झर-झर झरते पात

झर-झर झरते पात,
कहते जाते अपनी बात।
पतझड़ लेकर आया सौगात,
हम हुए अब बीते समय की बात।
नव किसलय अब आने वाले हैं,
नई कहानी सुनाने वाले हैं।

झर-झर झरते पात,
समेट चले अपनी सौगात।
सिखाकर नव पीढ़ी को,
प्रकृति परिवर्तन की बात।
झर-झर झरते पात,
कहते जाते अपनी बात।

समय सभी का आना है,
अपना दाय निभाना है।
चलना सदा समय के साथ,
झर-झर झरते पात,
कहते जाते अपनी बात।

सदा यही होता आया है,
कोई सदा नहीं रह पाया है।
नवजीवन की समझा के बात,
झर-झर झरते पात,
कहते जाते अपनी बात।

तोड़ पुरातनपंथी रूढ़ियां,
तोड़ चलो अब सभी बेड़ियां।
चलना सदा समय के साथ,
कहते जाते अपनी बात,
झर-झर झरते पात।

बीत गया हमारा जमाना,
तुमको है सब सम्हालना।
देना सदा भलाई का साथ,
कहते जाते अपनी बात,
झर-झर झरते पात।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. वाह क्या बात है अतिसुंदर प्रवाहममी रचना।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ! बहुत सुन्दर सृजन दी जी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रकृति से हमें किस प्रकार प्रेरणा लेना चाहिए...यह रचना प्रमाण के साथ मार्गदर्शन कर रही है। वाह!!! अद्भुत।

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रिय अभिलाषा जी , सुंदर भावपूर्ण अलंकृत रचना जिसकी पहली ही सरस पंक्ति मन को आह्लादित कर रही है | इसे पढ़कर पन्त जी की इन्ही भावों से युक्त रचना के अंश याद आ गए ------
    द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
    हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
    हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
    तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
    सचमुच , नया आता है तो पुराने को जाना ही पड़ता है , यही प्रकृति का नियम है | सस्नेह -|

    जवाब देंहटाएं
  5. सहृदय आभार प्रिय रेणु बहन

    जवाब देंहटाएं

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