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ये नीला अनंत विस्तार

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ये नीला अनंत विस्तार, ये रहस्यमयी संसार। कौन रहता है वहां, उस नील नभ के पार। सुना है एक लोक, गगन के उस पार है। नहीं कोई दुख वहां, सुखद वह संसार है। ये ज्योतिर्मय सूर्य नभ में, उस लोक का पता बता रहा। ये गगन की नीलिमा है या, पट किसी का फहरा रहा। लो रजनी ने डाला डेरा , खो गई अब नीलिमा। पहन कर तारों का हार, शोभती है ये कालिमा। वो झांकता है चंद्र या, चंद्र मुख कोई झांकता। या गगन ही चंद्र रूप में, रहा धरा को ताकता। मिलकर भी मिलते नहीं, धरती-गगन साथ में। दूर क्षितिज पर लग रहा, डाले हाथों में हाथ हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित

हटा लो घूंघट

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अज्ञान का घूंघट हटा, देख तो उसकी छटा। तू जिसे है ढूंढ़ता, बंदे तेरे ही पास है। माया का घूंघट पहन, मोह का तू करे जतन। माया का घूंघट हटा, अंतर्मन की ज्योति जला। आत्मा है अपने पिय की, प्यारी सी दुल्हनिया। भटकती रहती सदा, पिय मिलन को बावरी। कितने घूंघट पहने हैं तू, संसार के भ्रमजाल में। एक बार हटा दे इनको, सत्य होगा फिर सामने। क्यों छिपाता है इसे, जो कभी छिपता नहीं। प्रिय मिलन को रोकना, है तेरे बस में नहीं। कह गए हैं संत सारे, अज्ञान का घूंघट हटा। निखरने दे संवरने दे, आत्मा की सुंदरता। अभिलाषा चौहान स्वरचित

अवसाद से घिरा जीवन

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आपा-धापी का जीवन, अवसाद से घिरा जीवन मान ही लेता है हार, या हार जाता है जीवन!! बेरोजगारी ! गरीबी ! फाकाकशी ! अपनों का दगा ! बढ़ती ख्वाहिशें ! इनमें फंसा व्यक्ति, डूब ही जाता है अवसाद में। टूटते रिश्ते, जीवन पर बढ़ता दबाव, करते हैं हौसला पस्त... जीवन जीने की जद्दोजहद, भंवर में फंसा आदमी !! निकलने की करता कोशिश, नहीं नजर आता किनारा... मौका-परस्त हिम्मत ! अक्सर छोड़ देती साथ, डूब ही जाता है आदमी, अवसाद के भंवर में...!! छात्र,युवा,गृहस्थ, लड़ते रोज जिंदगी की जंग !! दिखते जब जीवन के रास्ते तंग, प्यार का सूखा मरूस्थल !! अपनों की खुदगर्जी, बाहरी दुनिया के छल-छंद, छीनते रूमानियत, तन्हा,बेबस, असफलता ... की आशंकाओं, से घिरा आखिर, डूब ही जाता है अवसाद में !! अकेलेपन की मार, वृद्ध-लाचार..!! स्वाति-बूंद सम प्रेम पाने, की चाहत !! दरवाजे को तकती निगाहें .... एक लंबा इंतजार...! बेबस वृद्ध मां-बाप, आखिर डूब ही जाते हैं, अवसाद में । यंत्र-समान यांत्रिक जीवन, हर इंसान को..! आखिर दे ही देता है, अवसाद का तोहफा, खुशियों का झूठा मुखौटा !! तन्हा,अकेला ,बेबस..!

बोझ तो बोझ ही होता है...!

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बोझ, किसी भी सूरत में होता है बोझ। बोझ, मन का मार देता मन को। ढोते लाश , जीते मर-मर कर। बोझ, जब बनती बेटी, बदल जाती किस्मत, बेचारी की। पराया धन बनकर, रहती मां-बाप के घर। ससुराल में भी, नहीं अपनाई जाती, होती पल-पल प्रताड़ित। बोझ समझ, बेटियों को गर्भ में ही, मार दिया जाता..!! या फेंक दिया जाता, मरने को...!! झाड़-झंखाड़ में। बोझ, समझना, किसी कार्य को, तो होता मुश्किल..., उसको करना.., जैसे अनचाहे ही ढोते हों बोझा..! मर जाता उल्लास..! मन का, खत्म होती, नया करने की चाह !! घिसटते हुए, रोज मरते थोड़ा-थोड़ा, मर जाती..! जीने की आस..! बस जीते रहते हैं..! अनचाहे, ढोते बोझा..! जीवन का। नाकारा..! आलसी...! अकर्मण्य..!! बनते बोझ, परिवार,समाज,देश पर!! बोझ बस बोझ होता है, जो बदल देता, फितरत इंसानी...!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

