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पूर्ण होता देख सपना

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भोर उजली स्वर्ण जैसी नीड़ में पंछी चहकता पुष्प खिलकर झूमते से केश ज्यों गजरा महकता। आस की चटकी कली अब दे रही संकेत ऐसे दर्द का अब अंत होगा रात ढलती देख कैसे जब खुशी आहट सुनाती तितलियों सा मन बहकता। आज प्रज्ञा भ्रामरी सी डोलती फिरती गगन में और रजकण चूमती सी हो रही कितनी मगन मैं खेलता हैं आज आँगन सूर्य जो नभ में दहकता। है वही संसार सारा आज लगता देख अपना प्रेम से पावन धरा ये पूर्ण होता देख सपना जीतता है युद्ध जीवन सोच कर ये मन लहकता।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

पीर बनती पर्वती है

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देख जलते घर किसी के रोटियाँ उनपर न सेंकों टूट बिखरे देख सपने दाँव उनपर यूँ न फेंकों। लीलती हैं प्राण कितने भूख ये जो बलवती है सूखते नयनों के आँसू पीर बनती पर्वती है मनुजता सिर को पटकती धूर्त जब मिलते अनेकों।। सांत्वना के बोल सुनते वर्ष कितने बीत जाते शून्य जीवन हाथ खाली भेंट में बस मौन पाते झेलते हैं रोज संकट घाव मिलते हैं अनेकों। मूक सी इस व्यवस्था ने छीन ली हैं  सब उमंगे रीति नीति जड़ बनी है कब उठी उनमें तरंगें अटकलों की व्यंजना ये लिख रही चिट्ठी अनेकों।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

गूँज शहनाई हृदय से

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तार मन के बज उठे हैं भाव देते ताल लय से गूँजती है आज सरगम देह तंत्री के निलय से।। पंखुड़ी खिलती अधर की मंद स्मित डोलती सी नैन पट पर लाज ठहरी मौन है कुछ बोलती सी स्वप्न स्वर्णिम भोर जैसे देखती है नेत्र द्वय से।। इंद्रधनुषी सी छटा अब दिख रही चहुँ ओर बिखरी धड़कनों की रागिनी में कामनाएँ आज निखरी प्रीत की रचती हथेली गूँज शहनाई हृदय से।। है नवल जीवन सवेरा हंस चुगते प्रीत मोती प्राण की उर्वर धरा पर भावनाएँ बीज बोती खिल उठा उपवन अनोखा चहकता है अब उभय से।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

मौत से उद्धार तक

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छप्परों में भूख चीखी भोर के विस्तार तक पीर पानी बन बहे जब डूबता संसार तक। अलसते चूल्हे उनींदे आग जलती पेट में चीथडों से दर्द झाँके शून्य मिलता भेंट में भीख जीवन माँगता है मौत से उद्धार तक।। धूप तन को छेदती है छाँव बैरी बन चले आस के सब पुष्प झरते देह चिंता में गले कष्ट का हँसता अंधेरा बादलों के पार तक।। छा रही है कालिमा जो लीलती खुशियाँ सभी ये घुटन दम घोंटती है प्राण ज्यों निकले अभी साथ चलती है उदासी हारता है प्यार तक।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भाव शून्य में ठहर गए

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डोल उठी जीवन की नैया  सुख के सारे पहर गए अंधकार ने डेरा डाला झेल रहे हैं कहर नए। रोग चाटता दीमक जैसे कौन सुने मन की बातें अपने-अपने दुख में उलझे काल करे कितनी घातें। टूट रही खुशियों की माला मनके सारे छहर गए। कौड़ी-कौड़ी जोड़-जोड़ कर महल बनाया सपनों का एक बंवडर आया ऐसा रूप दिखाया अपनों का चक्रवात अंतस में उठते भाव शून्य में ठहर गए। गंधहीन सब पुष्प हुए अब धूप चुभोती तन में शूल उजड़े-उजड़े कानन सारे चाँद गया है हँसना भूल काले बादल घिर कर आते देख काँप हम सिहर गए। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'