*मन में बसे विकार हैं,माया उलझी देह।                       तृष्णा पीडित वा मना,ना जावे हरि गेह।।                         **** 5*नश्वर इस संसार में ,भटके मन दिन रात।                     ध्यान लगावन जब चलूं,तृष्णा मन भटकात ।।                       **** 6*राधे राधे मैं भजूं,भजन करूं दिन रात।                 तोऊ तृष्णा ना मिटी,क्षीण भयो है गात ।।                       **** 7*मेरे मन में लौ लगी,करों राम सों भेंट।                     ज्यों ज्यों जे तृष्णा बढी,बढो राम सों हेत ।।                      **** ** **अभिलाषा चौहान ****

हे मजदूर

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मजदूर तुम बहुत सुखी हो जो आज को जीते हो न तुम्हें चिंता कल की न ही भविष्य की घर हो न हो छत हो न हो फिर भी नित नए घर बनाते हो घरवालों के सपने सजाते हो दबा के चंद सिक्के मुट्ठी में बिना किसी चाह व शंका के तुम अपना चूल्हा जलाते हो न तुम्हें चिंता पद की न रूतबे की न दिखावे की न किसी चोरी की दिनभर अथक परिश्रम बस बिना किसी तृष्णा के बिना किसी लोभ के कितनी मीठी नींद सो जाते हो जरा देखो उसे जिसके घर भी है रुतबा भी है पद भी है साजोसामान भी और आराम भी फिर भी उसका जीवन घिरा है तृष्णाओं से चिंताओं से बीतती रात शैया में करवटें बदलते सुविधासंपन्न ये आदमी कितना दुखी है किंतु हे मजदूर तुम बहुत सुखी हो  । अभिलाषा चौहान

अहम-वहम

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अहम और वहम दुश्मन इंसान के जो निभाते हैं दुश्मनी बडी़ शिद्दत से इन्हें पालकर जीता है इंसान इस भ्रम में  सब कुछ हैं हम अहम ने किया न जाने कितने शहंशाहों का अंत मिट गए वजूद पर न मिटा अहम वहम ने उजाड़े  न जाने कितने परिवार छिन गया सुकून लुट गया सुख फिर भी न मिटा अहम न मिटा वहम ये जडें जमा बैठें हैं इंसान के जीवन में मकडी के जालों से  इनमें फंसा इंसान फडफडाता है पर अपने बुने जालों से मुक्त कहां हो पाता है लुटा अपना सर्वस्व भ्रम में ही मिट जाता है।  अभिलाषा चौहान 

मेरी मातृभाषा हिंदी

हिंदी को तुम कम मत आंको भले किसी भाषा में झांको इसमें देखो कितनी क्षमता सब भाषाओं से इसको ममता सबको आत्मसात कर लेती कभी किसी से भेद न करती जन जन की ये बोली प्यारी मधुर मधुर है ये सबसे न्यारी संसार बड़ा समृद्ध है इसका बोलो ऐसा और है किसका रस का झरना इसमें बहता शब्द शब्द हर बात है कहता मेरी मातृभाषा मुझको प्यारी मैं जाऊं इस पर बलिहारी अभिलाषा चौहान 

उस क्षितिज तक मुझे जाना है

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अवनि अंबर का जहां होता मिलन जहां मिल कर झूमें धरती गगन सुनती हूं वहां है खुशियों का चमन उस क्षितिज तक मुझे जाना है सुनती हूं एक नई दुनिया वहां इस जहां से न्यारा है वो जहां दुख का नहीं है नामोनिशान वहां रहते सूर्य चंद्र तारे जहां उस क्षितिज तक मुझे जाना है माया मोह का नहीं कोई जाल वहां न कोई स्वार्थ व धोखे का व्यवहार वहां उस क्षितिज तक मुझे जाना है सुनती हूं सत्य ने बसाया अपना संसार वहां परमेश्वर भी करते हों निवास जहां उस क्षितिज तक मुझे जाना है सत्य का साक्षात्कार मुझे पाना है। अभिलाषा चौहान

दूर क्षितिज पर

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जलधि के तट पर खड़ी निहारती उत्ताल तरंगों को सम्मोहित सी मैं डूब जाती हूँ  उस अनिर्वचनीय  सौंदर्य में देखती मेरी निगाहें उल्लास का अतिरेक जब दूर क्षितिज पर  मिलते अवनि अंबर  करते प्रेम का इजहार  तब लहराती तरंगे छू लेना चाहती आकाश तैरते बादल खंड साक्षी हैं इस मिलन के आतुर खगवृंदों की अवलियां बन गलहार सुशोभित होती जैसे वर वधू ने पहनाई इक दूजे को जयमाल सुरभित पवन होके मगन कर रही मंगलगान रश्मिरथी का आ रहा यान देने नवजागरण का संदेश भूल गई मैं अपनी सुध देख क्षितिज का सौंदर्य अनुपम मेरी रचनाएं स्वरचित है। अभिलाषा चौहान 