खंडहर-सी जिंदगी

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दरकते मकान, आखिर  ढह ही जाते हैं। दरकते रिश्ते भी , आखिर टूट ही जाते हैं। जरूरत है दोनों को, समय पर सम्हाला जाय। कोई कमी हो , तो उसे संवारा जाए। खंड-खंड होते , कहीं खंडहर ही न बाकी बचे। जिंदगी कहीं, वीरान न होने लगे। छिन न जाए , कहीं लबों की मुस्कुराहट                              अकेलेपन,                  की सुन लेना जरा आहट। दरार का, अंदेशा हो तो मरम्मत कर लेना। दरारों को , बेवजह बढ़ने मत देना। खंडहर-सी, जिंदगी में भटकती ये आत्मा। कैसे पाएगी चैन खुशियों का होगा खात्मा। उजड़ जाएगा , चमन निशां बाकी रह जाएंगे। पछताने, से फिर कहां कुछ पाओगे ! आंधियां , तुम्हारे कदमों के निशां मिटाएंगी। इतिहास , बन कर भी नजर नहीं आओगे। अभिलाषा चौहान

दर्शन है यात्रा...!!

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दर्शन है, यात्रा! द्वैत से अद्वैत की असत्य से सत्य की। दर्शन कराता बोध, इहलौकिक जगत , के प्रपंचों की सत्यता का, संसार की नश्वरता का। दर्शन मार्ग है, मिलन का , आत्मा का परमात्मा से! आधार अध्यात्म का। ईश्वरीय सत्ता , के आभास का। दर्शन कराता, साक्षात्कार, आत्मा के सर्वव्यापी रूप का। दर्शन से मिटता, करणीय-अकरणीय , का द्वंद्व। सांसारिकता से होता, मोह भंग । यह पथ है , अंत से अनंत की, अंधकार से प्रकाश की, अज्ञान से ज्ञान की यात्रा का। दर्शन से मिटता देह से मोह, उद्देश्य का होता बोध, कर्त्तव्य-कर्म होता प्रधान। सृष्टि के रहस्य , जगाते जिज्ञासा। खुलता चिंतन का मार्ग, लोक-कल्याण का, मार्ग होता प्रशस्त। इसी पथ पर , मिलता निर्वाण। दर्शन है, भगवतगीता का सार, आत्मा का प्रसार, चिंतकों, विचारकों, के चिंतन का मार्ग, भक्ति मार्ग का आधार। अभिलाषा चौहान स्वरचित

शाश्वत सत्य

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प्रवाह है निरंतरता, अनवरत गतिशीलता। जो अनिवार्य है तत्त्व, इस सृष्टि चक्र का। समय के प्रवाह में, मिटते गए कालखंड, भोग प्रकृति का दंड। युग बदलते गए, इतिहास बनते गए। संस्कृति प्रवाह बनी, सभ्यता गवाह बनी। विचार गढ़ते गए, परंपरा बनते गए। समय के साथ जो चले आदर्श बन कर पले। थमे जो बने रूढ़ियां, या बने थे बेड़ियां। प्रवाह जब भी थमा, छा गई थी कालिमा। क्रांति के फिर स्वर उठे, प्रवाह को गति मिले। काव्य के प्रवाह में, छुपी है नवचेतना। भावों के रसधार में, निहित है संचेतना। उम्र के प्रवाह में, बहती गई जिंदगी, थमी,मौत से हुई बंदगी। नदियों के प्रवाह में, अतिक्रमण जब हुआ। रौद्र रूप धर सरिता ने, उसका था विनाश किया। जीवन का प्रवाह , सनातन और शाश्वत है। रूकता नहीं कभी, सत्य ये चिरंतन है। अभिलाषा चौहान स्वरचित

व्यथित मानवता

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मानवता शुष्क होती जा रही है, चमक अपनी खोती जा रही है। स्वार्थ का आवरण लिपटा जबसे, तबसे अंधेरे में खोती जा रही है। करूणा के बादलों ने है मुख मोड़ा, दया और सेवा ने भी साथ छोड़ा। अहंकार के ओले गिरने लगे हैं, बढ़ती घृणा ने कहीं का न छोड़ा। सद्भावना का अकाल पड़ा है, आदमी ,आदमी से कैसे दूर खड़ा है। लगती है कीमत रिश्तों की यहां पर, दुर्भावना का दैत्य सिर उठाए खड़ा है। सुलगती दिलों में ईर्ष्या की अग्नि, जंगल को जलाती जैसे दावाग्नि। उठती हैं लपटें,नैतिकता भस्म होती, मानवता सिर पटक कर है रोती। सिसकती है खंडहरों में ढूंढ़े सहारा, मानव ने किया मानवता से किनारा। विधवा हुई वह किस्मत की मारी, तलवार लटकी उस पर दुधारी। कभी सड़क पर वह कुचली जाती, कभी सरेआम उसकी इज्जत है लुटती। कभी भटकती है दर-दर हाथ फैलाए, बेआबरू मानवता हर पल है होती। फिर भी है बैठी उम्मीद लगाए, कभी उसका सूरज निकल के तो आए। कभी धुंध ये अवश्य ही हटेगी, मानवता फिर से सुहागन बनेगी। अभिलाषा चौहान

आस्था का संगम

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संगम, दो संस्कृतियों का, या हो नदियों का, या विचारधाराओं का, देता एक नवीनता, को जन्म। जिसमें तिरोहित हो जाते, पुरातनपंथी विचार। विकास की लिखते, नयी इबारत। अनेक संस्कृतियों के, संगम से, उत्पन्न वैश्विक संस्कृति, विश्व को एकता सूत्र में बांधती। संगम का पवित्र रूप, प्रयागराज। जहां लगा कुंभ, वैश्विक आकर्षण का केंद्र! अद्भुत, अद्वितीय! गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम! भक्ति,शक्ति,विरक्ति का अनोखा संगम। धर्म-संस्कृति का, अद्भुत दर्शन! सनातन आस्था का केंद्र!  देता विश्व को संदेश! धर्म-संस्कृति, हैं देश की एकता की नींव, अखंडता का प्रतीक! जहां हो जाता, सभी धर्मों- जातियों का संगम। नहीं रहता भेद। पंच प्रयाग, जहां होता संगम, नदियों का। जो प्रतीक हैं आस्था का, जहां समाहित हो जाते सभी मतभेद। बस दिखता वसुधैव कुटुंबकम्। अभिलाषा चौहान स्वरचित

ये कैसे शहर..??

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शहर दर शहर, कुकुरमुत्ते से- उगते कंक्रीट के जंगल! वाहनों की रेलमपेल..., लोगों का हुजूम, घुटता पर्यावरण का दम। शहरी संस्कृति...! व्यक्ति से अपरिचित व्यक्ति, अपने में खोया.….! करता जीवन के लिए संघर्ष ! शहर ...! बेहिसाब चकाचौंध, आपा-धापी, लंबी कतारें...! भीड़ संस्कृति इसकी पहचान ! दिखावे की दुनिया, नीरस जीवन। ये शहर ... पत्थर का, पत्थर के हैं लोग दिल भी पत्थर...! जिसके कान बहरे..! जो नहीं देख पाता...! निरीह की पीड़ा..! बेबस अबला की पुकार..! जहां कुचलते अरमान, टूटते सपने, कीड़े-मकोड़ों सम..., जीवन जीने को मजबूर आदमी..! ये शहर..! चालाकी,ठगी..! बदनीयती से घिरा..! जहां मुखौटे बनाते हैं अपना अस्तित्व..! जहां इंसानियत खोजती अपना अस्तित्व!! अभिलाषा चौहान

वर्ण-पिरामिड(मातृभाषा हिंदी)

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है हिंदी महान मातृ-भाषा संपर्क-सूत्र राष्ट्र का गौरव जगत-वंदनीय। है हिंदी वंदिता जन-मन समृद्ध-शाली भाव-रसधार जगत-शोभनीय। अभिलाषा चौहान

प्रेम-बंधन

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प्रेम-बंधन, असीमित, अलौकिक! संसार-सार, जीवन-विस्तार.., आत्मीय आनंद..! जुड़ते मन के तार। प्रेम-बंधन जहां, वहां सद्भावों का उत्कर्ष, हो आनंद का उन्मेष। देता परत्व को आकार, हो मनुष्यत्व का प्रसार। प्रेम बंधन जहां, वहां प्रीति-प्रतीति.. झूठी है अनीति..! कुटिल कुरीति..! हो समत्व भाव, चाहे हो अभाव। प्रेम-बंधन है, आत्मा का प्रसार.. अंतर्मन की पुकार.. भावों का द्वार.. बंधनों की हार। प्रेम-बंधन जहां, नहीं मनभेद..! सब होते हैं एक, चाहे हो नहीं समक्ष, देश बसे या विदेश। अभिलाषा चौहान स्वरचित

सब का साथ

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सबका साथ ,सबका विकास, कितना दुष्कर है ये प्रयास। कहां पूरी होती है सबकी आस, लगाते रहते हैं बस कयास। 'सब' में निहित 'विश्वबंधुत्व' का भाव, जिसका दिखता है सदा अभाव। सर्वत्र व्याप्त है भेदभाव, 'सब' पर हावी बस'स्व'का भाव। सब' को लेकर चलना कठिन, 'सब' में अहम होता छिन्न-भिन्न। अहम का त्याग है बड़ा कठिन, रहती है सबकी मति भिन्न। 'सब'का साथ अति दुष्कर, चलना होता कंटक-पथ पर। 'सब' को प्रसन्न रखें कैसे, मनभेद मिटाना है दुष्कर। 'सब'में समता का भाव प्रबल, मन के भाव हैं अति दुर्बल। वैचारिक मतभेद मिटे कैसे, एकत्व का भाव नहीं है सबल। जाति-धर्म में बंटा समाज, आरक्षण में जलता आज। ऊंच-नीच का भाव प्रबल, 'सब'का भाव हो कैसे सबल ?? अभिलाषा चौहान स्वरचित

सरगम ही सरगम है

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संगीत के सप्त स्वर, सुर-ताल-लय का संगम, आरोह-अवरोह गतिक्रम, हृदय -भावों का स्पंदन, छेड़ता है राग मधुर, बनके जब गीत मुखर, गूंज उठती है मधुर सरगम।। वीणा की झंकार में, बांसुरी की तान में, मृदंगों की थाप में, शहनाई की धुन में, स्वर के आलाप में, कवि हृदय के विलाप में, सरगम ही सरगम है।। धड़कन की गति में, सांसों की तान में, जीवन की लय में, भावों के स्पंदन में सरगम ही सरगम है।। सागर की तरंगों में, गिरते हुए निर्झरों में, नदिया की कल-कल में, बहती हुई पवन में, सरगम ही सरगम है।। गृहिणी के कार्यों में, शिशुओं की क्रीड़ाओं में, कदमों की ताल में संसार की हर शय में, गतिमान सरगम है।। व्यथित हृदय की पुकार में, भावों के उतार-चढ़ाव में, कवि की कविता में, विचारों की सरिता में, गूंजती सरगम है।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

ढूंढती आसरा जिंदगी

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 आसरा,  जीवन का आधार।  पलता जीवन..!  अगर मिले,  आसरा सही।  लेकिन,  एक अदद रोटी ..!  की तलाश में,  भटकती देखी..!  जिंदगी सड़कों पर,  गुजरती देखी जिंदगी..!  फुटपाथों पर..!  छत भी न नसीब,  सिर छुपाने को..!  कौन देता है...?  आसरा उन्हें।  फटेहाल,  भीख मांगते,  भूखे-नंगे,  आबालवृद्ध...!!  ढूंढते आसरा..!  फुटपाथों पर..  चौराहों पर..  पुलों के नीचे..  गर्मी में तपते..  ठंड में ठिठुरते..  बारिश में भीगते..  होता कहां नसीब,  आसरा उन्हें...?  भेड़-बकरियों की तरह,  डंडे से खदेड़ती,  पुलिस..!  बुद्धिजीवी वर्ग देख,  लेता मुंह सिकोड़..!  टाट में लगे पैबंद सम,  आसरा विहीन लोग..!  हिकारत ,  भरी नजरों का,  करते सामना।  पेट की आग,  और...  आसरे की,  अंतहीन तलाश,  में भटकते..  बेसहारा लोग  लगाते हैं प्रश्नचिह्न  मरती हुई  मानवता पर...!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

हर आहट चौंका देती है!!

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हर आहट हमें चौंका देती है, सोए दिल के दर्द जगा देती है। ढूंढती है नजरें तेरे कदमों के निशां, हवाएं बेरहमी से उन्हें मिटा देती हैं। वक्त ने दबे पांव बदली करवट है, छीन ली हमसे हमारी मुस्कराहट है। यादों के घने जंगल से आती आहट, बढ़ा देती हमारी छटपटाहट है। अब तो मिलना भी तुमसे मुश्किल है, सम्हाले सम्हलता अब नहीं दिल है। मिल न पाएंगे ख्वाबों में भी कभी, सोच कर होती बहुत घबराहट है। नींद भी पास आते घबराती है, यादें बिन बुलाए चली आती हैं। हर आहट पर चौंक पड़ती हूं, आंखें आंसुओं से भीग जाती हैं। अभिलाषा चौहान

सत्य का बोध

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जलधि-तरंग..! अशांत-अस्थिर..! पाने को व्याकुल, परमसत्य को..! जैसे कर रही हो मंथन, मिल जाए अमृत..! मिट जाएं जग के संपीडन!! नष्ट हो जड़ता आए परिवर्तन। लड़ रही अस्तित्व की जंग, क्षणभंगुर तरंग !! तरंगों का प्रत्यावर्तन... कराता अस्थिरता का बोध। हर मिटती तरंग करती इशारा...! नहीं बदलता कुछ किसी के मिटने से, यथावत चलता संसार..! तरंग तोड़ती जड़ता का प्रसार। कराती असारता का बोध! मिटाती संशय! जगाती आत्मबोध! क्षणभंगुर जीवन में.. सत्य है बस आत्मा !! अभिलाषा चौहान स्वरचित

जिंदगी से इतने नाराज़ क्यों हो?

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जिंदगी से इतने नाराज़ क्यों हो! छुपाए इतने राज क्यों हो! कब सरक जाएगी हाथों से ये! बैठे किसी के इंतजार में क्यों हो? फितरतें इंसान की समझोगे कैसे, जिंदगी को जिंदगी समझोगे कैसे? साथ में हो सच्चा कोई हमराही, तो अकेले जिंदगी में रहोगे कैसे? तड़प अपनी दिल में न दबाना, जख्म को न कभी नासूर बनाना, हो अगर दर्द सहना मुश्किल,  तुम कभी आवाज तो उठाना। जिंदगी जिंदादिली से जीते हैं जो, हंसते-हंसते गमों से लड़ते हैं जो, लुत्फ जिंदगी का वो पूरा उठाएं, पल दो पल कभी उनके साथ बिताना। जिंदगी की खूबसूरती न भुलाओ, जिंदगी को बोझ तुम मत बनाओ। प्यार से इस पौधे को सींचना तुम, खुशियों से इसको आबाद बनाओ। अभिलाषा चौहान

आशियाना आत्मा का

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आत्मा का आशियाना , प्रभु का दिया शरीर। जिसमें रमती आत्मा जैसे मलय समीर। जिसमें रमती आत्मा, प्रभु मिलन की रखें चाह। पंचविकारों की बंदी बन, न पावे प्रभु की थाह। तड़पे है दिन-रात, चैन पल भर न पावे। बन कर बंदी आत्मा, मुक्ति की आस लगावे। जेल बना है आशियाना, कैदी सी फड़फड़ावे। भौतिकता में लीन, यह आशियाना न भावे। करती रहती सचेत, बुद्धि समझ न पावे। नश्वरता से मोह करे, यह आत्मा को न भावे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

उजड़ते आशियाने

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जीविका की तलाश में, दर-बदर वे भटकते। टीन-टप्पर जोड़कर, बनाते अपने आशियाने। वक्त की मार को, हंसते हुए झेलते। आशियाने में अपने, छोटे-छोटे सपने जोड़ते। चाह नहीं अट्टालिका की, या बड़े-बड़े महलों की। छोटी-छोटी बातों में ही, जीवन की खुशियां ढूंढते। जो भी है पास उनके, उसी का सुख हैं भोगते। नियति को स्वीकार कर, हंसकर जीवन जीते। व्यवस्था और बाहुबली, जब उनके सपने रोंदते। आंखों से छलकते आंसू, आशियाने जब उजड़ते। पाई-पाई जोड़ कर, दुनिया थी जो बसाई। निष्ठुरों ने अतिक्रमण, के नाम पर थी मिटाई। कुचल गए सपने सारे, उजड़ते इन आशियानों में। रह गए बाकी निशां बस, बाकी बचे जो अरमानों में। अपने ही देश में, बन जाते बेगाने से। एक फकत आशियाने की तलाश में घूमते। अभिलाषा चौहान

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

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आ गया नववर्ष है। नव रंग का उत्कर्ष है, हो सुहानी भोर नई। बीत गई सो बीत गई, नव स्वप्न के पल्लव बढ़े। नव भाव के पुष्प खिलें, जीवन को नव लय मिले। नववर्ष में कुछ नया करें, विगत से कुछ सीख लें। नवसुबह को नवराग से, नवीनता में ढाल दें। हर ओर हर्ष ही हर्ष हो, कम सभी के संघर्ष हो। खुशियों का उत्कर्ष हो। नवसंकल्पित मन हो, मन में नव उमंग हो। जीवन का नवोन्मेष हो, दूर सबके क्लेश हो। अभिलाषा चौहान