संदेश

अक्तूबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

टाले-टाले कहीं टली

चित्र
अनहोनी होकर रहती है टाले-टाले कहीं टली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली। जीवन सुख-दुख के पाटों में पिसता है घुन के जैसा कठपुतली सा नाच नचाता काल बना यम है ऐसा पटरी पर आते-आते ही गाड़ी फिर से उतर चली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। तप्त रेत सा लगता जीवन संकट नित झुलसाते हैं मृगमरीचिका में उलझे कब सुधा ढूँढ कर लाते हैं गर्म हवा फिर तोड़ हौसले निर्मम सी हो आज चली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। शीतल ठंडी छाँव मिले कब सपना मन में पलता है आग उगलता दिनकर देखो अँधकार मन छलता है हार गया जो रणभूमि में भटके नित ही गली-गली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। अभिलाषा चौहान 

खेले रोज पहेली

चित्र
राजनीति की चालें होती कैसी मैली लाभ उठाएँ सबका। खेले रोज पहेली। वोट सगा है इनका वादे इनके झूठे निर्धन देखें सपने देव रहें बस रूठे भूखों की बस्ती में ट्रक शराब उड़ेली। भूख राक्षसी बनती कैसे लड़ता निर्बल सिक्कों की खनखन से बन जाता है दुर्बल सत्ता की चौसर पर पाँसे सी बन ढेली। धर्म जाति को जब ये ढाल बनाकर लड़ते दीन बेचारा सोचे भाग्य हमारा गढ़ते उनकी झोली खाली भरते अपनी थैली। बढ़ती झोपड़ पट्टी भूखे अधनंगे बच्चे आँख मूँद ये बैठे बने कान के कच्चे चमक सफेदी छाई काया कितनी मैली। अभिलाषा चौहान 

कब रघुनंदन आ पीर हरें

चित्र
  व्यथित वियोगिनी हैं जानकी कब रघुनंदन आ पीर हरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। घड़ियाँ लगती सदियों जैसी धरती अंबर क्यों हुए विलग नदिया के दो बने किनारे ये मिलन अधूरा जाने जग अम्बुधि की लहरें उद्वेलित उमड़-घुमड़ देखो नैन झरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। आस मिलन की जाग रही है जब पवन सुनाती संदेशा सूर्य-चंद्र भी दिखें प्रफुल्लित फिर कब आएगा पल ऐसा एक मिलन के साक्षी बनकर अखिल भुवन के संत्रास तरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर दरें। वारिध हठी बँधे कब बंधन सब पत्थर तल में डूब चले राम-नाम की महिमा अतुलित जब जाना उसने हाथ मले बाँध उर्मियाँ फिर सागर की नलनील सेतु निर्माण करें। हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। अभिलाषा चौहान

आज महोत्सव अवध मनाए

चित्र
युगों-युगों की पूर्ण प्रतीक्षा दूर हुआ जो दर्द सहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। मनमंदिर में बसा हुआ था सपना एक अनोखा सा रामलला कब अवध पधारें आनंद आए चोखा सा आशा की उजली किरणों से घोर तमस का किला ढहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। सरयू के घाटों पर गूँजे रामलला के जयकारे द्वार-द्वार पर सजते तोरण भक्त झूमते हैं सारे आनंदित तन-मन है सारा शब्दों से जो नहीं कहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। बर्षों की अब प्यास बुझेगी दिवस सुखद ये आया है तीन लोक के स्वामी ने अब पद अपना फिर पाया है आज महोत्सव अवध मनाए दीवाली सा चमक रहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा।। अभिलाषा चौहान 