भोर हुई

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भोर हुई प्राची दिशा में क्षितिज पर छाई लालिमा छटने लगी कालिमा आ गए अरुण ले दिनकर का रथ वसुधा पर फैली उर्मियां मोती सी चमकी ओस की बुंदियां उड चली विहग अवलियां क्षितिज की ओर चटकने लगी कलियाँ बन पुष्प स्वागत में दिनकर के जाग्रत हुआ जीवन हर्षित हुआ तन मन बहने लगा मलयानिल सुगंधित हुआ वातावरण निखरा प्रकृति का  रूप वसुधा बनी दुल्हन हुआ अवनि अंबर का मिलन क्षितिज से क्षितिज तक सो गए तारकगण ढांप कर अपना मुख सर्वत्र बिखरा सुख ही सुख अभिलाषा चौहान

सुनो मेरे मन मितवा

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मैं थाम तुम्हारा हाथ छोड़ कर सबका साथ चली आई ओ मितवा निभाना प्रीत की रीत सदा बन मेरे मनमीत मैं गाऊं प्रेम के गीत सुनो ओ मितवा देना मेरा तुम साथ रहे हाथों में सदा हाथ तेरी बिंदिया चमके मेरे माथ सुनो ओ मितवा मैं बन जाऊं धडकन तुम बन जाओ प्राण न रहे हमारे बीच कोई अहम की दीवार सुनो ओ मितवा लिए सात वचन जो साथ हम निभायेंगे एक साथ करेंगे पूरे सारे फर्ज बस इतनी सी है अर्ज सुनो मेरे मन मितवा अभिलाषा चौहान

चलो चलते हैं

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मन से मन मिले प्रेम पुष्प खिले ओ मीत मेरे चलो चलते हैं कहीं दूर जहां जिंदगी मुस्काए बांहें फैलाए मैं-तुम , हम बन जाए चलो चलते हैं दूर बहुत दूर उस क्षितिज तक जहां हो मिलन जैसे धरती-गगन हम होके मगन एक हो जाए ओ मितवा चलो चलते हैं जीते हैं कुछ पल जिंदगी के सुनते हैं मन की आवाज छेड़ प्रेम का साज मिले सपनों को परवाज जी ले अपना आज ओ मितवा प्रीत पथ चुन के सांसों की धुन पे नया गीत गुनगुनाए जीवन बन जाए सरगम अभिलाषा चौहान चित्र गूगल से साभार 

ओ नंदलाला

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ओ नंदलाला कृष्ण कन्हैया कितनी व्याकुल तेरी गैया न कोई ग्वाला न रखवाला दर दर की ठोकर हैं खाए तुम बिन उनका कौन सहाए ओ कान्हा ओ नंदलाला ब्रज की बहुत दशा बुरी है अब न बजत तेरी बांसुरी है व यमुना किस्मत को रोए जाने कबहुं तेरे चरण धोए अब तो बन गई गंदा नाला तेरे बिन कोई नहीं रखवाला अब न रहीं व कदंब की छैंया जहां पडे थे तेरे पैंया वे मधुवन वृंदावन सांवरे अब तो बन गए तीर्थ धाम रे तीरथ करने हर कोई जाए मन का तीरथ न कर पाए आके ब्रज की दशा विचारो दुखियन को तुम उपकारो ओ नंदलाला कृष्ण कन्हैया हर ओर कालिया नाग फुफकारे को करे कालिया दहन सांवरे तुम बिन कोई नहीं सुनवईया पाप की गगरी अब तो भर गई अब तो बात हाथ से निकल गई एक बार फिर जन्मों नंदलाला करो लीला यशोमती के लाला अभिलाषा चौहान

स्वभाव मेरा

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लकीर पीटना स्वभाव नहीं मेरा बंधनों में बंधना स्वभाव नहीं मेरा परंपरा का पालन स्वभाव नहीं मेरा मैं हूं प्रगतिवादी समय के साथ ढल जाती हूं लेती हूं सांस खुली हवा में नवीनता की सुगंध महसूस करना है स्वभाव मेरा बंधी हुई परिपाटी से आती दुर्गंध मुझे विचलित करती है बेड़ियों में जकड़ा ये बैरी समाज काट देना चाहता है मेरे पर घोंट देना चाहता है मेरी आवाज़ कितनी ही आवाजें दफन हो गई कितने ही बलि चढ गए कुप्रथाओं के बने लकीर के फकीर दुहाई देते दकियानूसी विचारधारा की परिवर्तन से है एतराज इन्हें घुट रहा है दम जाने कितने मासूमों का कुचल जाते हैं न जाने कितने अरमान इसके तले इससे आंखें मूंदें रहना मेरा स्वभाव नहीं परिवर्तन की आवाज उठाना है स्वभाव मेरा अभिलाषा चौहान