मौत से उद्धार तक
छप्परों में भूख चीखी
भोर के विस्तार तक
पीर पानी बन बहे जब
डूबता संसार तक।
अलसते चूल्हे उनींदे
आग जलती पेट में
चीथडों से दर्द झाँके
शून्य मिलता भेंट में
भीख जीवन माँगता है
मौत से उद्धार तक।।
धूप तन को छेदती है
छाँव बैरी बन चले
आस के सब पुष्प झरते
देह चिंता में गले
कष्ट का हँसता अंधेरा
बादलों के पार तक।।
छा रही है कालिमा जो
लीलती खुशियाँ सभी
ये घुटन दम घोंटती है
प्राण ज्यों निकले अभी
साथ चलती है उदासी
हारता है प्यार तक।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 07 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया 🙏🙏
हटाएंछप्परों में भूख चीखी
जवाब देंहटाएंभोर के विस्तार तक
पीर पानी बन बहे जब
डूबता संसार तक।..
बेहतरीन रचना, सुन्दर संयोजन। मेरी समझ से यह रचना आपकी श्रेष्ठ रचनाओं में आएगी।
छप्परों में भूख चीखी
भोर के विस्तार तक
पीर पानी बन बहे जब
डूबता संसार तक।
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई व साधुवाद आदरणीय अभिलाषा जी।
सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 आपकी प्रेरणादायक प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ🙏🏻🙏🏻सादर
हटाएंछप्परों में भूख चीखी
जवाब देंहटाएंभोर के विस्तार तक
पीर पानी बन बहे जब
डूबता संसार तक। ...
बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी नवगीत...
साधुवाद 🙏🌹🙏
सहृदय आभार आदरणीया 🙏🙏 सादर
हटाएंसुंदर सृजन आदरणीय दी।
जवाब देंहटाएंसादर