खंडहर-सी जिंदगी

दरकते मकान,
आखिर  ढह ही जाते हैं।
दरकते रिश्ते भी ,
आखिर टूट ही जाते हैं।
जरूरत है दोनों को,
समय पर सम्हाला जाय।
कोई कमी हो ,
तो उसे संवारा जाए।
खंड-खंड होते ,
कहीं खंडहर ही न बाकी बचे।
जिंदगी कहीं,
वीरान न होने लगे।
छिन न जाए ,
कहीं लबों की मुस्कुराहट                              अकेलेपन,                 
की सुन लेना जरा आहट।
दरार का,
अंदेशा हो तो मरम्मत कर लेना।
दरारों को ,
बेवजह बढ़ने मत देना।
खंडहर-सी,
जिंदगी में भटकती ये आत्मा।
कैसे पाएगी चैन
खुशियों का होगा खात्मा।
उजड़ जाएगा ,
चमन निशां बाकी रह जाएंगे।
पछताने,
से फिर कहां कुछ पाओगे !
आंधियां ,
तुम्हारे कदमों के निशां मिटाएंगी।
इतिहास ,
बन कर भी नजर नहीं आओगे।

अभिलाषा चौहान


टिप्पणियाँ

  1. प्रिय अभिलाषा जी दरकते रिश्तों पे आपकी चिंता वाजिब है |काश हर कोई इस बारे में सोचे जरुर | आभार |

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  2. सही बात, सही तरीके से... बहुत कुछ कर दिया बयां.. हेमन्त मोढ़:Film-Visualizer, फिल्मोग्राफी इंदौर...filmvisualizer@gmail.com

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