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मन की मन में मत रहने दो

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मेरे अपने विचार  जीवन कितना भी निष्ठुर हो, हालत कितने भी अस्थिर हों। चाहे घोर निराशा घेरे हो, तू हार नहीं तू हार नहीं। कहना सरल है लेकिन करना भी मुश्किल नहीं है।आज पढ़ने वाले बच्चों को जीवन हारते देखतीं हूं तो सोच में पढ़ जाती हूं,ये कैसा समय है,कैसी परवरिश है कि बच्चे संघर्ष नहीं कर पा रहे।कोटा कोचिंग सेंटरों के लिए विख्यात है। यहां पूरे देश से बच्चे पढ़ने आते हैं। माता-पिता बड़ी उम्मीदों से बच्चों को पढ़ने भेजते हैं।सबकी यही चाह होती है कि बच्चा डाक्टर बने या इंजीनियर बने,या उच्च पदों पर आसीन हो। माता-पिता उम्मीद तो कर लेते हैं,पर बच्चे का मन नहीं पढ़ पाते।वो घर से दूर रह पाएगा या नहीं?वह इतनी मेहनत कर पाएगा या नहीं?उसके साथ वहां क्या हो रहा है?क्या वह स्थितियों के अनुसार खुद को ढाल पाने में सक्षम है या नहीं?ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिनका जबाव शायद किसी के पास नहीं है।आए दिन बच्चे आत्महत्या कर रहें हैं, जिंदगी का मोल समझे बिना कैसे ये बच्चे अपने जीवन का अंत कर देते हैं और क्यों?इसका जबाव शायद उनके माता-पिता के पास भी नहीं है।        सब कुछ अच्छा है लेकिन फिर भी बच्चे संघर्ष नहीं कर प

दुर्गा स्तुति

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1. तपस्विनी तू वत्सला, बलप्रदा ,महाबला। कालिका कपालिनी,चंडिका नमोस्तुते।। गौरी,सती,कुमारिका,अनंता तू संहारिका। आर्या,अम्बे, कात्यायनी,वैष्णवी नमोस्तुते ।। शैलपुत्री कालरात्रि,चंद्रघंटा सिद्धि दात्री। स्कंदा तू ब्रह्मचारिणी,वाराही नमोस्तुते।। सावित्री परमेश्वरी, विष्णु माया जलोदरी। शिवप्रिया सदागति ,मातंगी नमोस्तुते ।। आदिशक्ति तू भवानी,जगदंबिका कल्याणी। ब्रह्माणी,दुर्गा,रुद्रानी,शाम्भवी नमोस्तुते।। 2. महिषासुरमर्दिनी,चंडमुंडविनाशिनी। कपालशूलधारिणी,ज्ञान का प्रकाश दो।। निशुंभशुंभमर्दनी,कलामंजीरारंजिनी। अनेकशस्त्र धारिणी,अधर्म का विनाश हो।। सहस्त्र अस्त्र धारिणी,सर्व दानव घातिनी। दक्ष यज्ञ विनाशिनी, भक्ति का प्रसाद दो।। जले थले निवासिनी,विशाल रूप धारिणी। दरिद्र दुख हारिणी,माया से उबार दो।। 3. हे पार्वती उमा,रमा,जगमाता करो क्षमा। तुम्हीं माधवी हो ज्वाला,हे देवी दुख हरो।। हे संतन प्रतिपाली,धूमावती महाकाली। आद्या,शक्ति तू शिवांगी,मनसा पूर्ण करो।। सिंह वाहिनी मां मेरी,हो ना मां अब देरी । पापों की बजती भेरी,दीनों की झोली भरो।। सृष्टि की तुम जननी,हे मां मंगल करनी। शोभा जाए ना बरनी,दया की बर्षा

कभी-कभी

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कभी-कभी लगता है ऐसा कि  हम खो रहें हैं या डूब रहें हैं हमारी उदासीनता बना देती है हमें निष्क्रिय हम होते हुए भी नहीं होते  हमारे शब्द अंदर ही घुटते मचलते हैं बाहर आने को पर एक सोच...? जो हावी हो रही है सब पर कौन सुनेगा...? हमारी बेसिर -पैर की बेतुकी बातें..? सब डूबें हैं अपने ख्यालों में जुड़ने की प्रक्रिया...? अब ले चुकी है विराम सोशल मीडिया की चमक में बनने सितारा लगा रहें हम अंधी दौड़ भूलकर कि हमने क्यों उठाई थी कलम..? कलम-कागज भी कहां हैं अब तो नया जमाना है वही बिकता है जो चमकता है...!! हम जैसे चमकहीन पुरातनपंथी..? इस दौड़ में हार चुके हैं हमारे जज़्बात...? किसी को रास नहीं आते सीख लिया है हमने हारना...!! हार जो आसानी से हो जाती है नसीब छोड़ दिए हैं प्रयास क्या करना है हमें...? चमक नहीं सकते तो छुपे रहना ही ठीक है आज श्रेष्ठता का मापदंड लाइक्स और फाॅलोअर्स हैं फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या कर रहें हैं..? इस अंधी दौड़ में  भुलाकर सभी मायने हमने बस पहने हैं मुखौटे...!! हम नहीं चाहते कि कोई देखे हमारे अंदर की आग...? हमारी चिंता...? हमारी परेशानी...? सफलता का ढोंग करते हैं हम सोचते हैं कभी

जीत निश्चित है हमारी

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लक्ष्य साधा है प्रिये तो, अंत तक फिर साथ चलना। हाल कैसा भी रहे पर, पथ से अपने मत विचलना। नेह के धागे सुकोमल,रेशमी भावों के मोती। ये समर्पण मांगते हैं,आस की जलती है ज्योति। मन गह्वर में है मचलती, अनगिनत ये कामनाएं। हो विषम पथ या विपत्ति,स्वयं को बस साथ पाएं। दीप्त उर में लौ फुदकती , शलभ बन कर तुम किलकना। हाल कैसा भी..........। तन तो नश्वर है सभी का,जो कभी चिर ना रहेगा। प्राण से होगा मिलन तो,अनंत तक ये संग चलेगा। गंध को महसूस कर लो,पुष्प से किसका क्या लेना। जो रमा कण-कण में है,उसको क्या पहचान देना। आत्म चिंतन कर लिया तो, हो सकेगा कोई छल ना। हाल कैसा भी...........। तारिकाएं चांद-सूरज ,हैं सदा ही मुस्कुराते। कुंज कानन तृण लताएं,हैं हठी, तूफान आते। सृष्टि का बस ये नियम है,हार कर मत बैठ जाना। हो भंवर में नाव लेकिन, हौंसले से पार पाना। जीत निश्चित ही हमारी भूल जाओ बस फिसलना। हाल कैसा भी.......….। अभिलाषा चौहान 

ध्वस्त होती सर्जना

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शब्द भेदी बाण चलते टूटती हर वर्जना रक्त रंजित प्रेम तड़पे क्रोध की सुन गर्जना । टूट बिखरे नीड़ सारे,आँधियां ऐसी चली। सूखते मधुवन यहाँ पर,आग कैसी ये जली। मेघ भी अश्रु बहाते,और धरा मृत सी पड़ी। स्वार्थ शासक बन गया,लोभ की कीलें गड़ी। रोप दी विष बेल ऐसी ध्वस्त होती सर्जना रक्त रंजित प्रेम तड़पे क्रोध की सुन गर्जना। मीत सच्चे स्वप्न से हैं,प्रीत भी बदली हुई। कौन रांझा हीर कैसी, पहेलियां उलझी हुई। पत्थरों से उर हुए हैं,तन दिखें बस फूल से। आचरण ओछे हुए हैं,रिश्ते बने सब धूल से। भोगवादी संस्कृति में  त्याग संन्यासी बना। रक्त रंजित प्रेम तड़पे क्रोध की सुन गर्जना। काल ये कैसा समक्ष है,चूल्हों में सारे घर जले। वो छतें अब मिट गईं हैं,प्रेम फूला जिनके तले। ठौर छीनी तरुवरों की,दरबदर उनको किया। जिंदगी का मोल भूले,करुणा का बुझता दिया। सूर्य डूबा सत्य का लो घिर रहा है तम घना। रक्त रंजित प्रेम तड़पे क्रोध की सुन गर्जना। अभिलाषा चौहान स्वरचित 

सवैया छंद (भक्ति परक सवैया)

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           "चकोर सवैया" ************ चकोर सवैया तेईस वर्णों का छंद है इसमें सात भगण और अंत में गुरू-लघु दो वर्ण होते हैं।इसकी मापनी इस प्रकार है - भानस,भानस,भानस,भानस, 211 ,211,211,211 भानस, भानस,भानस गुरू-लघु  211,211,211,21 मेरे द्वारा रचित कुछ सवैये जो मानव मन की कमजोरियों को अभिव्यक्त कर रहें हैं। 1. कृष्ण भजो सब राम भजो अब भूल सुधार करो मद त्याग। काल कराल समीप खड़ा तम घोर घिरा मनवा अब जाग। लोभ मिटे सब क्षोभ मिटे मन में छलके नित केवल राग। श्याम सखा उर आन बसे उनसे कर प्रीति जगे तब भाग। 2. चंचल ये मन मान सखी वश में किसके कुछ मांगत खास। मांग बढ़े नित ही इसकी बढ़ती अपने उर की नित आस। भृंग बना यह डोलत है हम तो इसके बनते बस दास। कंचन सा तन ये मन शापित ईश बिना कब होत उजास। 3. मोहन‌ माधव कृष्ण बिना इस जीवन का समझो मत मोल। सोच-विचार नहीं कुछ भी नित जीवन में लड़ते विष घोल। कर्म बुरे करके खुश हैं बस बोल रहे कड़वे नित बोल। भक्ति नहीं मन में जिनके हरि का करते तखरी पर तोल। अभिलाषा चौहान स्वरचित 

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा

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कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। जाति-धर्म को ढाल बनाकर, दूजे माथ ठीकरा फोड़ा । चैन नहीं अब मुर्दे पावें, उनके गीत सभी नित गावें। न्याय बना कठपुतली इनकी, मन चाहा ये नाच नचावें। ऊंचे देखो महल-चौबारे, इनके ही हों वारे न्यारे। और विकास यहीं दिखता है, झुग्गी झोपड़ निर्धन हारे। धक्के खाएं फिरते मारे, सपने झूठे मन को हारे। इनकी पीड़ा सदियों पुरानी, इनके किसने पैर पखारे। और सुदामा हार चला अब, कृष्ण कहां जो भार सहें सब। रावण-कंस-जरासंध जीतें, कौन किसी का कौन सुने कब। चंद्रयान चंदा पर जाए, भूख गरीब की रोज रुलाए। एड़ी घिस-घिस मरे बेचारा, भारत नंबर वन कहलाए। दोहरी नीति दोगली बातें, निर्बल पर करते सब घातें। शक्ति समता दासी इनकी, बिन चरखे ये खादी कातें। चाहे जिसको चुन कर लाओ, मन की बात अधूरी पाओ। कुर्सी पाकर रंगत बदलें, अपनी पीठ छुरा घुपवाओ। आरक्षण को बना खिलौना, लेकर मुफ्त रेवड़ी दौना। सब शिकार पर निकले देखो, बातें इनकी जादू-टोना । मानवता छुप-छुप रोती है , जाति विष कितना बोती है । राम-रहीम बसे नारों में , महंगाई बस खुश होती है । राम भरोसे सबकी गाड़ी, किसने किसकी पीड़ा ताड़ी। अंधी