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रूप अपना ही गँवाया

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प्राण पिंजर में तड़पता प्रीत रोती है अभागी जाल माया ने बुना फिर कौन बनता वीतरागी। राख की ढेरी बनी फिर आग जो मन में लगी थी भावना पाषाण बनती जंग फिर तन में पगी थी घिर रही थी रात काली चाँदनी भी छूट भागी।। कीच काया में भरी थी पंक को कब देख पाया लोभ का भँवरा बना फिर रूप अपना ही गँवाया प्यास फिर भी न बुझी तो झूठ की तब तोप दागी।। साँझ की बेला खड़ी थी काल कहता जग अभागे पाप के भरता घड़ा अब देह ने श्रृंगार त्यागे लक्ष्य गव्हर साधता सा फिर भ्रमित सी पीर जागी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

भूलती पहचान अपनी

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भूलती पहचान अपनी देखती हूं स्वप्न कोई बोझ बनते इन पलों से आँख मूँदी और रोई साथ छूटा वक्त रूठा कौन बनता है सहारा प्रेम फीका क्रोध तीखा टूटता सुख का सितारा पृष्ठ की उर्वर मृदा पर अक्षरों के बीज बोई ज्यों बरसते मेघ प्यासे त्यों बढ़े मन की उदासी मीन तड़पे बीच नदिया नाचती हूँ मैं धरा सी आग जलती है हृदय में नींद नयनों की डुबोई डूबती नैया भँवर में दूर से देखे किनारा चाँद भी जलता हुआ सा चाँदनी से हुआ न्यारा मीत सच्चे कब मिले हैं याद करती और खोई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

है कठिन ये काल

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है कठिन ये काल लेकिन प्राण को रख अब सजग सा आग लगती जब हृदय में देख बनकर कुछ अलग सा जीत निश्चित ही मिलेगी प्रश्न ये तनकर खड़ा है हार कर यूँ बैठ जाना प्रश्न ये उससे बड़ा है उलझनों के दौर सुलझे कर्म कर क्यों है विलग सा खेलता है भाग्य नित ही खेल कितने ही निराले वह मनुज इतिहास लिखदे जो नहीं है शस्त्र डाले राह टेढ़ी हो मगर फिर चल पड़े वो है खडग सा धीर धारण कर धरा से और साहस ले पवन से सूर्य सा हो ओज तन में और करुणा ले गगन से मन द्रवित गिरिराज कहता बह निकल या बन अडिग सा। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक