संदेश

दिसंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शून्य सारी भावनाएँ

चित्र
नयन निर्झर शुष्क से, शून्य सारी भावनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, मिल रही हैं यातनाएँ। हे पथिक !सुन लो समय की,माँग अब कहती यही है, क्षीण क्षणभंगुर जगत की,सोच बदलो तो सही है। कर्म कर्तव्य जान अपना,सार वेदों का यही है, पंथ पर कंटक चुभे तो,वेदना अंतर बही है। कल्पना कुसुमित हुई जब, जागती बस कामनाएँ। रिक्त जीवन शेष बाकी, भोगते हो यातनाएँ। कामिनी सी कल्पना को,सत्य में साकार करना, दीन दुर्बल दुर्गुणों को,शीश पर अपने न धरना। जीतना है ये समर तो,शौर्य साहस मन बसे, सत्य शांति और करुणा,प्रेम ही अंतर बसे। तुम जगत आधार बिंदु, तोड़ दो सब वर्जनाएँ। नियति को बदलो, उठो, क्यों सहो अवहेलनाएँ? धूल धुसरित स्वप्न सारे,अस्त होते सूर्य से, आग अंतर में जलाओ,फूँक कर इस तूर्य से। मृग मरीचिका से भ्रमित हो,राह से भटको नहीं, अटल संकल्प ले चलो अब,शीश यूँ पटको नहीं। राह रोकेंगी विपत्ति, चमकती ये चंचलाएँ। मौन मन मंथन करो, बदलेंगी ये धारणाएँ। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

होगा सुन तेरा संहार

चित्र
रौद्र रूप में धरती माता, प्रकृति प्रदूषित खाए खार। दर्प तुम्हारा सिर चढ़ बोले देखी नहीं समय की धार।। नद-नाले नदियाँ पर्वत सब, दिन-दिन खोते अपना रूप। ताल-बावड़ी पोखर झरने, सूख चले अब सारे कूप। वन-उपवन ये बाग-बगीचे, उजड़े सारे पक्षी नीड़। स्वार्थ सदा सिर ऊपर रखते, सुख साधन की चाहो भीड़।। दुर्भिक्षों को देते न्योता, बिन न्योते आए सैलाब। अपने सुख को आग लगाते, जल जाते हैं सारे दाव।। अपनी करनी पार उतरनी, माँग रहे क्यों जीवन भीख। बादल फटता धरती डोले, क्या तुमने उससे ली सीख?? विष की बेलें बोने वाले, ईश्वर को क्यों जाते भूल? उसने फूल भरे झोली में, स्वयं बिछाए तुमने शूल।। तिनके सा अस्तित्व तुम्हारा, लेकर उड़ता है तूफान। मैं मेरा बस करते करते सच से क्यों रहते अनजान?? पंचभूत को दूषित करके, बन बैठे हो बड़े महान। पोथी पढ़ पढ़ ज्ञानी बनते कभी न पाया सच्चा ज्ञान।। भौतिकता की चकाचौंध में, जीवन रस से रहते दूर। थोड़ा सा भी संकट आया, होते सारे सपने चूर।। अपना दोष मढ़ो औरों पर, अपने अंदर झाँके कौन। कर्तव्यों से पल्ला झाड़ो, कैसे हो जाते हो मौन।। पृथ्वी के वैभव को छीना, करते हो बस खुद से प्यार। भूल गए तुम ह