आस का दीप

पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही
जिंदगी की सुबह-शाम
ऐसे ही चलती रही।
कुछ लिखे थे गीत जो,
बह गए अश्रुधार में।
कुछ मिले थे मीत जो,
खो गए संसार में।
दीप उम्मीदों का लेके,
फिर भी मैं चलती रही।
 पलकों में .....।
 हर घड़ी के साथ देखो,
उम्र भी ढलती रही।
इक अबूझी सी प्यास ,
नित हृदय पलती रही।
हो गयी मैं बावरी सी,
ढूंढती उस कूप को।
बूंद अमृत की सदा,
जिसमें मुझे मिलती रही।
पलकों....। 
हों भले ही धूप कितनी,
या कि हो बादल घने।
स्वप्न पलकों में सजाए,
फिर भी मैं चलती रही।
आस का ये दीप जो,
तूफान में भी न बुझा।
प्रीत के भावों से मेरा
मन रहा था सदा सजा।
फूल पथ में न मिले तो,
कांटों पर चलती रही।
पलकों.........।
.

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब सखी ,बस यही एक तलाश तो प्रत्येक मन की हैं ,सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर रचना,
    "फूल पथ में न मिले तो,
    कांटों पर चलती रही"
    क्या बात है

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏
      आपका अभिनन्दन 🙏🌷

      हटाएं

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