रूप अपना ही गँवाया


प्राण पिंजर में तड़पता

प्रीत रोती है अभागी

जाल माया ने बुना फिर

कौन बनता वीतरागी।


राख की ढेरी बनी फिर

आग जो मन में लगी थी

भावना पाषाण बनती

जंग फिर तन में पगी थी

घिर रही थी रात काली

चाँदनी भी छूट भागी।।


कीच काया में भरी थी

पंक को कब देख पाया

लोभ का भँवरा बना फिर

रूप अपना ही गँवाया

प्यास फिर भी न बुझी तो

झूठ की तब तोप दागी।।


साँझ की बेला खड़ी थी

काल कहता जग अभागे

पाप के भरता घड़ा अब

देह ने श्रृंगार त्यागे

लक्ष्य गव्हर साधता सा

फिर भ्रमित सी पीर जागी।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

स्वरचित मौलिक




टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  2. साँझ की बेला खड़ी थी

    काल कहता जग अभागे

    पाप के भरता घड़ा अब

    देह ने श्रृंगार त्यागे

    लक्ष्य गव्हर साधता सा

    फिर भ्रमित सी पीर जागी।।

    वाह!!

    जवाब देंहटाएं
  3. हम आपके ब्लॉग को पूरी तरह से पसंद करते हैं और आपके लगभग सभी लेख पढ़ते हैं

    जवाब देंहटाएं
  4. लेख वास्तव में उपयोगी और वास्तव में प्रेरक है।

    जवाब देंहटाएं
  5. सहृदय आभार आदरणीया 🙏 सादर

    जवाब देंहटाएं

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