होगा सुन तेरा संहार
रौद्र रूप में धरती माता,
प्रकृति प्रदूषित खाए खार।
दर्प तुम्हारा सिर चढ़ बोले
देखी नहीं समय की धार।।
नद-नाले नदियाँ पर्वत सब,
दिन-दिन खोते अपना रूप।
ताल-बावड़ी पोखर झरने,
सूख चले अब सारे कूप।
वन-उपवन ये बाग-बगीचे,
उजड़े सारे पक्षी नीड़।
स्वार्थ सदा सिर ऊपर रखते,
सुख साधन की चाहो भीड़।।
दुर्भिक्षों को देते न्योता,
बिन न्योते आए सैलाब।
अपने सुख को आग लगाते,
जल जाते हैं सारे दाव।।
अपनी करनी पार उतरनी,
माँग रहे क्यों जीवन भीख।
बादल फटता धरती डोले,
क्या तुमने उससे ली सीख??
विष की बेलें बोने वाले,
ईश्वर को क्यों जाते भूल?
उसने फूल भरे झोली में,
स्वयं बिछाए तुमने शूल।।
तिनके सा अस्तित्व तुम्हारा,
लेकर उड़ता है तूफान।
मैं मेरा बस करते करते
सच से क्यों रहते अनजान??
पंचभूत को दूषित करके,
बन बैठे हो बड़े महान।
पोथी पढ़ पढ़ ज्ञानी बनते
कभी न पाया सच्चा ज्ञान।।
भौतिकता की चकाचौंध में,
जीवन रस से रहते दूर।
थोड़ा सा भी संकट आया,
होते सारे सपने चूर।।
अपना दोष मढ़ो औरों पर,
अपने अंदर झाँके कौन।
कर्तव्यों से पल्ला झाड़ो,
कैसे हो जाते हो मौन।।
पृथ्वी के वैभव को छीना,
करते हो बस खुद से प्यार।
भूल गए तुम हो कठपुतली,
भूल गए जीवन का सार।।
हाहाकार मचा धरती पर,
अब तो मानो अपनी हार।
पापों का ये घड़ा भर चुका,
होगा सुन तेरा संहार।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
आज के परिदृश्य पर आंख खोलने वाला सृजन ।बहुत शुभकामनाएं अभिलाषा जी💐💐
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंसहृदय आभार सखी, सादर
जवाब देंहटाएंअभिलाषा जी ! बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत ही उम्दा सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार मनोज जी,सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंआपकी यह कविता सुंदर एवं प्रभावी ही नहीं, उद्देश्यपूर्ण एवं सार्थक भी है माननीया अभिलाषा जी। 'पोथी पढ़ पढ़ ज्ञानी बनते, कभी न पाया सच्चा ज्ञान' तथा 'अपना दोष मढ़ो औरों पर, अपने अंदर झाँके कौन' जैसी पंक्तियां तो दर्पण सरीखी हैं जिनमें अपना मुख देखने हेतु भी नैतिक साहस चाहिए।
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