और कैसे रोक पाऊँ

चित्र
चिर प्रतिक्षित प्राण को अब और कैसे रोक पाऊँ है विह्वल जो प्राण मेरा प्रीत धुन क्यूं गुनगुनाऊं!! दूर नभ पर चाँद चमके,चाँदनी मुझको जलाती। आस का पंछी उड़ा ले,अश्रु भीगी देख पाती। कौन हो तुम हो कहाँ पर,ये नयन जो ढूँढ पाते। रूप अपना तुम छिपाए,क्यों मुझे यूँ तुम रुलाते। खेलते हो खेल नव नित मैं तुम्हें कैसे मनाऊँ बुझ रहे अब आस दीपक तेल बिन कैसे जलाऊँ!! व्यर्थ से संसार में अब,छा रहा गहरा अँधेरा। बंधनों से मुक्त होकर,तोड़ दूँ ये मोह घेरा। लौ प्रतिपल क्षीण होती,डूबती नैया किनारे। खो गई पतवार मेरी,पंथ कोई अब सँवारे। टूटता विश्वास पल -पल काश इसको जोड़ पाऊँ स्वप्न धूमिल हो गए सब चैन भी अब तो गवाँऊ। पात तृण तरुवर सुमन ये,झूमते और मुस्कुराते। खग विहग भी नीड़ अपने,देख कैसे चहचहाते। सूर्य किरणें भी धरा को,आभ स्वर्णिम दे रहीं हैं। और मलयानिल सुगंधित,देख चहुं दिस नित बही है। मूढ़ मति मैं देखती सब, वेदना में डूब जाऊँ श्रेष्ठ समझूँ स्वयं को मैं शीश किसको मैं नवाऊं?? क्षीण सा अस्तित्व मेरा,चाहता है लक्ष्य पाना। लक्ष्य का न भान मुझको,ना पता किस ओर जाना। प्यास बुझती ही नहीं है,सामने है गंगधारा आंख पर पर्दा पड

बात रही इतनी

चित्र
शूल चुभोकर पूछ रहे  खुशी मिली कितनी पैरों के नीचे भी अब धरा कहाँ अपनी। खटमल से चिपके हैं रुधिर पिएं तन का और मुखोटा पहने वे सब भोलेपन का भूख लोभ की बढ़ती चाह बढ़ी जितनी जब कुचल रहे पैरों में दीनों के सपने में  आग लगाकर सुख में बनते हैं अपने  नदी नाव से पूछ रही  लहरें हैं कितनी... दंभ बोलता सिर चढ़कर बाहुबल का जोर  कानों में कब पड़ता है  अन्याय का शोर  मौसम से सुर बदले हैं बात रही इतनी... अभिलाषा चौहान  (चित्र गूगल से साभार)

कल्याण (लघुकथा)

  रज्जो बर्तन घिस रही थी तभी पड़ोस वाली कमली दौड़ती हुई आई-"ओ रज्जो!सुन जल्दी से काम निपटा ले,स्कूल वाली बहनजी बुला रही हैं, कोई बड़ी मैडम जी आई हैं, औरतों का कल्याण होगा उनकी बातों को सुन कर।" अरे काहे का कल्याण,अभी तो दो घर और पड़े हैं,तेरे निपट गए। अरे नहीं, मालकिन भी जा रहीं हैं,सो उन्होंने कहा-आकर कर लेना।चल अब जल्दी कर। कमली उसके साथ काम कर वाने लगी।तभी रज्जो की मालकिन भी आकर बोली- अरे रज्जो जा ,मैं भी आ रहीं हूँ। ऐसी जगह जाने से औरतों को अपने अधिकारों और योजनाओं का पता चलता है। सरकार महिला सशक्तीकरण पर जोर दे रही है,जिससे औरतों को भी मुख्य धारा में लाया जा सके।ऐसी बातें तुम जैसी स्त्रियों में जागरूकता लातीं हैं,उनका कल्याण करती हैं। रज्जो और कमली मुँह बाये सुन रहीं थीं।उनके पल्ले कुछ भी न पड़ा।बेचारी घरों में काम करके अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रहीं थीं। दोनों के मर्द अव्वल दर्जे के शराबी और नकारा इंसान थे,मजदूरी पर कभी जाते कभी नशे में किसी गड्ढे या सड़क पर पड़े रहते। मालकिन के जोर देने पर दोनों पहुंच गई सभा में -मैड़म जी ने बड़ी-बड़ी बातें की। औरतों को अन्य

गूँज -लघुकथा

चित्र
  मम्मी! मुझे दीवाली पर नए कपड़े चाहिए और आप भी अपने लिए एक साड़ी ले लो।बेटी बार-बार जिद कर रही थी। सुन सुन कर रमा चिढ़ उठी।अपने बाप से बोल, मेरा माथा क्यों खा रही है। आप क्यों नहीं बोल सकतीं , आप कैसे ऐसा जीवन जी सकती हो,हर बार हर बात के लिए पापा से क्यों पूछना होता है?महिला सशक्तीकरण का जमाना है। सोलह साल की बेटी का खून उबाल मार रहा था। तू नहीं समझेगी,तेरा ब्याह होगा तब सब समझ में आ जाएगा।तू ही क्यों नहीं कह देती अपने बाप को??रमा झल्ला उठी थी। शाम को उसने अपने बाप से वही बात कही जो मां से कही थी।पिता बेटी को बस इतना बोला-सोचेंगे इस बारे में... सोचना क्या है पापा,मां को देखो अपनी कोई इच्छा आपको नहीं बताती और न ही कभी अपने लिए कुछ खरीदती है आपसे बिना पूछे! चुप कर तू बाप से ज़बान लड़ाती है...थके हारे आदमी को क्यों परेशान करे है? तो सहती रहो चुपचाप,जैसे खुद जीती हो ,वैसे मुझे नहीं जीना बेटी पैर पटकती चली गई। रमा पति की ओर देख धीरे से बोली-मन खराब मत करो जी नासमझ है मैं समझा दूँगी। तू समझाएगी तू ही सिखा रही है उसे,दूसरे घर जाएगी तो नाक कटाएगी।महीने के खर्चे का हिसाब दे मुझे,मर-म

आज भी हैं...

चित्र
मांडवी, उर्मिला,यशोधरा,सीता हर घर में आज भी है! परिणीता होकर परित्यकता सा जीवन जीती आज भी हैं! सप्तपदी के वचनों में बंधी चलती पीछे-पीछे आज भी हैं! पुरुष सत्तात्मक समाज में विरहनी उपेक्षिता वंचिता आज भी हैं! पूजे जाते हैं बुद्ध विश्व में संग यशोधरा तो नहीं!!! भरत लक्ष्मण के संग मांडवी उर्मिला भी नहीं!!! इनके त्याग का मूल्य कौन जानता है??? बुद्ध लक्ष्मण भरत के पीछे यही है कौन मानता है??? अग्नि परीक्षा सीता ही देगी प्रथा राम राज्य से चली जाने कितनी सीताएँ इस परीक्षा में हर रोज जली राम के राज्य में भी  नहीं मिला सीता को न्याय!!! सब कुछ था फिर भी  रहीं सदा असहाय!! मांडवी उर्मिला का मौन किसने सुना ऐसा कौन?? अपनी व्यथा किसे सुनाती चुपचाप आँसू बहाती जाने कितनी यशोधरा भीड़ में नित खो जाती युग बदले नाम बदले बोल बदले.…. पर इनके भाग्य कहाँ बदले!! सशक्तिकरण का नारा मात्र दिखावा है! होता रहा उनके साथ बस छलावा है! अभिलाषा चौहान 

इंतजार करो

चित्र
एक आम गृहिणी की पीड़ा  इंतजार करो आएगा ऐसा दिन होंगी ख्वाहिशें पूरी अभी जिम्मेदारियां हैं वे हैं जरुरी.. गृहस्थी की गाड़ी चलानी है रिश्तेदारी भी निभानी है कुछ कर्ज चुकाने है बच्चे भी तो पढ़ाने है  अभी तो बहुत समय है चलेंगे कभी घूमने.... माता-पिता बुजुर्ग हैं कैसे छोड़ें अकेला?? अभी तो समय है.... अपनी छत हो जाए बच्चों की शादी हो जाए फिर समय ही समय है... मैं मसालों में लिपटी तुम हिसाब-किताब में उलझे चलते रहे यूँ ही निभाते अपना धर्म ..... तुम कहाँ जा रही हो कर देंगे पूरी इच्छा रिटायर हो जाएँ तो समय ही समय है.... करती रही इंतजार आएगा समय.... लो आ गया समय अस्पताल में घूमने का अभी सेहत है जरूरी फिर करेंगे ख्वाहिशें पूरी... बोले थे तुम मैंने नहीं सुना क्योंकि अब नहीं है मुझे इंतज़ार ना ही बाकी है कोई इच्छा मुझे पता है मेरी ही इच्छाओं को घोंटना सबसे सरल था तुम्हारे लिए सबके लिए वक्त था पर मेरे लिए बस इंतजार था दो पल अकेले बिताने थे तुम्हें अपने जज्बात सुनाने थे अब तो उम्र भी न रही कुछ मर गया है भीतर बस ढो रही हूं अपनी मृत इच्छाओं का बोझ जिनका अंतिम संस्कार करना है मुझे जीने की चाह भी बोझ के सम