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झर-झर झरते पात

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झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। पतझड़ लेकर आया सौगात, हम हुए अब बीते समय की बात। नव किसलय अब आने वाले हैं, नई कहानी सुनाने वाले हैं। झर-झर झरते पात, समेट चले अपनी सौगात। सिखाकर नव पीढ़ी को, प्रकृति परिवर्तन की बात। झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। समय सभी का आना है, अपना दाय निभाना है। चलना सदा समय के साथ, झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। सदा यही होता आया है, कोई सदा नहीं रह पाया है। नवजीवन की समझा के बात, झर-झर झरते पात, कहते जाते अपनी बात। तोड़ पुरातनपंथी रूढ़ियां, तोड़ चलो अब सभी बेड़ियां। चलना सदा समय के साथ, कहते जाते अपनी बात, झर-झर झरते पात। बीत गया हमारा जमाना, तुमको है सब सम्हालना। देना सदा भलाई का साथ, कहते जाते अपनी बात, झर-झर झरते पात। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जिंदगी सिगरेट- सी

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धीमे-धीमे सुलगती, जिंदगी सिगरेट-सी। तनाव से जल रही, हो रही धुआं-धुआं। जिंदगी सिगरेट-सी, दुख की लगी तीली ! भभक कर जल उठी, घुलने लगा जहर फिर! सांस-सांस घुट उठी, जिंदगी सिगरेट- सी । रोग दोस्त बन गए, फिज़ा में जहर मिल गए। ग़म ने जब जकड़ लिया, खाट को पकड़ लिया। मति भ्रष्ट हो चली, जिंदगी सिगरेट- सी। धीमे-धीमे जल उठी, फूंक में उड़े न ग़म! खुशियों का निकला दम! क्लेश-कलह मच गया, सबकुछ ही बिखर गया। बात हाथ से निकल गई, जिंदगी सिगरेट सी, अंततः फिसल गई। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कारगिल विजय दिवस

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कारगिल विजय दिवस **************** नमन शहीदों को ! देश के सपूतों को ! वीर जवानों को ! उन शूरवीरों को ... हार नहीं मानी थी, मन में जो ठानी थी, शत्रु को हराना है, धूल उन्हें चटाना है। आंच नहीं आने दी, मातृभूमि के दीवानों ने, प्राण अपने वार दिए, विजय का हार लिए, तिरंगे के मान रखा ! कारगिल पर पांव रखा ! देश की करके रक्षा, पूरी कर ली अपनी इच्छा, बहनों की नम आंखें हुईं, मां-बाप की खुशियां खोईं, पत्नियों के उजड़े सिंदूर, बच्चों से हुए पिता दूर, ग़म में भी खुशी छलकी! विजय की मिली थी खुशी ! गर्व से दमकती भीगी आंखें, वीर सपूतों को याद करके। धन्य हैं वे माता-पिता धन्य है हम भारतवासी जो ऐसे वीर सपूतों को पाया जिन्होने वतन पर सर्वस्व लुटाया। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक।

अनछुए एहसास

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एहसास मरते नहीं, जिंदा रहते हैं सदा। एहसास सदा देते हैं, जीने की वजह। मेरी हर बात को, तेरा बिन कहे समझ लेना। आहिस्ता से मेरे दर्द को, प्यार से सहला देना। बिन बोले ही समझ लेना, परेशानियों को। एहसास नहीं तो और क्या है..!! मेरे माथे की सिकुड़ती लकीरों से, बढ़ना तेरी बैचेनी का.. थाम कर हाथ मेरा, बांट लेना मेरी परेशानी को। मैं समझती हूं.. तेरी हर बात बिन बोले! तू कहे या न कहे, एहसास मुझे होता है। ये अनूठा बंधन है, एहसासों का। एहसास ही बता देते हैं.. अहमियत एक-दूजे की ! ये जो मुस्कराहटें हैं मेरी-तेरी, एहसासों से ही जाग जाती हैं। एहसास जिंदा रहते हैं.. दिल की धड़कनों में सदा, ये हैं ऐसी छुअन अनदेखी, जिससे मै-तुम.., हम बन जाते हैं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

एहसास है मुझे

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एहसास है मुझे, वह दर्द जो तूने जिया... वह जख्म जो तुझे , दुनिया ने दिया। एहसास है मुझे, उस अकेलेपन का.. उस तड़पते दिल का.. जिसे चाह थी, बूंद भर प्यार की.. परिवार के दुलार की..! एहसास है मुझे, उन आंसुओं का.. जो तेरी आंख से बहे.. उस टूटे हृदय का.. उस वेदना का.. उस तड़प का..। तेरा एहसास, जो दर्द बनकर, जख्म के रूप में जिंदा है, सदा के लिए। भूल गई हूं मैं जीना, क्योंकि तेरा दर्द .. बन गया है मेरा दर्द..! जो चलेगा साथ ताउम्र, तेरा एहसास ..! होता है मुझे, हर पल हर कदम! तू नहीं है फिर भी यहीं है।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आया सावन घिर आए बादल

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आया सावन घिर आए बादल, काले-काले श्याम रंग बादल। सावन मास सुहाए बादल, धरा को खूब सुहाते बादल। उमड़-घुमड़ कर छाए बादल, गरज-गरज के छाए बादल। नवजीवन के सृजनकर्ता, झूम-झूम के बरसो बादल। कृषकों के दिल हर्षाए बादल, राग-मल्हार गाए बादल, क्रांति का गीत सुनाने वाले, गरज-गरज के बरसो बादल। विरहिन की पीर बढ़ाए बादल, नयनों से नीर बहाए बादल। सूने-सूने जीवन में फिर यादों के घिर आए बादल। धरती की प्यास बुझाते बादल, अमृत रस बरसाते बादल। छलक उठे सब नदी-सरोवर, प्रेम की धार बहाते बादल। ©✍ अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक 😐

अब न मन हर्षाए सावन

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आया सावन, घिर आए बादल। बिन बरसे, उड़ जाए बादल। ऐसे क्यों, तरसाए बादल। अब न चले वो, पवन पुरवाई। जो लेके संदेशा, नैहर से आई। न वो झूले, न वो सखियां उजड़ गई है अब वो बगिया। सूना-सूना, लगता है सावन। न वो खुशियां, न वो आंगन। कब आए, कब चला जाए सावन! अब मन को, न भाए सावन। छूट गई है, अब वो कलाई। दूर पहुंच से, अब वो भाई। बिन भैया के, कैसा सावन! अब न मन, हर्षाए सावन। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सच्ची मित्र ये किताबें

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किताबें हैं सच्ची मित्र, इनका संसार है विचित्र। ये संजोए जीवन का सार, ज्ञान का ये भंडार अपार। देती हैं ये दिल खोल, सब कुछ ये देती हैं बोल। देती हैं जीवन को गति, शुद्ध-बुद्ध होती है मति। मिटाती हैं ये अंधकार, ज्ञान का ये करती हैं प्रसार। हैं ये जीवन का दर्शन , विचारों का करें संवर्धन। साक्षी हैं ये इतिहास की, मानव के अद्भुत विकास की। संस्कृति की ये संवाहक, आस्थाओं की संस्थापक। आदर्शों की जननी हैं ये, समाज की गरिमा है ये। बहाती काव्य-रस धार, इनका हम पर है उपकार। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अनुपम किताबें (विधा-सेदोका)

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विद्या की देवी अनुपम किताबें सदा देती हैं सीख दिखाती राह मिटाती हैं अज्ञान बनकर वरदान। किताब कहे कहानी अनसुनी सुख-दुख से बुनी अपनी लगे जिंदगी से हैं जुड़ी सपनों की हैं लड़ी। किताबें साथी अकेलापन मिटे अंधकार भी छटे भाव सबल साहित्य का भंडार अनोखा है संसार। किताबें बोझ बचपन है दबा फिरे इनको लादे भूला है खेल बड़ी रेलमपेल बन गया है जेल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक