खेले रोज पहेली





राजनीति की चालें

होती कैसी मैली

लाभ उठाएँ सबका।

खेले रोज पहेली।


वोट सगा है इनका

वादे इनके झूठे

निर्धन देखें सपने

देव रहें बस रूठे

भूखों की बस्ती में

ट्रक शराब उड़ेली।


भूख राक्षसी बनती

कैसे लड़ता निर्बल

सिक्कों की खनखन से

बन जाता है दुर्बल

सत्ता की चौसर पर

पाँसे सी बन ढेली।


धर्म जाति को जब ये

ढाल बनाकर लड़ते

दीन बेचारा सोचे

भाग्य हमारा गढ़ते

उनकी झोली खाली

भरते अपनी थैली।


बढ़ती झोपड़ पट्टी

भूखे अधनंगे बच्चे

आँख मूँद ये बैठे

बने कान के कच्चे

चमक सफेदी छाई

काया कितनी मैली।


अभिलाषा चौहान 







टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर रचना, अभिलाषा दी।

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना

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  3. कटु सत्य को अभिव्यक्त रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(३०-१०-२०२२ ) को 'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-४५९६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ख़ूब अभिलाषा जी ! वैसे हमारे दूध के धुले नेताओं पर ऐसे आक्षेप लगाने से आपको पाप लगेगा. अपनी दो क्षणिकाएं याद आ रही हैं -
    1. राजनीति के विश्वकोश में, शब्द नहीं कोई खुद्दारी,
    कुर्सी से ही जुडी हुई है, देशभक्ति हो या ग़द्दारी.
    2. मजाज़ लखनवी के एक मक़बूल शेर को थोड़ा बदल कर मैंने कहा है -
    कुछ तो होते है सियासत में, ठगी के आसार,
    और कुर्सी की ललक, चोर बना देती है.

    जवाब देंहटाएं
  6. राजनीति के कटु सत्य को बयान करती प्रभावशाली रचना

    जवाब देंहटाएं
  7. कोई तरीका ही नहीं है , राजनीति स्वच्छ करने का , जनता को बाहुबली चाहिए होता है , क्योंकि जनता का भी चरित्र स्वच्छ नहीं है। राजनेता जनता के अनुयायी होते हैं।
    बहुत अच्छी कविता 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं

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