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चेतना कैसे जगाओ

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सुप्त हैं संवेदनाएँ चेतना कैसे जगाओ बन चुके पाषाण हैं जो पीर उनको मत सुनाओ। बोलती ये लेखनी भी आज हिम्मत हारती है प्राण नीरस हो गए हैं प्रीत भी धिक्कारती है सो रहें हैं भाव मन के गीत कैसे गुनगुनाओ।। बात मन की सुन सके जो है भला अब कौन ऐसा दूरियों को पाट दे जो प्रश्न ये अब शून्य जैसा मौन की भाषा पढ़े जो कौन पाठक है दिखाओ।। आज हिय में है उदासी आस भी मरती हुई है वेदना हलचल मचाती बात ये तो अनछुई है हो चुकी निस्तेज सी जो वह कलम कैसे चलाओ।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आस ढलती साँझ जैसी

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आस ढलती साँझ जैसी बढ़ रहे इन फासलों से नैन गगरी छलछलाती टूटते इन हौंसलों से।। शुष्क होती भावना अब है हृदय पाषाण सा क्यों कर्ण भेदी चीख सुनकर मूक बन रहते सभी ज्यों जब मसलती कली कोई रात की इन हलचलों से।। द्वार पर बैठी निगाहें ढूँढती फिरती ठिकाना आँख का तारा कभी तो प्रेम से चाहे बुलाना पीर की विद्युत चमकती कष्ट के इन बादलों से।। टूटती ये चूड़ियाँ भी घाव तन के हैं दिखाती माँग में सजता लहू जब धर्म वे अपना निभाती साँस घुटती प्रीत की जब बोझ बनते इन पलों से।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

छाई सारी धुंध छटे

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गुँथे पुष्प जब एक डोर में सुंदर सी बनती माला भेद मिटे बस रंग खिले अब तम का हट जाए जाला।। कबसे देखें सूनी आँखें बँटवारे की लीक हटे भावों की उर्वर भूमि पर छाई सारी धुंध छटे बहे प्रेम तब बरसे करुणा द्वेष-घृणा पर हो ताला।। इक माटी में उपजे पौधे कैसे भूले ममता को लता वृक्ष से लिपट दिखाए कैसे अपनी समता को अंहकार सिर चढ़ कर बोले स्वार्थ बना ऐसी हाला।। अंतस में खिल उठे कुमुदिनी मन चातक की प्यास बुझे अंतर्तम की खोलो आँखें देख राह फिर नई सुझे हृदय किरण जब करे बसेरा छटता अंधकार काला।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक