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बेनाम रिश्ते

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जिंदगी की धूप में दुखों के अंधकार में देखा है मैंने अक्सर अपनों को मुंह छिपाते। पहनकर पराएपन का मास्क चुरा कर नजरें बचते-बचाते पल्ला झाड़ कर अक्सर देखा है मैंने उन्हें दूर जाते। तब मरहम बन कर आ जाते हैं अक्सर सामने कुछ अनकहे रिश्ते जो जानते देना जिन्हें पता होते हैं मायने जिंदगी के  जो तपती धूप में बन जाते हैं ठंडी छांव जो चाहते नहीं रिश्ते का कोई नाम बस आहिस्ता से गमों को सहलाते वीराने में फूल खिला जाते जो अजनबी होकर भी होते हैं सबसे अपने जो लगते हैं जैसे हों सपने पर बेनाम से ये रिश्ते सम्हाल लेतें है टूटती आस की डोर इनके अपनेपन का नहीं कोई ओर-छोर ये अनजाना सा बंधन जो जिंदगी के सफर में चलते-चलते ही जुड़ जाता है जब कोई न दे साथ तब यही काम आता है होती हैं ये धरोहर अनमोल और खूबसूरत जो रिश्तों की नई लिखती है इबारत। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मेरे एहसास

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पाया है जब भी खुद को अकेला, भटकता रहा मन भीड़ का मेला। जगाया है तुमने तभी मन में मेरे, विश्वास-दीप व हर दुख को झेला। छाया था जीवन में जब भी अंधेरा, लगा ऐसा कि फिर न आएगा सवेरा। तब बन के सूरज चमकने लगे तुम, निराशा ने अपना उठाया था डेरा। न छोड़ा कभी हाथ थामा जो तुमने, न मांगा कभी बदले में कुछ तुमने । रहे बनके साथी छाया के जैसे, हर मोड़ पर साथ निभाया है तुमने। आशा तुम्हीं हो और विश्वास तुम ही, कड़ी धूप में बनते छाया भी तुम ही। मैं और तुम का मिटा भेद जबसे, बसे हो मेरी आत्मा में भी तुम ही। ये साथ हमारा है स्वार्थ से ऊपर, जिएंगे सदा हम ऐसे ही मिलकर। संकट सहेंगे,बढ़ेंगे हम साथी जिएंगे कभी न हम यूं डर-डरकर। ये रिश्ता अपना रूह से जुड़ा है, अहसास तुम्हारा ,तुमसे बड़ा है। भले ही रहो तुम कहीं पर ऐ साथी, जीवन को तुमसे संबल बड़ा है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मौन-मनन

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मौन श्रेयस्कर हो सदा यह उचित कैसे भला मौन में समाहित अथाह वेदना भीरूता का अंश घुला मौन की भाषा कौन पढ़ सकता भला चुप वही जिसका कभी परिस्थितियों पर न जोर चला मौन यूं तो  कई मतभेदों को देता विराम है लेकिन हर समय बस मौन रहना कायरता का काम है है छिपा तूफान इस सपाट निर्विकार मौन में अन्याय,शोषण,अधर्म पर मौन से कहां लगा विराम है कुचली जाती कली मासूम गरीब भूखा जब सो रहा छल-फरेब माया का जाल पूंजीवादी जब बो रहा सत्ता के ठेकेदार  जब चूसते हैं रक्त को जब छिन रहे अधिकार सारे और शब्द भी न रहें हमारे तब मौन रहकर देखना बस देखना है खुली आंखें मगर बस मुर्दा बन कर बैठना ये मौन घातक शत्रु बन तब सोखता जीवन के रस न रहो तुम यूंही मौन कि हो जाओ पूर्णरूपेण विवश बदलना है व्यवस्था को मौन से संभव नहीं मौन की कीमत वहीं जब किसी का इससे भला मौन से मन का मनन करना सदा है श्रेयस्कर समस्या-समाधान, चिंतन है सदा श्रेष्ठकर। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हार की जीत लिखते हैं।

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चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। शुष्क बंजर धरा है जो, खिला दें फूल उसमें भी। दिलों को जोड़ दें दिल से, नयी एक प्रीत लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। रूढ़ियों में कभी बंधकर, न मानवता कभी सिसके। खुलें अब द्वार हृदय के, चलो वो नींव रखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। दुखों के साए में घिरकर, भूले हैं जो जीवन को। जगा दें आस उनमें भी, चलो वो रीत लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। धधकती आग जो मन में, बने क्यों राख वो यूं हीं। भड़कने दें उसे यूं ही, नया आगाज लिखते हैं। चलो एक गीत लिखते हैं, हार की जीत लिखते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आस का दीप

पलकों में सपने संजोए आस मन पलती रही जिंदगी की सुबह-शाम ऐसे ही चलती रही। कुछ लिखे थे गीत जो, बह गए अश्रुधार में। कुछ मिले थे मीत जो, खो गए संसार में। दीप उम्मीदों का लेके, फिर भी मैं चलती रही।  पलकों में .....।  हर घड़ी के साथ देखो, उम्र भी ढलती रही। इक अबूझी सी प्यास , नित हृदय पलती रही। हो गयी मैं बावरी सी, ढूंढती उस कूप को। बूंद अमृत की सदा, जिसमें मुझे मिलती रही। पलकों....।  हों भले ही धूप कितनी, या कि हो बादल घने। स्वप्न पलकों में सजाए, फिर भी मैं चलती रही। आस का ये दीप जो, तूफान में भी न बुझा। प्रीत के भावों से मेरा मन रहा था सदा सजा। फूल पथ में न मिले तो, कांटों पर चलती रही। पलकों.........। . अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कुछ दोहे

कीट फसल को चट करें,कृषक देखअकुलाए फसलों का बचाव करें,रसायनिक छिड़काए। कीट मरें सो तो मरे,जहर फसल घुल जाए। बीमारी के कोण में,मानव को उलझाए। बिगडती इस सेहत से,मानव हुआ निराश। दृष्टिकोण का फेर से,सिर पे खड़ा विनाश।। रोटी कपड़ा व मकान,सबकी रहती आस। सुखी वही संसार में,जिसके हो ये पास। लालच के पड़ फेर में,मानुष करता फेर। रोटी कपड़ा के लिए,उलझन का है ढ़ेर। जीवन में उलझन बड़ी,कैसे लाभ कमाएं। सोचे ना वो दो घड़ी,स्वारथ में पड़ जाए।। कीट लोभ का मन बसा,बदलता दृष्टिकोण। कपट कपड़ा पहन लिया,उलझन सुलझे कौन। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक